जंगल के जीव काहें शहर में आवत बाने सब.
ल इहे, आज राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के ग्रेटर नोएडा में भी तेंदुआ जी लउका गइलन. न मालुम केतना सहरी हीरो लोगन त अब लम्मे से बड़हन कुकुरो देख के सनपात जइहे कि हे भगवान, कहीं उहे न आवत हो. एक समय रहल कि चिड़ियाघर तक में बड़का बिलारन के लउकल दुसवार हो गइल रहल आ अब हर सहरवे में लउकात हवें. कहीं अस न हो कि सहर-सहर होत गली-गली ले पहुँच जा. फिलहाल बिसरख कोतवाली पुलिस आ बन बिभाग के टीम सर्च आपरेसन सुरू क देहले ह. लेकिन ध्यान देहल जरूरी हो गइल हौ कि तेंदुआ अब देस के उत्तरी हिस्सा के लगभग हर सहर के आसपास लउकात हवें.
ग्वालियर आ कानपुर में भी
कूनो नेशनल पार्क में चीता के अइला पर मचल हल्ला थमल ना रहल कि कूनो के बगलिए में ग्वालियर के रिहायशी इलाका में तेंदुआ उपरइले से लोगन के नया सनपात घेर लिहल. ग्वालियर के मोहल्ला हौ सिकंदर कंपू. उहाँ कुशवाहा मार्केट के पीछे लोगन के रहवास बा. गनीमत रहल ओह समय केहू घर से बाहर ना निकरल, नाहीं त अलगे हल्ला मच जात. लेकिन पूरी घटना सीसीटीवी कैमरा में रेकार्ड हो गएल. एकरे पहिले अपने उत्तर प्रदेश के मेरठ के टीपी नगर क्षेत्र में एही महिन्ना में तेंदुआ आ चुकल हौ. ओकरे थोड़हे दिन के पहिले कानपुर में आईआईटी परिसर में तेंदुआ घुस गइल रहल. जइसन कि हमहन भारतीयन के आदत हौ, अगर जमराजो आगे पड़ जाएं त दू घरी डेरइला के बाद ओनहू के मजाक उड़ाए लगीं, ओही के तहत लइके थोरे दिन डेरइला के बाद तेंदुआ महराज के आईआईटी में धमक क मजाक उड़ाए लगलन.
लइकन के कहन रहल कि तेंदुआ जी जेईई के एडवांस किलियर ना क पौले होइहें. एसे बेर बेर ओके किलियर करे वालन के आ उहाँ के वेबस्था के उनकर औकात बतावे आवत हवें कि देखा लोगन; तुहन लोग बड़का टापर हवा आ हम लफंगा. बकिर डेरात तुहने लोगन हवा, हम नाईं. जबकि हम केहू के कटतो ना हईं. इहाँ तक कि कुछ कहतो ना हईं. कानपुर में तेंदुआ जी आईआईटी से ले के सर्करा संस्थान ले घुम्मत रहलन.
आम तौर पर जानवर केहू के कुछ ना कहेलन और न करेलन. तबले जबले कि उन्हें छेड़ल न जा. ई कौनो पहिली घटना ना हौ जब शहर में तेंदुआ आ गैल हौ. एकरे पहिले लखनऊ में कई बेर देखा भइल हौ. ऐसहीं गुजरात के जूनागढ़ में पिछले साल एगो होटल में बबर शेर घुस गइल रहे. मध्य प्रदेश के गँवई इलाकन में अकसर बाघ-तेंदुआ सब जंगल से निकर के एहर-ओहर जाइल करेलन. दू-चार गो भेड़-बकरी खा के फेर जंगल में घुस जालन. उहाँ खातिर ई कौनो नई बात ना बा. अबहिन कानपुर वाला भी एगो जंगली सुअर मरलस आ खा गइल. एकर तसदीक सुअर के कंकाल मिलला से भइल. जंगली जानवर के त कौनो बात ना, बकिर जौन किसानन के जानवर मार दिहल जालन ऊ निह्चित रूप से कष्ट के कारण हौ.
गनीमत ई बा कि एहमन कौनो आदमखोर ना भइलन सब. लखनऊ, कानपुर, जूनागढ़ ई सब जौन अइलन, सामान्य व्यवहार वाले बड़का बिलार हवन. चाहे ऊ बबर शेर हो, तेंदुआ हो या फिर बाघ. एही में चीतो लोग आ गइल हवन. अब एहू लोगन के आपन भोज-भात चाही. एह प्रजाति के लगभग कुल्ही जानवर स्वभाव से आलसी होलन. कम या ज्यादा, लेकिन आलस पावल सबमें जाले. जब तक इनकर पेट भरल रहे तब तक ई एक जगह आराम से पसरल पड़ल रहल बेहतर समझेलन. गलती से भी ई केहू ओर तब तक आँख उठा के ना देखेलन जब तक कि भूख न लगे. नरभक्षी त तब तक होबे ना करेलन जब तक ई जानवर के सिकार करे लायक रहेलन. लेकिन एक बार नरभक्षी हो गइला के बाद ई बेहद खतरनाक हो जालन.
बहरहाल, नरभक्षी जानवरन के बात बाद में होई. जौन नरभक्षी ना भइल हौवन, ऊ होखे न पावे, एकर जिम्मेदारी केकर बा, इहो त तय करे के पड़ी न! धरती पर जीव आ बनस्पति क जौन भी प्रजाति पावल जाली, सबकर बनल रहल बहुत जरूरी बा. ई खाली एह नाते ना कि इहो हमने जइसन प्रकृति के रचना हवन, एहू बदे कि प्रकृति जौन कुछ भी कइले हौ, अनायास ना कइले हौ. हमन के देखले में भले लगे कि ई सब अंसोहाते होत चल गइल हौ, बकिर अगर ठहर के बिचार करीं त पता चली कि एकरे मूल में प्रकृति के बहुत सुबिचारित जोजना हौ. एह जोजना में कौनो भी जंतु या बनस्पति फालतू ना हौ. आज जौने के हमहन पारिस्थितिक संतुलन कहत हईं, ई प्रकृति एही तरह से बनौले हौ.
बाघ तेंदुआ के सुरक्षा के सवाल
एहनाते सबके संरक्षित कइल खाली जरूरी ना, अनिवार्य हौ. 1947 में जब देश आजाद भइल भारत में कुल मिलाके करीब 40 हजार बाघ रहलन. बकिर 1973 में ई आबादी घटि के कुल खाली 268 रहि गइल. एही नाते ओह समय सरकार के कानून बनवे के पड़ल. पहिले 1972 में वन्य जीव संरक्षण अधिनियम बनल आ फिर ओही के अधीन 1973 में प्रोजेक्ट टाइगर सुरू कइल गइल. एह प्रोजेक्ट के सुरू कइले के परिणाम ई भइल कि 2018 में बाघन के आबादी बढ़ के 2967 हो गइल. उम्मीद कइल जात हौ कि एह साल ई आबादी दूना हो जाई. वैश्विक आँकड़ा के अनुसार दुनिया के 80 प्रतिशत बाघ भारत में पावल जालन.
बड़का बिलारन के जौन और परजाति हवे, ओहू सबके लगभग इहे हाल बा. चीता के परजाति त बिलकुले ओराइए गइल रहल. एही नाते ओके एहसाल बाहर से मँगावल गइल. अब उहो अपने देस में हो गइल. निहचित रूप से ई बहुत खुसी के बात हौ. बकिर एह सच के एक पहलू इहो हवे कि जइसे जइसे बड़का बिलारन के संख्या बढ़त जात हौ, उनहन के चलते आसपास के मनइन के लिए समस्या भी बढ़ल जात हौ. एकर एक कारण आज के मनई के जानवरन के प्रकृति और प्रवृत्ति से अनजान भइल भी बा. दुनिया में कहीं के भी आदमी के सूचना आ ज्ञान भले किताब से मिल जा, लेकिन ओकर ब्यवहार ओकरे परंपरा से तय होला. काहे से कि परंपरा ही आदमी के अंदर संस्कार डालेले.
रोके के उपाई
दुर्भाग्य से सहर त सहर, पिछले दू-तीन पीढ़ी से कई जगह गाँव के लोग भी जंगली जानवर से ब्यवहार के तौर-तरीका भुला गइल बा. जहाँ एक्को गो बाघ या कौनहू बड़का बिलार बचल रहलन, उहाँ के लोग त अबहिनो ठीक ब्यवहार क लेत बा, लेकिन जहाँ बिलकुल नए सिरे से बड़का बिलार लावल गइलन हवन, उहाँ के लोगन के लिए ई समस्या हो गइल हवन. खासकर ओह समय जबकि ई जंगल के दायरा से बाहर आ जालन. जंगल के दायरा में ई लोग के प्राकृतिक रहवास दिहल गइल हौ. उहाँ इनके बाँध के ना रखल जा सकत. दूसर बात जानवर मनई जइसन आपन-आन और धन-संपत्ति के बवाल से बहुत दूर हवन. उनके जंगल और गाँव के सीमा ना समझावल जा सकेला. त जानवरन के जंगल से बाहर निकल के खेतन में आ खेतन से होत गाँव या कौनो सहर तक पहुँचल कौनो अचरज वाली बात ना बा.
अगर केहू ई कहे कि जंगलन के बाड़बंदी क के जानवरन के बाहर अइला से रोकल जा सकेले त ई निहायत अव्यावहारिक बात होई. खाली एह नाते ना इ बड़हन आर्थिक बोझ के कारण बनी, एहू नाते कि एकरे अपने उद्देस्य में सफल भइले में भी संदेह बा. ज्याद जरूरत एह बात के बा कि जेतना जोर बड़का बिलारन के संरक्षण पर दिहल जात बा, ओतने ध्यान साकाहारी जानवरन के आबादी आ जंगल में घास-फूस के बढ़वला पर भी दिहल जा. काहे से कि आम तौर पर बड़का बिलारन के बाहर निकरला के जरूरत तबे होले जब उनके जंगल में सिकार ना मिलेले. सिकार के कमी तबे होले जब उनके भोजन बने लायक जानवरन के कमी पड़ेले. जंगल में साकाहारी जानवरन के कमी के दू कारन होले. एक त तब जब उहाँ घास-फूस कम होले आ दूसर तब उनकर सिकार मनई करे लगेलन.
अब स्थिति ई बा कि सिकार के खिलाफ कानून त बनि गइल हवें, लेकिन ओह कानूनन के पालन केतना होत बा, एह पर कुछ कहले के जरूरत नइखे. जंगलन में घास-फूस और पानी के उपलब्धता के स्थिति भी बहुत बढ़िया ना बा. खासकर गरमी के दिन में अधिकतर जगह जानवरन के पानी के लिए जंगल से बाहर आवे के पड़ेले. घास के उपलब्धता भी बहुत कम हो जाले. इहे पानी ऊ कारण होला जौने के नाते बाघन के भी कई बार सिकार उपलब्ध रहले पर भी जंगल से बाहर आवे के पड़ेले. अगर विसेसज्ञ लोग आ सरकारी तंत्र एह दू गो बुनियादी बात पर ठीक से ध्यान दे दे त एह समस्या से बहुत हद तक निजात पावल जा सकेले.
(डिसक्लेमर – ये लेखक के निजी विचार हैं.)
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