कुढ़नी उपचुनाव में महागठबंधन के मनोज कुशवाहा और भाजपा के केदार गुप्ता के बीच मुख्य मुकाबला.
मुजफ्फरपुर/पटना. कुढ़नी विधान सभा उपचुनाव के लिए मतदान समाप्त होते ही चुनाव लड़ रही पार्टियों की तरफ से जीत हार के दावे भी शुरू हो गए हैं. इसके साथ ही कुढ़नी चुनाव ने कई ऐसे संकेत दिए हैं जो आने वाले समय में बिहार की सियासत पर असर डाल सकता है. दरअसल, माना जा रहा है कि लोकसभा चुनाव के पहले ये आखिरी चुनाव है जिसमें बिहार की तमाम राजनीतिक पार्टियों को अपने वोट बैंक के आकलन का मौका मिला है जिसकी तस्वीर कुढ़नी उपचुनाव परिणाम में दिख सकती है.
महागठबंधन के लिए क्या हैं मायने?- महागठबंधन ने जदयू की तरफ से मनोज कुशवाहा को अपना उम्मीदवार बनाया था जिन्हें लेकर कुढ़नी में उनके व्यवहार की वजह से मतदाताओं को मनाने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा. यह सिलसिला पूरे चुनाव तक चला और पूरे चुनाव मनोज कुशवाहा मतदाताओं से माफी मांगते दिखे. मनोज कुशवाहा के प्रति नाराजगी के बीच महागठबंधन ने संयुक्त रूप से चुनाव प्रचार की शुरुआत की और सबसे पहले अपने कोर वोटर ‘MY’ यामी मुस्लिम यादव और लव कुश यानी कुर्मी-कोयरी वोटर को एकजुट करने की कोशिश की. चुनाव में इसका असर भी काफी हद तक दिखा भी, लेकिन ये समीकरण इतना मजबूत नहीं था कि सिर्फ इसकी बदौलत जीत मिल जाए.
महागठबंधन ने बीजेपी के कोर वोटर यानी सवर्ण में भूमिहार और राजपूत को तोड़ने की पूरी कोशिश की और इस जाति के बड़े नेताओं को कैंप भी कराया. इसका कुछ हद तक फायदा भी मिला, लेकिन उतना नहीं जितनी उम्मीद थी. भूमिहार वोट जो कुढ़नी में निर्णायक माना जाता है, जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह ने उन्हें अपनी पार्टी के पाले में करने में पूरी ताकत झोंक दी. इसका असर ये हुआ कि बहुत तो नहीं, लेकिन भूमिहार वोट को जदयू में लाने में कुछ हद तक सफल दिखे.
महागठबंधन को शराबबंदी की वजह से दलित वोटरों का अच्छा खासा नुकसान हुआ. सहनी वोटरों की नाराजगी भी दिखी क्योंकि राजद ने सहनी उम्मीदवार का टिकट काट जदयू को ये सीट दे दी थी. वहीं अतिपिछड़े मतदाताओं में भी बीजेपी और जदयू में बंटवारा साफ-साफ दिखा. वहीं असदुद्दीन ओवैसी की AIMIM ने भी कुछ मुस्लिम वोट काटे, लेकिन उतन नहीं जितना गोपालगंज में झटका लगा था. जाहिर है इसका फायदा जदयू को मिल सकता है.
महागठबंधन के सामने कहां खड़ी है अकेली बीजेपी?
बीजेपी ने कुढ़नी में वैश्य समाज से आने वाले केदार गुप्ता मैदान में उतारा था जिन्होंने अपने व्यवहार से लोगों के बीच अच्छी पैठ बना रखी है. इसका फायदा उन्हें पूरे चुनाव में मिलता भी दिखा है. वहीं बीजेपी के समर्थन में सवर्ण वोटरों का बड़ा समूह जाता दिखा और वैश्य वोटर पूरी तरह एकजुट दिखा. लेकिन, बीजेपी को फायदा मिला दलित वोटरों का जिन्होंने शराबबंदी की वजह से नाराज होकर बीजेपी के समर्थन में ठीक ठाक वोट किया है.
अति पिछड़े वोटरों में भी बीजेपी ने सेंध लगाई है, लेकिन ऐसा माना जा रहा है कि बीजेपी को सहनी मतदाताओं ने उतनी संख्या में वोट नहीं किया है जितनी की उम्मीद थी. मुकेश सहनी की पार्टी VIP ने सहनी वोटों का ठीक ठाक संख्या में नुकसान किया है. वहीं भूमिहार वोटों में भी कुछ नुकसान हुआ जो वीआईपी और जदयू में ठीक ठाक जाता दिखा, जो बीजेपी के लिए नुकसान वाली बात हो सकती है.
मुकेश सहनी फैक्टर का कितना असर?
मुकेश सहनी की पार्टी वीआईपी ने नीलाभ कुमार को अपना उम्मीदवार बनाया और इस पार्टी की पूरी नजर भूमिहार और सहनी वोटरों पर थी. उम्मीद थी की इन दोनों ही वोट बैंक में वीआईपी बड़ी सेंध लगाएगी. वीआईपी ने सेंध भी लगाई, लेकिन उतनी नहीं जितनी के दावे किए जा रहे थे. दरअसल, दोनों मिलाकर लगभग सत्तर से अस्सी हजार वोट हैं, जिनमें लगभग 20 प्रतिशत के आसपास वोट काट सकती है, जो किसी का भी खेल बिगाड़ने में निर्णायक हो सकता है.
क्या वोटकटवा साबित होगी ओवैसी की पार्टी?
AIMIM ने स्थानीय गुलाम मुर्तजा अंसारी को मैदान में उतारा था जो अंसारी बिरादरी से आते हैं. MIM को उम्मीद थी की गोपालगंज वाला खेल कुढ़नी में भी करेंगे, लेकिन वो सफल होती नहीं दिखी. मुस्लिम वोटर बड़ी संख्या में महागठबंधन में जाते दिखे. MIM के उम्मीदवार ने अंसारी वोट काटा और कुछ जगहों पर अन्य मुस्लिम वर्गों के भी वोट मिले. लेकिन, वो उतने नहीं हैं जो महागठबंधन को नुकसान पहुंचा सके. यहां यह भी बता दें कि मुस्लिम वोटों में बिखराव न हो इसको लेकर महागठबंधन के मुस्लिम नेताओं ने काफी मेहनत भी की थी. हालांकि, यह भी हकीकत है कि कुढ़नी में मुकाबला बेहद कड़ा है और ऐसे में कुछ हजार वोटों का नुकसान भी महागठबंधन की उम्मीदों को झटका लगा सकता है.
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