धन हे छत्तीसगढ़, तोर महिमा अपरम्पार हे. नइ पावय कोनो तोर ओर-छोर. तभे तो भगत मन गाथे- तोर महिमा कतेक बखानव ओ मोर छत्तीसगढ़ मइया. तोर कोरा (गोदी) म लाखो मनखे पलत हे, जीयत खात हे. कहां कहां के मनखे नइहे इहां, तीरथ धाम बनगे हे छत्तीसगढ़ अउ जघा तो अइसे हे जिहां देवी-देवता, महात्मा, मंदिर मन के दरसन करथे अउ अपन-अपन जघा घर दुआर मं लहुट जथे फेर छत्तीसगढ़ अइसे वरदानी भुइयां हे, सती अनुसुइया जइसन तपस्वी भुंइया हे जेकर परताप मं ब्रम्हा, बिसनु अउ महेश जइसन देवता ओकर वश हो जथे. अइसन मोहिनी मइया हे. बिन मांगे सबो कुछ मिल जथे. पता नहीं मांगही तब मोरध्वज दानी राजा कस का नइ लुटा दिही. ...
एक ठन बात बतावत हौं, कलेचुप होके सुनिहौ, जादा हांसिहौ झन, नइते फेर तुंहर बत्तीसों दांत बग-बग ले बाहिर दिखे लग जही. ओला देख के सब कइही, कइसे एमन दांत निपोरत हे बिनसुल के मन? ओमन का जानही ये दंतनिपोरी के किस्सा ला? हांसी अइसन नइ होवय, इकरो कई परकार होथे....
देस अउ परदेस म आज राजा बने खातिर उथल पुथल माते हे.उहिच बात ला सोचत बिचारत खटिया म परे रेहेंव. कतका बेर नींद लगिस ,नइ जानव. फेर ओकर बाद का होथे, सुते - सुते एक ठन अलकरहा सपना देख परथव. सत्ता सुंदरी संग मोर स्वयंबर होगे हे. उडऩ खटोला मं उड़के एक दिन हनीमून मनाय बर मनाली जाथौं. दूनो जोड़ी जांवर हांसत, गोठियावत अउ खिलखिलावत हन. ...
गांवो में लगभग सभी पारम्परिक खेलो के अलावा अखाड़ा ,खुदवा, कबड्डी और खो खो तक विलुप्तप्राय होते जा रहे है .ये सब अब 'शो पीस' की तरह टीवी पर देखे जा सकते है.इन खेलों के अभाव में बच्चे नया कुछ सीख समझ नही पा रहे है वे स्कूल जाने के पहले ओर बाद में घर जा कर बस्ता पटक देते थे और निकल जाते थे खेलो के मैदान में. वहाँ गिल्ली, डंडा पचरंगा ,छुवल भौरा ,बाटी ,सुर ,अंधियारी-अंजोरी और खुदवा जैसे न जाने कितने प्रकार के खेल खेला करते थे .इन खेलों के अभाव में बच्चे अब टीवी, मोबाइल और इंटरनेट की ओर आकर्षित हो रहे है. इसी संदर्भ में प्रस्तुत है यह छत्तीसगढ़ी आलेख गिल्ली डंडा ,गेड़ी अउ भौरा. ...
छत्तीसगढ़ मं जउन मन आगे, बसगे, रहिके खपत हें, पचत हे, तउन सबो झन केहे लगे हें- मैं छत्तीसगढिय़ां हौं. झोरफा के झोरफा, दर-दर ले बरतिया मन असन, बतरकिरी मन असन झपाय परत हें. अइसन काबर होवत हे? सब छत्तीसगढिय़ा मॉडल के कमाल हे ते कोनो अउ दूसर कारन हे? कारन ला जाने अउ समझे ले परही, बिन जाने, बिन समझे कोन अपन मुंह ला ओखली में दिही!...
कुम्हारिन फेरी मारत गली कोती ले गुजरत रिहिस हे. कतको झन ओला हुद करावत रिहिन फेर ओहर सुनत नइ रिहिसे धन का ते फेरी मारत आगू कोती बढ़त जात रिहिस हे. पोरा, चुकिया, जाता, बइला ले लौ ओ. कोनो कहिथे- भइरी हे का ओ कुम्हारिन हा, सुनत नइहे, अतेक हुद करावत हन तभो ले. तब कोनो ओला कहिथे- अ ओ कुम्हारिन, तैं नइ सुनत हस का, ओदे दीदी हा बलावत हे तभो ले तैं सुनबे नइ करत हस? भइरी होगे हस का? ...
घपटे अंधियारी रात मं अगास मं चंदा दीखत हे न चंदइनी, गली-खोर-रस्दा घलो नइ दीखत हे, अंधरा कस होगे हे आंखी कोन मेर जांव,कहां जांव, कइसे जांव? न हाथ मं लाठी, न पांव में पनही, अउ न चप्पल, उखरा खड़े हौं. ककरो कांही सहारा नइ हे, काला गोहराऔं, कोन ला हुत करा के बलावौं. ...
कैंची का गुण है, स्वभाव है... काटना, दो फाड़ कर देना, निर्दयतापूर्वक हत्या कर देना. भला-बुरा नहीं सोचती, इसका परिणाम क्या होगा? जो कर्तव्य था, वह कर दिया. लगभग विक्षिप्त व्यक्ति ही ऐसा ही कर बैठता है, कुछ का कुछ बोल जाता है और कुछ लोग सोची-समझी योजना के तहत बड़बोलेपन व अक्खड़ स्वभाव के कारण उनके मुख से ऐसी अनर्गल बातें निकल जाती है, यह जानते हुए भी कि इनका परिणाम ठीक नहीं निकलेगा, मलाल नहीं करते. ...
जइसन कभू कोनो सोचे नइ रिहिस हे तइसन होगे, धीरे-धीरे होवत हे अउ कहूं तो निरमामूल होगे. काला का कहिबे, कोन ला का दोस देबे? जउन होनी हे तउन तो होके रहिथे ओहर ककरो रोके नइ रुकय? आंसू आथे, जइसन कभू देखे नइ रहिबे तइसन हो जथे तब. हाथ हा चपकागे पथरा तरी. न निकालत बनत हे अउ न यती-ओती अटास के निकालत बनत हे. बस वइसने समे ह अपने काम ला करत जात हे, चुपचाप देखत रहिबे उही मं भलई हे. जादा ऐती-तेती इगिड़-तिगिड़ करबे तब भोसाय के सिवाय कांही हासिल नइ आना हे....
हकन के एसो गरमी करिस, सबके जीव अकुलागे रिहिस हे, कइसे करके परान बचइन तेला उही मन जानही बपुरा गरीब मन. पइसा-कउड़ी अउ पूंजी-पसरा वाले मन घर तो एसी-कूलर अउ पंखा चलत रिहिन हे, ओमन तो राजा सही लात-तान के सुतत, उठत, बइठत रिहिन हे. मरना होथे गरीब मन के. न घर में चैन, न बाहिर मं. न उघरा राहत बनय, न पहिनत बनय. ...
चिरई-चिरगुन, मनखे के सुख-दुख के संगवारी होथे. जउन समय बरम्हा हर ये पिरिथिवी ल सिरजिस होही तउन समय ओहर नदी, नरवा, पहाड़, ताल, तलैया, पेड़, जंगल, मनखे अउ नाना परकार के जीव जंतु के रचना करिस होही. ये जतका जिनिस के ओहर रचना करे हे ओखर सीधा संबंध मनखे ले हे. ...
बाप रे बाप, यहा का गरमी हे दद्दा, ये घाम ल तो देख के मनखे के चारों कोना चित्त हो जाथे. न घर घुसरे मं चैन मिलथे न तरिया बूड़े मं, जौन डहार देखो तौन डहार घामेच घाम. छोटे-बड़े लइका-सियान सब घाम के मारे करला गेहे, मुरझाय असन येकर मनके चेहरा होगे. सुनथस दुकालू ये साल असन घाम तो मोर सुरता मं घला कभू नइ परे हे तइसे लागथे. ...
ओ दिन हमर परोसिन के दू झन लइका कोन डहर किंजरे ले का निकलगे, गंवागे-गंवागे कइके पारा भर गोहार मचगे. ओकर दाई-ददा,कका-काकी, बड़ा-बूढ़ी दाई सबो झन खोजे बर निकलगे. पारा परोस के मन मनखे के भीड़ ल ओकर घर करा सकलाय देखिन तब का होगे,का होगे, पूछत-पूछत घर म पेल दिन....
कामचोर गदहा के सपेड़ा मं खोजत-खोजत शेर सपड़ मं आगे. धोबी के गारी गुफ्तार ल सुनके ओहर अकबकागे. सोचथे, मोरो ले बड़े गदहा होवत होही? डर्राके सपटगे एक तीर मं, फेर धोबी के नजर ओकर ऊपर परगे. दू-तीन सटका लगाइस अउ गेरवा मं बांध के कोठा मं ओइला दीस. गुस्सा के मारे ओला खाना-पीना घला नइ दीस. ...
बस्तर के आदिवासी अपने पुरखों, उनके द्वारा लगाए गए पेड़ों और परम्पराओं को भगवान से कम नहीं समझते. प्रतिवर्ष उनकी स्मृति को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए उत्सव यानि तिहार का आयोजन करते हैं. अक्षय तृतीया के दिन उसका समापन होता है. इस तिहार को गोंडी भाषा में 'मरका पंडूम अर्थात 'आमा तिहार कहा जाता है. विधि विधानपूर्वक इस तिहार को मनाते हैं इसी संदर्भ में छत्तीसगढ़ी में पेश है यह आलेख....
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