कोरोना के बाद मोटे अनाज इम्युनिटी बूस्टर के रूप में प्रतिष्ठित हुए हैं.
नई दिल्ली. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) ने एक बार फिर मोटे अनाज को बढ़ावा देने का आह्वान किया है. आज हुई भारतीय जनता पार्टी की संसदीय दल की बैठक में प्रधानमंत्री ने सभी सांसदों को मोटा अनाज (Millets) खाने की सलाह भी दी. उन्होंने कहा कि जी20 की बैठकों में मोटे अनाज के व्यंजन ही परोसे जाएंगे. इससे पहले मोदी अपने ‘मन की बात’ (Mann Ki Baat) कार्यक्रम में मिलेट्स जैसे मोटे अनाजों के प्रति लोगों में जागरुकता बढ़ाने के लिए जन-आंदोलन चलाने की बात कह चुके हैं. मोटे अनाज से स्वास्थ्य से होने वाले लाभ, कुपोषण से लड़ने में इनकी महत्ता और कम पानी और मेहनत से पैदा होने जैसे गुणों के कारण ही प्रधानमंत्री मोटे अनाज के मुरीद हैं.
प्रधानमंत्री का जोर देश में मोटे अनाजों को भोजन का मुख्य अंग बनाने पर है. मोटे अनाज को महत्व दिलाने के लिए मोदी सरकार ने वर्ष 2018 को मोटा अनाज वर्ष घोषित किया था. अब भारत के प्रस्ताव पर संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2023 को ‘अंतरराष्ट्रीय मिलेट्स वर्ष’ (International Year of Millets) के रूप में मनाने का निर्णय लिया है. कोरोना के बाद मोटे अनाज इम्युनिटी बूस्टर के रूप में प्रतिष्ठित हुए हैं. इन्हें सुपर फूड (Super Food) कहा जाने लगा है.
ये हैं मोटे अनाज में शामिल
मिलेट्स को सुपर फूड कहा जा रहा है. सुपर फूड उन खाद्य सामग्रियों को कहा जाता है जिनमें पोषक तत्व अपेक्षाकृत रूप से ज़्यादा होते हैं. मिलेट्स को भी ऐसी ही फसलों में गिना जाता है. मोटे अनाज वाली फसलों में ज्वार, बाजरा, रागी, सावां, कंगनी, चीना, कोदो, कुटकी और कुट्टू फसलें आती हैं. भारतीय मिलेट्स अनुसंधान संस्थान के अनुसार, रागी यानी फिंगर मिलेट में कैल्शियम की मात्रा अच्छी होती है. प्रति 100 ग्राम फिंगर मिलेट में 364 मिलिग्राम तक कैल्शियम होता है. रागी में आयरन की मात्रा भी गेहूं और चावल से ज्यादा होती है.
कम पानी की जरूरत
मिलेट्स क्रॉप को कम पानी की जरूरत होती है. उदाहरण के लिए गन्ने के पौधे को पकाने में 2100 मिलीमीटर पानी की ज़रूरत होती है. वहीं, बाजरा जैसी मोटे अनाज की फसल के एक पौधे को पूरे जीवनकाल में 350 मिलीमीटर पानी चाहिए होता है. रागी को 350 मिलीमीटर पानी की आवश्यकता होती है तो ज्वार को 400 मिलीमीटर पानी चाहिए होता है. जहां दूसरी फसलें पानी की कमी होने पर पूरी तरह बर्बाद हो जाती हैं, वहीं, मोटा अनाज की फसल ख़राब होने की स्थिति में भी पशुओं के चारे के काम आ सकती हैं.
कम मेहनत, कम खर्च
ये फसलें इस लिहाज़ से भी अच्छी होती हैं क्योंकि जहां धान उगाने में काफ़ी ज़्यादा मेहनत लगती है, वहीं बाजरा और ज्वार जैसी फसलें बहुत कम मेहनत में तैयार हो जाती है. इसके साथ ही मोटे अनाज वाली फसलों में रसायनिक उर्वरक और कीटनाशकों का प्रयोग भी बहुत कम होता है. इन फसलों के अवशेष पशुओं के चारे के काम आते हैं, इसलिए इनको धान की पराली की तरह जलाना पड़ता और पर्यावरण प्रदूषण नहीं फैलता है.
कुपोषण से लड़ने का बेहतरीन हथियार
कुपोषण समाप्त करने के केंद्र सरकार दशकों से करोड़ों रुपये खर्च कर रही है. कुपोषण से लड़ने में भी मिलेट्स महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं. ये प्रोटीन के साथ-साथ एनर्जी से भी भरे होते हैं. मोटे अनाज सस्ते भी हैं. मोटे अनाजों में गेहूं और चावल की तुलना में ज़्यादा एंजाइम, विटामिन और मिनरल पाए जाते हैं. इनमें सॉल्युबल और इन-सॉल्युबल फाइबर भी ज़्यादा पाया जाता है. साथ ही इनमें मैक्रो और माइक्रो पोषक तत्वों का बहुत अच्छा मिश्रण होता है. मोटे अनाज अगर एक ग़रीब आदमी खाएगा तो उसे कुपोषण से बचाव मिलेगा और एक समृद्ध व्यक्ति खाएगा तो उसे पोषक तत्व मिलेंगे.
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