एकल चलो रे/
आमार शोनार बांग्ला/
तुमी के मोन गान कौरो हे गुनी/
आमार पौरानो जाहा चाय.
जाने कितनी ही दफा बांग्ला की शीरी जुबां में ढले इन गीतों की सुरमई छुअन ने रूह को महकाया. लेकिन इन गीतों को रचने और उन्हें मीठी धुनों में पिरोने वाले गुरुदेव रबींद्रनाथ टैगोर के सांस्कृतिक मानस को बहुत गहरे में समझने का संयोग न बना. इधर एक सभा में सुर पराग, जबलपुर के कलाकारों ने जब रवींद्र संगीत का वृंदगान किया तो टैगोर की सृजनात्मक मेधा के प्रति अलग-सा कौतूहल जागा.
गुरुदेव का कहा बरबस आया आया- “मैं जब भी गीत लिखता हूं, राग-रागिनियों का रस-भाव भरा संगीत उनमें चला ही आता है.” यहीं से रवींद्र संगीत का विन्यास खुलता है. ध्वनि और शब्द की परस्परता में प्रेम, करूणा, सौहार्द, समरसता और संवेदना के मानवीय मूल्यों की गहरी उपस्थिति हमें दिखाई देती है. यही वजह है कि कोई कितना भी बेजान और अकेला क्यों न हो रवींद्र संगीत उसे जाने कितने ही इंद्रधनुषी लोकों की सैर करा देता है. दरअसल, रवींद्र संगीत में गुरुदेव भारत की उस बुनियादी खासियत और ताकत को रचते हैं जहां ‘विविधता में एकता’ अनायास चली आती है. रवींद्र संगीत का रसायन भी संगीत की अनेक धाराओं से मिलकर तैयार हुआ है- गहरा, विराट, मधुर और धमनियों में उतर जाता-सा.
1913 में जब टैगोर की बांग्ला कविता कृति ‘गीतांजलि’ को विश्व के सर्वोच्च नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया तो टैगोर के सांस्कृतिक व्यक्तित्व को दुनिया ने समग्रता में देखना शुरू किया. उनके विराट में रवींद्र संगीत का आरोह-अवरोह अनूठी पवित्रता लिए आनंद का लोक रच रहा था. कोई गीत सात सुरों की हमजोली में इतना अलग तरह से जाग उठता है कि उसमें हम अपनी ही आत्मा का उजाला खोज सकते हैं. गुरुदेव रवींद्र संगीत में इसी आत्मज्योति की तलाश करते दिखाई देते हैं. प्रसंगवश यह जानना भला लगता है कि भारत का राष्ट्रगान- “जन गण मन अधिनायक जय हे” और बांग्लादेश का राष्ट्रगान “आमार शोनार बांग्ला” टैगोर के ही गीत-संगीत की महान स्वीकृति है.
भारत के लोक और जनजातीय संगीत, राग-रागिनियों में बंधे शास्त्रीय संगीत और पश्चिमी संगीत की कुछ धुनों से प्रेरित होकर गुरूदेव ने रवीन्द्र संगीत का ताना-बाना तैयार किया. यही वजह है कि ‘मास’ और ‘क्लास’ की कोटियों से निकलकर उनकी यह संगीत शैली पूरी मनुष्यता को पुकारने की ताकत रखती है.
स्वाधीनता और अमृत महोत्सव के निमित्त भारत की प्रबुद्धता को जानने की अनेक दिशाएं खुली हैं. हम कितनी तरह से उस संपदा को याद करते हैं जिन्हें हमारे ही देश की तपस्वी विभूतियों ने अपने समय में गढ़ा और आने वाली पीढि़यों को सौंप दिया. इस पृष्ठभूमि में गुरुदेव रबींद्रनाथ टैगोर अनेक रूप-छवियों से मंडित संस्कृति पुरूष की तरह दिखाई देते हैं. कहते हैं- अनुभूति की तरंगें तो हर चित्त में उठ सकती हैं पर अभिव्यक्ति के तीर्थ हर किसी को नसीब नहीं होते. टैगोर का रवींद्र संगीत भारत ही नहीं, संसार भर की आत्मा में डूबती-उतराती वो लहरे हैं जो अपने प्रवाह में तीर्थ सा मोक्ष देती हैं.
गुरुदेव के रवींद्र संगीत से रंगमंच और सिनेमा भी अछूता नहीं रहा. सत्यजीत रे, आरडी बर्मन, ऋतुपर्ण घोष और मृणाल सेन से लेकर पंडित रविशंकर ने अनेक दृश्यों के ध्वनि प्रभाव तथा गीतों में रवींद्र संगीत का इस्तेमाल किया है. कवि-अनुवादक और टैगोर साहित्य के शोधार्थी उत्पल बैनर्जी के अनुसार- यह रबींद्रनाथ की प्रतिभा के बूते की ही बात थी कि उन्होंने जितने भी गीत लिखे, लगभग सभी की धुन भी उन्होंने बनाई. इसके उलट कई बार ऐसा भी हुआ कि उन्हें कोई धुन सूझी तो तुरंत उन्होंने उसके लिए गीत लिख डाला. शुरू के लगभग सभी गीतों की धुन उन्होंने विशुद्ध रूप से भारतीय शास्त्रीय रागों के आधार पर तैयार की थी और कमाल की हैं. उन्होंने इन रचनाओं के द्वारा उस समय के प्रचलित संगीत की एकरूपता को तोड़ते हुए संगीत का सर्वथा नया मुहावरा गढ़ा था.
‘संगीत की मुक्ति’ निबंध में उन्होंने लिखा है- ‘मैं जिस भी तरह से गीतों की रचना क्यों न करूं, राग-रागिनियों का रस उसमें मिला ही रहेगा.’ यानी उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि राग-रागिनियों की उपेक्षा कर अच्छे गीत नहीं लिखे जा सकते. अपने जबर्दस्त संगीतबोध और अनोखी कल्पनाशक्ति की बदौलत उन्होंने ऐसी धुनें बनाई जो हमें विस्मय से भर देती है. उनके द्वारा किए गए रागों और सुरों के मिश्रण में कुछ ऐसी मौलिकता और विशिष्टता थी कि उनके गीत इतने मर्मस्पर्शी बन सके हैं. उनके गीतों में मींड के प्रयोग की बहुलता दिखाई देती है, जो एक खास तरह की कर्णप्रियता की सृष्टि करती है. गीतों में छंदों का प्रयोग भी एक उल्लेखनीय वस्तु है. हालांकि उन्होंने छंद के चलन को कठोर नियमों के बंधनों में नहीं बांधा और यही कारण है कि उनके रचे गीतों की प्रकृति को किसी तरह की क्षति नहीं पहुंची है. धुन बनाते समय भी उन्होंने बहुत सावधानी से गीत के भावों की रक्षा की है.
यूरोप यात्रा के दौरान तथा बाद की कई धुनों पर पश्चिमी संगीत का असर दिखाई देता है, लेकिन वे धुनें हमारी संगीत परंपरा का भावबोध लेकर ही रूपाकार ग्रहण करती है. बड़ी उम्र में उनका यह भावबोध और भी परिपक्व होता दिखता है. इस समय के गीतों में स्वरों और शब्दों के संयोजन में जो विविधता और प्रयोगशीलता दिखाई देती है, वह रबींद्रनाथ की विलक्षण प्रतिभा के उत्कर्ष का निदर्शन कराती है. वे गीतों को तमाम नियमों के बंधनों से मुक्त कर हृदय और प्राणों के साथ जोड़ देना चाहते थे और इसी सुसंगति में उन्हें संगीत की मुक्ति दिखाई दी थी. इसका अर्थ था- स्वाधीनता. इसी स्वाधीनता ने उनके गीतों को नया जन्म दिया था. उन जैसा कम्पोजर पूरे विश्व में कोई नहीं दिखाई देता. उनकी थोड़ी-बहुत तुलना बीथोवन के साथ की जाती है, लेकिन रबींद्रनाथ हमें इसमें अनोखे ही मालूम होते हैं.
रबींद्रनाथ के संगीत में गीतों की सुसंगति ने अमूर्त को मूर्त किया है. जीवन की विविध रूप-छटाओं की बहुआयामी अभिव्यक्ति ने उनके संगीत को ऊंचाई प्रदान की है. संगीत का ऐसा मानवीयकरण हम विश्व में कहीं ओर नहीं देखते. साहित्य और संगीत के इस अनोखे मिलन ने रबींद्रनाथ को पूरी दुनिया में सबसे अलग स्थान प्रदान किया है.
दुर्भाग्य से रवींद्र संगीत के प्रति नई पीढ़ी का रूझान जगाने और उसके कलात्मक अध्यात्म को ठीक से प्रचारित करने की दिशा में गंभीर कोशिशें दिखाई नहीं देती. टैगोर की सरजमीं बंगाल में यह प्रभाव प्रौढ़ पीढ़ी में तो प्रकट है लेकिन नौनिहाल और नौजवान नस्ल का बहुत चाव वहां भी नदारद है. फिर अन्य राज्यों से क्या अपेक्षा की जा सकती है. कभी छिटपुट रस्मी आयोजनों में रवींद्र संगीत की धुनें गूंजती हैं तो राग-अनुराग फिर से उमड़ने लगता है.
अमृत महोत्सव में रवींद्र भवन के संरक्षण के प्रति स्थाई भाव जागे, यही सुरमई कामना.
कला समीक्षक और मीडियाकर्मी. कई अखबारों, दूरदर्शन और आकाशवाणी के लिए काम किया. संगीत, नृत्य, चित्रकला, रंगकर्म पर लेखन. राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उद्घोषक की भूमिका निभाते रहे हैं.
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