Marital Rape: परिवार और न्यायपालिका की लक्ष्मण रेखा पर सवाल
दिल्ली हाईकोर्ट के दो जजों की बेंच ने मैरिटल रेप यानि वैवाहिक दुष्कर्म पर खण्डित फैसला दिया है. महिला संगठनों ने इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर करने की बात कही है. वैवाहिक दुष्कर्म को आपराधिक बनाने की पहल करने से पहले सरकार और सुप्रीम कोर्ट को इसके दुरुपयोग को रोकने के लिए सुरक्षात्मक प्रावधान करना जरुरी होगा.

दिल्ली हाईकोर्ट की बेंच ने मैरिटल रेप यानि वैवाहिक दुष्कर्म पर खण्डित फैसला दिया है.
दिल्ली हाईकोर्ट के दो जजों की बेंच ने मैरिटल रेप यानि वैवाहिक दुष्कर्म पर खण्डित फैसला दिया है. जस्टिस शकधर ने कहा कि आईपीसी की धारा-375 के अपवाद-2 और धारा-376 (ई) के दो प्रावधान संविधान के अनुच्छेद-14, 19 (1) और 21 के खिलाफ होने के कारण रद्द होने चाहिए. खण्डपीठ के दूसरे जज जस्टिस हरिशंकर ने उनसे असहमति जताते हुए यह भी कहा कि कानून बनाने या रद्द करने का अधिकार अदालत की बजाय जनता द्वारा चुनी गई विधायिका को है. महिला संगठनों ने इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर करने की बात कही है.
हाईकोर्ट में तीन तरह की याचिकायें
दिल्ली हाईकोर्ट में सन् 2015 में याचिका दाखिल करके वैवाहिक दुष्कर्म को अपराध घोषित करने की मांग की गई थी. उसके बाद इस मामले में कई अन्य याचिकायें और अर्जियां दायर की गईं. उन्हें मोटे तौर पर तीन वर्गों में बांटा जा सकता है. पहली, याचिकाओं के अनुसार पत्नी की इच्छा के विपरीत बलपूर्वक सेक्स करने वाले पति के खिलाफ रेप का अपराध दर्ज होना चाहिए. उसके अनुसार आईपीसी क़ानून में पति के हक़ किया गया अपवाद गलत और गैरजरूरी है. दूसरी, याचिकाओं में विरोध करते हुए कहा गया कि इन मांगों को माने जाने पर कानून का दुरुपयोग होने के साथ झूठी मुकद्मेंबाजी भी बढ़ेगी. तीसरी, अर्जियों में कहा गया कि रेप यानि बलात्कार का कानून लिंग निरपेक्ष होना चाहिए. पुरुषों के साथ महिलाओं के खिलाफ भी बलात्कार के मामले दर्ज करने के लिए कानून में बदलाव होना चाहिए.
केन्द्र और दिल्ली सरकार का गोलमोल जवाब
जनवरी 2016 में दिल्ली हाईकोर्ट ने केन्द्र और दिल्ली सरकार को नोटिस जारी करके जवाब मांगा था. अगस्त 2017 में केन्द्र सरकार ने कहा कि वैवाहिक दुष्कर्म को अपराध नहीं बनाया जा सकता क्योंकि इससे विवाह और परिवार की संस्था अस्थिर हो सकती है. जनवरी 2018 में दिल्ली सरकार ने अपने जवाब में कहा कि वैवाहिक दुष्कर्म पहले से ही क्रूरता और अपराध की श्रेणी में हैं. कई साल बाद जनवरी 2022 में हाईकोर्ट ने इन मामलों पर दैनिक आधार पर सुनवाई का निर्णय लिया. संविधान के तहत विवाह और पर्सनल लॉ के मामले केन्द्र के साथ राज्यों के अधिकार क्षेत्र में भी आते हैं. इसलिए केन्द्र सरकार ने कहा कि इस मामले पर हाईकोर्ट में राज्य सरकारों का पक्ष भी सुना जाना जरुरी है. उस आधार पर केन्द्र सरकार ने इस मामले पर चल रही सुनवाई को टालने का आग्रह किया, जिसे कोर्ट ने नहीं माना.
विधायिका की लक्ष्मण रेखा
जस्टिस शकधर की इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि सशक्त किये बगैर महिलाओं को देवी मानने का कोई अर्थ नहीं है. उन्होनें यह भी कहा कि सेक्स वर्कर को यदि ना करने का अधिकार है तो फिर पत्नी को यह अधिकार क्यों नहीं मिलना चाहिए. उनकी इस बात पर अनेक विवाद हो सकते हैं. सुप्रीम कोर्ट के 13 जजों की बेंच ने केशवानन्द भारती मामले में 50 साल पहले ऐतिहासिक फैसला दिया था. उसके अनुसार कानून बनाने और उसमें बदलाव करने का अधिकार संसद या विधायिका को है. इस लिहाज से दूसरे जज जस्टिस हरिशंकर का फैसला संवैधानिक व्यवस्था के अनुकूल है.
समलैंगिकता और व्याभिचार के साथ इस फैसले को जोड़ना गलत
कई लोग इस मामले को आईपीसी की धारा 377 के तहत समलैंगिकता और व्याभिचार (धारा 497) के फैसले से जोड़कर देख रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट ने सितम्बर 2018 के फैसले से समलैंगिकता को अनापराधिक बना दिया था. उस मामले में भी अदालत के अधिकार क्षेत्र पर विवाद हुआ था. लेकिन अदालत ने यह दलील मानी कि कानून से एलजीबीटी समुदाय के संवैधानिक अधिकारों का हनन होता है. क्योंकि संसद इसपर निर्णय नहीं ले रही, इसलिए अंग्रेजों के समय के कानून को रद्द करने के लिए न्यायिक आदेश पारित करना जरूरी है. लेकिन वैवाहिक दुष्कर्म को अपराध घोषित करना पीआईएल के तहत न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र से बाहर है. अपराध के दायरे से बाहर आना किसी भी व्यक्ति का अधिकार हो सकता है. लेकिन बेवजह किसी को अपराधी ठहराना, किसी का कानूनी हक़ नहीं हो सकता.
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रमन्ना ने कुछ दिन पहले कहा था कि संविधान के सभी अंगों को अपनी लक्ष्मण रेखा का जिम्मेदारी से पालन करना चाहिए. व्यक्तिगत धारणाओं और अभिरुचियों से निर्धारित होने की बजाए ऐसे मामलों पर संविधान के दायरे में फैसले लिया जाये तो न्यायपालिका की गरिमा और सम्मान दोनों बढ़ेगें.
भारत में शादी की उम्र और शारीरिक सम्बन्धों पर कानूनी दुविधा
याचिकाकर्त्ताओं ने संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी 2019 के आंकड़ों का हवाला दिया गया. उसके अनुसार 150 देशों में वैवाहिक दुष्कर्म अपराध की श्रेणी में हैं. वहीं भारत, चीन, पाकिस्तान, बांग्लादेश, सिंगापुर, अल्जीरिया समेत दुनिया के 32 देशों में इसे अपराध नहीं माना जाता. रिपोर्ट के अनुसार 5 में 1 महिला शारिरिक प्रताड़ना का शिकार होती है. यूरोप के आस्ट्रिया में तो पीड़ित महिलाओं का मुकद्मा सरकार लड़ती है. भारत में इस मामले में एक बहुत बड़ी कानूनी दुविधा है. आईपीसी की धारा-375 के संदर्भ में पत्नी की उम्र को 15 वर्ष तक माना गया है, जबकि देश में शादी की न्यूनतम उम्र 18 वर्ष है. केन्द्र सरकार इसे बढ़ाकर 21 साल करने पर विचार कर रही है. देश के अनेक गरीब और पिछड़े इलाकों में अभी भी बाल विवाह का प्रचलन है. इस तरीके के शादी-ब्याह के सिविल मामलों में कानून और जेल की सजा का प्रावधान होने पर मुकद्मेबाजी बढ़ेगी, जो परिवार, समाज और देश सभी के लिए खतरनाक हो सकती है.
पीड़ित महिलाओं के पास अन्य कानूनी विकल्प
पत्नी के साथ बलात्कार करने वाले किसी भी पति को वहशी मानते हुए उसका तिरस्कार होना चाहिए. इस प्रकार की शारीरिक हिंसा और उत्पीड़न करने वाले पति से निपटने के लिए डोमेस्टिक वायलेंस एक्ट के तहत महिलाओं को अनेक प्रकार की कानूनी सुरक्षा मिली है. बलात्कार करने वाले पति के साथ कोई भी महिला रहने से मना करके कानून के तहत तलाक के साथ गुजारा भत्ता भी हासिल कर सकती है. याचिकाकर्त्ताओं की मांग को यदि मान भी लिया जाये तो क़ानून में बदलाव के बाद आरोपी पति को सजा दिलाना मुश्किल होगा. बेडरुम में घटित ऐसे मामलों में पत्नी के अलावा सबूत और प्रमाण कैसे मिलेंगे? डिजिटल होती दुनिया में कोरोना के बाद पारिवारिक व्यवस्था पर अनेक संकट मड़रा रहे हैं. विवाह एक सिविल कानून है जिसमें आपराधिकता के पहलु को शामिल करने से झूठे मामलों की बाढ़ आ सकती है. सरकार और सुप्रीम कोर्ट ने दहेज और अन्य महिला कानूनों के दुरुपयोग पर कई बार चिंता जाहिर की है. वैवाहिक दुष्कर्म को आपराधिक बनाने की पहल करने से पहले सरकार और सुप्रीम कोर्ट को इसके दुरुपयोग को रोकने के लिए सुरक्षात्मक प्रावधान करना जरुरी होगा.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
विराग गुप्ताएडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट
लेखक सुप्रीम कोर्ट के वकील और संविधान तथा साइबर कानून के जानकार हैं. राष्ट्रीय समाचार पत्र और पत्रिकाओं में नियमित लेखन के साथ टीवी डिबेट्स का भी नियमित हिस्सा रहते हैं. कानून, साहित्य, इतिहास और बच्चों से संबंधित इनकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं. पिछले 6 वर्ष से लगातार विधि लेखन हेतु सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस द्वारा संविधान दिवस पर सम्मानित हो चुके हैं. ट्विटर- @viraggupta.