डॉलर अभी 22 साल की सबसे मजबूत स्थिति में है.
नई दिल्ली. अमूमन किसी देश की करेंसी के कमजोर होने को उसकी बिखरती अर्थव्यवस्था का सबूत माना जाता है, लेकिन क्या आप जानते हैं कि कुछ देश जानबूझकर अपनी मुद्रा को कमजोर बनाते हैं. एक बारगी तो इस बात पर यकीन करना मुश्किल होता है कि जहां दुनियाभर के देश अपनी मुद्रा को मजबूत बनाने की जुगत में लगे रहते हैं, वहीं कोई देश क्यों अपनी करेंसी को कमजोर बनाएगा, लेकिन यही सवाल जब बाजार और कमोडिटी एक्सपर्ट से पूछा तो जवाब चौंकाने वाले थे.
आईआईएफएल सिक्योरिटीज के कमोडिटी रिसर्च हेड अनुज गुप्ता का कहना है कि ज्यादातर ऐसे देश अपनी करेंसी को जानबूझकर कमजोर बनाते हैं, जिन्हें निर्यात के मोर्चे पर लाभ लेना होता है. यानी अगर किसी देश की करेंसी कमजोर होती है, तो उसी अनुपात में उसका निर्यात सस्ता हो जाता है और उद्योगों के पास ज्यादा उत्पादन के मौके बनते हैं. दरअसल, ऐसा इसलिए होता है क्योंकि ज्यादातर ग्लोबल लेनदेन डॉलर में होता है और जब किसी देश की मुद्रा कमजोर होती है तो उसका उत्पादन भी डॉलर के मुकाबले सस्ता हो जाता है और ग्लोबल मार्केट में उसकी मांग बढ़ जाती है.
ये भी पढ़ें – दिवाली धमाका ऑफर! फेडरल बैंक के ग्राहकों को FD पर मिलेगा 8% का बंपर रिटर्न
चीन ने साल आठ साल में दो बार घटाया युआन का मूल्य
अपनी करेंसी को जानबूझकर कमजोर करने का कारनामा चीन दो बार कर चुका है. एक बार साल 2015 में चीन ने डॉलर के मुकबाले अपने युआन की कीमत घटाकर 6.22 कर दी थी. डॉलर के मुकाबले युआन को करीब 2 फीसदी कमजोर बनाकर चीन ने अपने निर्यात के रास्ते चौड़े कर दिए. इससे पहले चीन के निर्यात में 8.2 फीसदी की बड़ी गिरावट दिखी थी, जिसे संभालने के लिए युआन को कमजोर बनाया और अपना निर्यात सस्ता कर उसकी मांग बढ़ा ली.
इसके बाद साल 2019 में फिर चीन ने अमेरिकी डॉलर के मुकाबले अपनी मुद्रा युआन की कीमत घटाकर 6.99 तय कर दी. यह विवाद उस समय गहराया जब अमेरिका ने चीन के करीब 300 अरब डॉलर के निर्यात पर अपने यहां 10 फीसदी अतिरिक्त आयात शुल्क लगा दिया. इससे चीन की मुद्रा में गिरावट आई साथ ही चीन के निर्यात पर भी असर पड़ा. इसके बाद चीन के केंद्रीय बैंक पीपुल्स बैंक ऑफ चाइना ने युआन का एक्सचेंज रेट और घटा दिया, ताकि निर्यात सस्ता कर उद्योगों को और अवसर दिलाया जा सके. चीन को इसका फायदा इसलिए भी मिला, क्योंकि ग्लोबल निर्यात में जहां अमेरिका की हिस्सेदारी 8.1 फीसदी और जर्मनी की 7.8 फीसदी है, वहीं चीन करीब दोगुना 15 फीसदी के आसपास बना हुआ है.
अर्थव्यवस्था को कैसे मिलता है कमजोर मुद्रा का लाभ
कमोडिटी एनालिस्ट और फॉरेक्स मार्केट के जानकार जतिन त्रिवेदी का कहना है कि किसी देश के अपनी मुद्रा को कमजोर बनाने का सबसे बड़ा कारण अर्थव्यवस्था को रफ्तार देना भी रहता है. हालांकि, यह कदम तभी उठाना चाहिए जब उस देश को अपना निर्यात बढ़ने का भरोसा हो और उसके निर्यात की अर्थव्यवस्था में बड़ी हिस्सेदारी हो. यही कारण है कि चीन दो बार अपनी मुद्रा का अवमूल्यन करने के बावजूद बाजी मार गया. दरअसल, जब निर्यात बढ़ता है तो उद्योगों को भी अपना उत्पादन बढ़ाने का मौका मिलता है, जिससे नई नौकरियों और कारोबार विस्तार का माहौल बनता है. यानी कुलमिलाकर यह कदम अर्थव्यवस्था को चलायमान बनाने में मददगार होता है.
दूसरी ओर, अपनी मुद्रा की कीमत घटाने पर किसी देश को खामियाजा भी भुगतना पड़ता है. इससे आयात महंगा हो जाता है और देश में भी महंगाई का जोखिम बढ़ जाता है. साथ ही किसी देश की मुद्रा में कमजोरी आने से उसका विदेशी मुद्रा भंडार भी कम होने लगता है. भारत को ही देख लें तो साल 2022 में जहां डॉलर के मुकाबले रुपये में करीब 10 फीसदी कमजोरी आई है, वहीं विदेशी मुद्रा भंडार में भी करीब 100 अरब डॉलर की गिरावट आ चुकी है. महंगाई भी आरबीआई के 6 फीसदी के दायरे से बाहर ही चल रही, जो बीते दो महीने से 7 फीसदी के ऊपर चली गई है.
व्यापार घाटा थामने में मदद
किसी देश की करेंसी जब मजबूत होती है तो उसका निर्यात महंगा और आयात सस्ता हो जाता है. यानी आयात ज्यादा होने और निर्यात में कमी आने से उसका व्यापार घाटा भी बढ़ने लगता है. ऐसे में उस देश के चालू खाते के घाटे पर भी असर पड़ता है. कई बार देश अपनी मुद्रा का अवमूल्यन कर निर्यात बढ़ा लेते हैं, जिससे व्यापार घाटे की यह खाई भी संकरी हो जाती है और चालू खाते के घाटे का बोझ भी हल्का हो जाता है.
ब्रेकिंग न्यूज़ हिंदी में सबसे पहले पढ़ें News18 हिंदी| आज की ताजा खबर, लाइव न्यूज अपडेट, पढ़ें सबसे विश्वसनीय हिंदी न्यूज़ वेबसाइट News18 हिंदी|
Tags: Business news in hindi, Dollar, Import-Export, India GDP, Indian economy, Rupee weakness