सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के फैसले के बाद प्रधानमंत्री, लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष और सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस की कमेटी की सलाह पर ही नए चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति होगी. सुप्रीम कोर्ट के फैसले में कई सख्त बातें कही गई हैं. उनके अनुसार चुनावी प्रक्रिया का दुरुपयोग लोकतंत्र की कब्र खोदने जैसा है. चुनाव आयोग को स्वतंत्र होने के साथ संवैधानिक ढांचे और कानून के दायरे में काम करना चाहिए. चुनाव आयुक्त अनुपचंद्र पांडेय फरवरी 2024 में रिटायर होंगे. उसके बाद ही इस फैसले का प्रभाव दिखाई देगा. उसके पहले सरकार संसद से इस बारे में कानून बनाने के साथ फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में रिव्यू याचिका भी दायर कर सकती है.
इस मामले से जुड़े संवैधानिक पहलुओं को इन 5 बिंदुओं में समझा जा सकता है –
1. अमेरिका में सीनेट के माध्यम से नियुक्ति
चुनाव आयोग से जुड़े मामलों पर संविधान सभा में लंबी बहस के साथ पिछले सात दशकों में कई उतार-चढ़ाव हुए हैं. सदन के दो-तिहाई बहुमत से चुनाव आयुक्तों को हटाने के लिए प्रावधान की बात करने पर संविधान सभा के सदस्य शिब्बनलाल सक्सेना ने कहा कि उनकी नियुक्ति भी सदन के दो-तिहाई बहुमत से होनी चाहिए. इसके जवाब में डॉ. अंबेडकर ने अमेरिका की बात करते हुए कहा कि वहां पर सीनेट की सलाह पर ही महत्वपूर्ण पदों पर राष्ट्रपति द्वारा नियुक्ति की जाती है. उनके अनुसार भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था के परिपक्व होने के पहले अगर ऐसे नियम बनाए गए तो प्रशासनिक कठिनाइयां पैदा हो सकती हैं. इसलिए अनुच्छेद-324 (2) के तहत चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए संसद से कानून बनाने का प्रावधान रखा गया था.
2. संसद में संविधान संशोधन विधेयक
चुनाव आयोग से जुड़े कई मामलों पर संसद ने कानूनी बदलाव किए हैं. सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में कहा कि पिछले सात दशकों में सभी पार्टियों की सरकारें इस बारे में जरूरी कानून बनाने में विफल रही हैं. लेकिन हकीकत यह है कि इस बारे में कानून बनाने के लिए राज्यसभा में सन् 1990 में संविधान संशोधन बिल पेश किया गया था. यह विधेयक चार साल तक ठंडे बस्ते में पड़ा रहा, जिसके बाद इसे वापस ले लिया गया. संसद ने सन् 1991 में चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति और सेवा की शर्तों को निर्धारित करने वाला कानून बनाया था. जिसके अनुसार उनका कार्यकाल 6 साल या 65 साल की अधिकतम उम्र तक निर्धारित किया गया.
3. Law Commission और प्रशासनिक सुधार आयोग की रिपोर्ट
सन् 2015 में विधि आयोग ने 255वीं रिपोर्ट में चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्ष और सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस की अध्यक्षता वाली समिति बनाने वाली सिफारिश की थी. UPA-1 के दौर में वीरप्पा मोईली की अध्यक्षता वाले प्रशासनिक सुधार आयोग (ARC) ने उसके पहले सन् 2007 में ऐसी ही सिफारिश की थी. उसके अनुसार समिति में कानून मंत्री और राज्य सभा के उपसभापति को रखने का भी सुझाव था. UPA-2 के शासनकाल में भाजपा संसदीय दल के चेयरमैन एलके आडवाणी ने मोईली समिति की सिफारिशों को लागू करने के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र भी लिखा था.
4. CBI, CVC, NHRC और CIC में कॉलेजियम
संसद ने सन् 1993 में Protection of Human Rights Act पारित किया. इसके चेयरमैन और सदस्यों के चयन के लिए प्रधानमंत्री, लोकसभा स्पीकर, गृहमंत्री, लोकसभा और राज्यसभा में नेता विपक्ष और राज्यसभा के उपसभापति की समिति बनाने का प्रावधान है. चुनाव आयोग मामले के पहले सुप्रीम कोर्ट ने 1997 में विनीत नारायण मामले में ऐतिहासिक फैसला दिया था. उसके बाद सन् 2003 में संसद ने CVC अधिनियम पारित किया. उसके अनुसार मुख्य सर्तकता आयुक्त और अन्य आयुक्तों की नियुक्ति के लिए प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और लोकसभा में नेता विपक्ष की समिति का प्रावधान किया गया.
सन् 2005 में संसद ने RTI Act पारित किया. उसके अनुसार मुख्य सूचना आयुक्त और अन्य आयुक्तों की नियुक्ति के लिए प्रधानमंत्री, लोकसभा में नेता विपक्ष और प्रधानमंत्री द्वारा नामित अन्य कैबिनेट मंत्री की चयन समिति का प्रावधान रखा गया. अन्ना आंदोलन के बाद संसद से 2013 में Lokpal और लोकायुक्त कानून पारित हुआ. उसके बाद CBI डायरेक्टर की नियुक्ति के लिए प्रधानमंत्री, लोकसभा में नेता विपक्ष और Supreme Court के चीफ जस्टिस या फिर उनके द्वारा नामित जज की समिति बनाने का नियम बना.
5. सुप्रीम कोर्ट में पांच जजों से बड़ी बेंच के गठन की जरुरत
9वीं लोकसभा चुनावों के पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और मुख्य चुनाव आयुक्त आरवीएस पेरी शास्त्री के बीच तनाव बढ़ने के बाद सरकार ने चुनाव आयोग को तीन सदस्यीय बनाने के लिए कानून बना दिया था. इसके लिए अक्टूबर 1989 में राष्ट्रपति वैंकेटरमन ने नोटिफिकेशन जारी करके दो नए चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की थी. वीपी सिंह की अगली सरकार ने उस नोटिफिकेशन को निरस्त कर दिया, जिस पर उठा विवाद सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था. पीवी नरसिम्हा राव सरकार का मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन के साथ टकराव हुआ जिसके बाद आयोग को फिर से तीन सदस्यीय बना दिया गया. सुप्रीम कोर्ट में पांच जजों की बेंच ने जुलाई 1995 में फैसला देकर आयोग को तीन सदस्यीय बनाने पर अपनी मुहर लगा दी.
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर सरकार की तरफ से अभी चुप्पी है. सुप्रीम कोर्ट के 13 जजों के पीठ ने सन् 1973 में केशवानंद भारती मामले में शक्तियों के पृथक्करण का संवैधानिक सिद्धांत बनाया था. उसके अनुसार सरकार, संसद और सुप्रीम कोर्ट सभी को संविधान के तहत निर्धारित सीमाओं का पालन करना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट कानून की व्याख्या करने के साथ उन्हें निरस्त कर सकता है. लेकिन इस फैसले से सुप्रीम कोर्ट ने कानून बनाने की भूमिका पूरी की है. इसलिए कुछ लोग अति न्यायिक सक्रियता के आधार पर इस फैसले की आलोचना कर रहे हैं. चुनाव आयोग से जुड़े मामलों पर संविधान पीठों के अनेक फैसले आ चुके हैं. इसलिए आगे चलकर इन मामलों पर सुनवाई के लिए पांच जजों से बड़ी बेंच के गठन की मांग हो सकती है.
लेखक सुप्रीम कोर्ट के वकील और संविधान तथा साइबर कानून के जानकार हैं. राष्ट्रीय समाचार पत्र और पत्रिकाओं में नियमित लेखन के साथ टीवी डिबेट्स का भी नियमित हिस्सा रहते हैं. कानून, साहित्य, इतिहास और बच्चों से संबंधित इनकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं. पिछले 7 वर्ष से लगातार विधि लेखन हेतु सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस द्वारा संविधान दिवस पर सम्मानित हो चुके हैं. ट्विटर- @viraggupta.
और भी पढ़ें