मनमोहन सेजू/बाड़मेर. कहते हैं कि कब्रिस्तान वह जगह होती है जहां चाहकर भी कोई जाना नहीं चाहता. लोग इसका नाम सुनकर ही खौफजदा हो जाते हैं. लेकिन ऐसे में हम आपको कहें कि साल 1980 से एक शख्स कब्रिस्तान को ही अपना घर बना बैठा तो ये आपको हैरानी भरा लगेगा. मगर ये हकीकत है. ये कहानी है भारत-पाकिस्तान बॉर्डर पर बसे बाड़मेर जिले के कासम शाह की. कासम शाह पिछले 42 साल से अधिक समय से बाड़मेर जिले के सबसे बड़े कब्रिस्तान में लगे हैं.
कब्रिस्तान, श्मशान या मौत से जुड़ी कोई भी जगह किसी भी आम इंसान के लिए भयावह होती है. वहां से गुज़रने से भी लोग कतराते हैं. लेकिन कासम ने कब्रिस्तान में रहना अपना पेशा बना लिया है. कासम कब्रों के बीच एक छोटे से कमरे में रहते हैं. उन्होंने पिछले 42 वर्षों में कई शवों का अंतिम संस्कार किया है.
कासम को 6 बार हार्ट अटैक भी आए लेकिन वह फिर भी अपनी ड्यूटी को बखूबी करते नजर आते हैं. बाड़मेर में अपने सफर के दौरान कई मर्तबा तो वह दर्जनों दिनों तक कब्रिस्तान से बाहर भी नहीं आते हैं. हर एक कब्र की साफ सफाई के साथ-साथ पौधों को पानी देने के साथ-साथ कब्रिस्तान में बनी मस्जिद के खास ख़ातिमदार का दर्जा भी इन्हीं को मिला हुआ है.
कासम शाह बताते हैं कि नया सफर शुरू होता है तो कई कांटे रास्ते में आते हैं. वो कहते हैं कि खुद ही को कर इतना बुलन्द कि तकदीर से पहले के खुदा खुद पूछे कि बंदे तेरी रजा क्या है. श्मशान में देखरेख करना, चादर पेश करना, पेड़-पौधों को पानी देना, लावारिश मृत शरीर को दफनाना वगैरह काम रहता है.
कासम की जिंदगी में कब्रिस्तान उनके वालिद ने लिखा. कासम शाह के वालिद पहले कब्रिस्तान के ख़ादिम हुआ करते थे. 1965 में उनके देहांत के बाद कासम शाह को इस जगह की जिम्मेदारी मिली. साल 1980 से कासम इस कब्रिस्तान में खादिम का काम करते हैं.
बाड़मेर शहर के सबसे बड़े कब्रिस्तान में कासम शाह ने 14 साल रात-दिन अकेले गुजारे हैं. 75 वर्षीय कासम शाह का कहना है कि 1980 के समय यहां महज बबूल की झाड़ियां हुआ करती थीं. लेकिन समय के साथ बदलाव की बयार लिखते-लिखते अब यहां करीब 2 हजार औषधीय पौधें लहलहा रहे हैं. वह बताते हैं कि इस कब्रिस्तान में आने के बाद लगता है कि असल घर में अब आया हूं, जहां रह रहा हूं वह तो एक मुसाफिर खाना है. कासम शाह का 1965 से कब्रिस्तान में आने का सफर शुरू हुआ जो आज भी कायम है.
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