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Opinion: कृषि कानून खात्मा- पीएम मोदी ने बड़ा दिल दिखाया, अब इस पर राजनीति गैरजरूरी

आंदोलनकारी किसान संगठन मांग मनवा कर ख़ुद को मज़बूत नहीं, बल्कि किसी भी तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कमज़ोर करना चाह ...अधिक पढ़ें

जो लोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर तीनों कृषि विपणन क़ानूनों को वापस लिए जाने को लोकतंत्र की जीत करार दे रहे हैं, क्या वे अब भी दिल्ली की सीमाओं को बंधक बनाने रखने के हिमायती हैं? अगर हां, तो क्या यह पहले दिन से ही लोकतंत्र को बंधक बनाए रखना नहीं है? लोकतंत्र में विरोध, असहमति और इनकार का स्पष्ट अधिकार है, लेकिन एक सीमा के बाद ये सभी अधिकार लोकतांत्रिक दायरे का असंवैधानिक आपराधिक अतिक्रमण ही हो जाते हैं. कोई कितनी भी भीड़ जुटा लें, अगर वह भीड़ संविधान विरुद्ध आचरण करती है, तो उसे किसी भी स्तर पर जायज़ नहीं ठहराया जा सकता.

देश की सर्वोच्च अदालत भी किसानों के आंदोलन की वजह से लाखों लोगों को रोज़ाना हो रही परेशानी पर चिंता जता चुकी है. एनसीआर से रोज़ाना लाखों लोग दिल्ली में नौकरी करने जाते हैं. उन्हें 10-15 किलोमीटर का अतिरिक्त सफ़र करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है. किसान आंदोलन की वजह से रोज़ाना का सफ़र महंगा हो गया है. पेट्रोल-डीज़ल की क़ीमतों ने उन पर दोहरी मार मारी है. सीमाओं पर क़रीब एक साल से छोटे दुकानदारों का कारोबार ठप्प पड़ा है. सीमाई इलाक़ों में रहने वालों को दूसरी और बहुत सी परेशानियों से दो-चार होना पड़ रहा है.

दिल्ली की सीमाओं पर किसानों के जमावड़े की वजह से रोज़ाना हज़ारों करोड़ रुपये का व्यापारिक नुकसान हो रहा है, इसे भी बहुत समय तक नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता. हम यहां किसानों की मांग जायज़ या नाजायज़ होने का विवेचना नहीं करना चाहते, क्योंकि सरकार ने अब तीनों कृषि विपणन क़ानून वापस ले लिए हैं. मुख्य मांग माने जाने पर भी किसान नेता धरने पर अड़े हैं, तो फिर इसकी विस्तृत विवेचना करनी पड़ेगी. यह तो तय है कि मांग माने से पहले जो जन-समर्थन अनमने मन से ही सही, किसान आंदोलन को मिल रहा था, उसमें अब मांग माने के जाने के बाद अड़ियल रवैये के कारण बहुत हद तक कमी आ चुकी है.

रोज़मर्रा रोज़ी-रोटी की तलाश में लगा आम आदमी भी अब नुक्कड़ वाली पान-चाय-पकौड़ी की दुकानों और ठेलों पर यह चर्चा करने लगा है कि किसान नेताओं का मक़सद तीनों कृषि क़ानूनों की वापसी से कहीं ज़्यादा है.

आंदोलनकारी किसान संगठन मांग मनवा कर ख़ुद को मज़बूत नहीं, बल्कि किसी भी तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कमज़ोर करना चाहते हैं. यही वजह है कि मुख्य मांग मान लिए जाने के बाद अब वे दूसरी कई मांगें मनवाने पर उतारू हैं. भले ही राजनैतिक चोले ओढ़े कुछ किसान संगठनों को लगता हो कि वे आगामी विधानसभा चुनावों में बीजेपी को नुकसान पहुंचा कर मोदी का क़द घटाने में कामयाब हो जाएंगे, लेकिन राजनैतिक तौर पैनी दृष्टि से देखें, तो अगर उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, मणिपुर और गोवा में विधानसभा चुनावों तक किसान दिल्ली की सीमाएं घेरे बैठे रहेंगे, तो भारतीय जनता पार्टी को फ़ायदा ही पहुंचाएंगे.

दूसरी बात यह है कि अगर चुनावों के बाद बीजेपी की राज्य सरकारें फिर से बन गईं, तो किसान क्या करेंगे? उस सूरत में क्या किसान बीजेपी और उसके सहयोगियों को मिले जनादेश को धरना ख़त्म करने के पक्ष में दिया गया आदेश मानेंगे? तब या कभी भी दिल्ली की सीमाएं खोलने का फ़ैसला लेने से पहले किसान संगठन आम लोगों को हुई परेशानी के लिए माफ़ी मांगेंगे? लोकतांत्रिक व्यवस्था में मिले अधिकार किसी को संविधान के विरोध या उससे असहमति या उसमें वर्णित किसी प्रक्रिया को मानने से इनकार का हक़ नहीं देते. भारतीय संविधान में आस्था रखने की दुहाई देते हुए आप आतंकवाद का समर्थन नहीं कर सकते. भ्रष्टाचार का समर्थन नहीं कर सकते. अपराध का समर्थन नहीं कर सकते.

कुल मिलाकर आप किसी भी संवैधानिक लोक अधिकार का हनन नहीं कर सकते. अर्थात भीड़ की संख्या के आधार पर समाज विरोधी कृत्य करने की छूट आपको नहीं मिल सकती. यही कारण है कि चुनाव में बहुमत हासिल करने वाली पार्टियां या गठबंधन केंद्र अथवा राज्यों में सरकारें भले ही बना लें, लेकिन नागरिकों द्वारा चुने गए सांसद या विधायक या सरपंच या किसी और निकाय के सदस्य इस तर्क का इस्तेमाल कर देश या समाज के विरुद्ध कोई काम नहीं कर सकते कि उन्हें तो जनता के बहुमत का समर्थन हासिल है.

आप सत्य का विरोध, सत्य से असहमति या सत्य से इनकार नहीं कर सकते. आप किसी न्यायालय के निर्णय से असहमति जता सकते हैं, संवैधानिक दायरे में रहते हुए उसका विरोध कर सकते हैं, लेकिन उसे मानने से इनकार नहीं कर सकते. इस तरह संवैधानिक व्यवस्था का पालन हर किसी नागरिक का कर्तव्य है. कृषि भारत की आत्मा है, यह सौ फ़ीसदी सही है, लेकिन आंदोलन कर रहे चंद किसान संगठन सौ फ़ीसदी सही हैं, यह मानना सही नहीं होगा.

सही बात तो यह है कि देश में पांच सौ से ज़्यादा किसान संगठन हैं और बहुसंख्य किसान संगठन तीनों कृषि विपणन क़ानूनों के विरोध में नहीं थे. फिर भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुला दिल दिखाते हुए आंदोलनकारियों की मुख्य मांग मान ली. अब किसी अल्पमत तबके को ख़ुश करने के लिए क्या वे अपना दिल शरीर से बाहर निकाल कर रख दें?

अंत में एक तर्क और देख लें. सब कुछ सही होने के बावजूद मोदी विरोध के तर्कहीन मद में डूबे विलापवादी आंदोलनजीवी जब संविधान की रक्षा की गुहार लगाते हैं, तो हंसी और क्रोध, दोनों एक साथ आते हैं. ऐसे नकारात्मक लोगों को यही भी समझ में नहीं आता कि उनके कुछ करने से अगर किसी दूसरे नागरिक के संवैधानिक अधिकारों का हनन होता हो, तो उनके एकतरफ़ा सच के पक्ष में उनका ‘कुछ करना’ हर लिहाज़ से असंवैधानिक कृत्य है. आप अपनी जायज़ मांगों के पक्ष में भी आम आदमी का रास्ता नहीं रोक सकते. तीनों क़ानूनों की बात करें, तो वे एक दिन भी लागू नहीं किए जा सके.

कृषि क़ानूनों के किसान अनुकूल या प्रतिकूल होने की समीक्षा तो हो ही नहीं सकी. अगर लागू किए गए होते, तो तीनों क़ानून किसानों की ख़ुशहाली के रास्ते खोल भी सकते थे. उनकी आमदनी दोगुनी कर सकते थे, इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता. ऐसे में किसानों से अपील है कि वे दिल्ली की सीमाओं को ख़ाली करें. घर लौटें और संवैधानिक तरीक़े से अपनी मांग मनवाने के नज़रिये पर विश्वास करें. एमएसपी पर गारंटी की ज़िद पर अड़ने की बजाय वे मोदी सरकार की मंशा पर भरोसा रखें. विचार-विमर्श में किसान प्रतिनिधि भी शामिल होंगे, लिहाज़ा पारदर्शिता के साथ अंतिम नतीजा जल्द से जल्द सामने आ ही जाएगा. यह सही है कि आज़ादी के 75 वर्ष बाद अब किसानों की हालत में सुधार होना ही चाहिए. इसके लिए विरोध की नहीं, बल्कि सही राजनैतिक दिशा चुननी चाहिए.

(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)

Tags: BJP, BLOGS, Farmers Agitation, Farmers Bill

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