सुनने की मोहलत मिले तो आवाज़ है पत्थरों में….
एक बार फिर इस यक़ीन पर मोहर लगी. बेआवाज़ से बिखरे पत्थरों से गुफ़्तगू का सिलसिला बना और एक मुक़ाम पर पहुँचकर लगा कि इनके हर क़तरे में क़ायनात की रंग-बिरंगी मूरतों को गढ़ा जा सकता है. पूना की रहवासी अनिता दुबे की फ़ितरत पर अब यही जुनून सवार है. शिल्प कला के संसार में वे निहायत नया और अनूठा इतिहास रचते हुए कलाकारों की पांत में अलहदा सी पेश आ रही हैं. कहना बेमानी नहीं कि उनकी आगोश में आकर पत्थरों में प्राण आ जाते हैं.
भोपाल में अनिता का लड़कपन साहित्य और कला प्रेमी परिवार के साए में बीता. पढ़ने-लिखने के संस्कार मिले. युवा समय में रेडियो से भी राब्ता जुड़ा. शादी के बाद का बहुत सारा वक़्त दुनियावी ज़िम्मेदारियों को सम्हालते गुज़र गया. इस राह पर चलते एक दिन कुछ चमकीले पत्थरों ने अनिता को ठहरने के लिए विवश कर दिया. रूह पुकार उठी कि पत्थरों के सख़्त दामन में भी दिल बसता है. उसकी धड़कनें सुनी जा सकती हैं. इन आवाज़ों में अपनी आवाज़ सुनी जा सकती है. बस, यही उन्वान था और अनिता एक नयी यात्रा पर निकल पड़ी….
पत्थरों ने अनिता के मन पर कुछ ऐसा असर किया कि उनकी हर नस्ल में उसे कोई न कोई आकृति दिखाई देती. वे कहती हैं- पिछले कई सालों से मुझे गणपति की आभा लिए कुछ पत्थर मिले, तो कभी कोई दूसरा चेहरा उनमें दिखाई दिया. अक्सर जिनसे रास्ते चलते ठोकर लगी या वो पैरों के नीचे आये वो पत्थर भी अद्भुत निकले. केरल से लेकर अंडमान, गोवा, कच्छ, नलिया, भुज, जोधपुर, औरंगाबा, कर्नाटक से लेकर बीजापुर तक पत्थरों की अनेक कि़स्में मेरे सामने थीं. मध्यप्रदेश की हूँ और ससुराल जबलपुर के पास तो नर्मदा नदी से कई पत्थर मैंने जमा किए. वैष्णव देवी घूमने गई तो आर्मी के गेस्ट हाऊस के पीछे बहते झरने से छोटे-छोटे कई पत्थर ले आई. अंबाला में भी यही हुआ.
अनिता बताती हैं कि अपनी दो बेटियों के बड़े होने के साथ यह शौक़ कम ना हुआ. उनको भी यह आदत पड़ी. पत्थरों का भारी बक्सा बन गया. मैं अपनी जि़द पर अड़ी रही. अनिता के पास इन पत्थरों से जुड़ी रोचक आप बीती है. वे एक वाक़या सुनाती हैं- पति पंजाब बार्डर पर पोस्टिंग में गये तब दो-तीन बक्सों में पत्थर ही थे. अब समस्या यह आई की हमें पुणे में ही सिविल के घर में चौथी मंजिल के छोटे घर में शिफ्ट होना था. बहुत सा सामान भरे बक्से एक युनिट में रखे गये. ज़रूरत का कम सामान ही फ़्लैट में ले गये. मगर पत्थर के बक्से मैंने यूनिट नहीं भेजे बल्कि फ़्लैट के गैराज में ही रखे. छः-सात साल वो बक्से बंद रहे. हर बार बाहर जाते समय कार निकालती तो लगता पत्थर अन्दर बैठे कोसते होंगे की बीनकर हमें क़ैद कर लिया है. फिर पति की पोंस्टिग पंजाब से वेस्ट बंगाल भूटान बार्डर पर हुई. मैं कुछ दिनों के लिए उनके पास गई. जिस दिन पहुँची उसके दूसरे दिन ही पति को डेंगू हो गया. वो अस्पताल में एडमिट हुए. चार-पाँच दिन अस्पताल में बीते. तबीयत काफ़ी खराब थी. मैं कमरे में बैठे बस, दीवारें देखती कभी खिड़की से बाहर देखती. आवाज़ से भी वो परेशान होते थे तो टीवी भी बंद. एक दिन मैं घर अपने सामान लेने के लिए गई. अस्पताल से घर और मैस के बीच पाँच-छः किलोमीटर के अन्तर में मुझे पानी के झरने मिले जो बिल्कुल सड़क किनारे थे. गाड़ी से उतरी थी थोड़ी देर ताजगी महसूस करने मगर सफेद-काले और रंगीन छोटे-छोटे पत्थर देखकर मन खुश हो गया तो उतरकर एक हाथ में मुट्ठी भर पत्थर ले आई. अब धोकर अपने साथ अस्पताल ले गई और 15 दिन पति के साथ अस्पताल में मेरे पास बिना शोरगुल किये कुछ था तो बस वो पत्थर जिनसे छोटी-छोटी आकृतियाँ बनाती, मिटाती. बनाकर तस्वीर खींच कर फिर दुबारा सृजन करती.
वे बताती हैं, लिखने के साथ साथ संगीत सुनना, पेन्टिंग, ज्वेलरी बनाना भी मेरा शौक है और लगभग हर दिन मैं कुछ सृजन करती ही हूँ. कभी इन पत्थरों से मैंने कविता रची, कभी प्रकृति के चित्र उकेरे तो कभी चेहरे गढ़े. अक्टूबर का महीना आया. दशहरा सामने था. हर दिन मैं राम लीला के प्रसंग बनाकर तस्वीरें खींचती. बेटियाँ फोन पर पूछतीं आज क्या किया तो उनको तस्वीरें भेज देती. तभी एक दिन फ़ेसबुक पर कुछ तस्वीरें पोस्ट की और फिर यह सिलसिला चल पड़ा. लोगों को पसंद आने लगा वो काम जिसे मैं लगभग 10 साल पहले छोड़ चुकी थी. इसी बीच कुछ लोगों ने मेरे काम को अपनी वॉल पर शेयर किया. बहुतों ने तारीफ़ की तो कुछ नकारात्मक टिप्पणियाँ भी मिलीं. मैने सोचा जिन पत्थरों के साथ इतने बरसों से हूँ अब उनको कैसे सच साबित करूँ. लिहाज़ा हर दिन के ख़ास त्योहारों पर शुभकामनाएँ आदि बनाकर पोस्ट करने लगी.
इसी बीच किसी ने मुझे कविताओं को पत्थर से लिखने की चुनौती दी और इस तरह साहित्य को भी पत्थर से व्यक्त करने की दिशा खुली और उसमें कामयाब हुई. धीरे-धीरे कुछ पुराने पत्थर निकाले जिनसे पहले सृजन करती थी. उसमें भूटान बार्डर के पत्थर भी शामिल किए हैं. अब हर दिन कुछ बनाती हूँ. उन पत्थरों को आज़ाद करती हूँ. उनसे सृजन करके रूप बदलती हूँ.
अनिता कहती हैं कि छोटा सा कंकर भी मुझे प्यारा है. बजरी, ईट, गिट्टी, लकड़ी, सूखी जड़े आदि सब इसका हिस्सा हैं. जिनका मोल तो ‘कुछ नहीं’ के बराबर है लेकिन मेरे लिए किसी गहने तोहफ़े से ज़्यादा ये क़ीमती हैं. उन सभी से मेरी पहचान है. इन कलाकृतियों से कलाप्रेमियों के परिचय का दायरा जब बढ़ा है तो मेरी चुनौतियाँ भी बढ़ गयी हैं. लेकिन मेरा सफ़र बदस्तूर जारी है. हाल ही मैंने साहित्य और कला की मूर्धन्य विभूतियों के पोट्रेट बनाए हैं. टैगोर से लेकर प्रेमचंद और सुमित्रानंदन पंत तक. दरअसल ये पत्थर मेरी आत्मा की पुकार बन गये हैं.
कला समीक्षक और मीडियाकर्मी. कई अखबारों, दूरदर्शन और आकाशवाणी के लिए काम किया. संगीत, नृत्य, चित्रकला, रंगकर्म पर लेखन. राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उद्घोषक की भूमिका निभाते रहे हैं.
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