नक्सलियों के लिए गुलाम और पुलिस के मुखबिर बनकर रह गए हैं अबूझमाड़ के लोग

आमतौर पर हम नारायणपुर के अबूझमाढ़ में रहने वाले अति पिछड़ी जनजाति के लोगों जिन्हें संविधान में विशेष संरक्षण प्राप्त है, उन्हें अबूझमाड़िया कहते हैं। प्रकृति के साथ तालमेल बनाकर रहने वाले सीधे साधे प्रवृत्ति वाले ये आदिवासी लोग आमतौर पर बाहरी दुनिया से आज भी कम ही संपर्क रखते हैं। बाहरी दुनिया के लोगों से संपर्क ये सिर्फ नमक लेने और उसके बदले में वनोपज देने के लिए ही करते हैं।
आमतौर पर हम नारायणपुर के अबूझमाढ़ में रहने वाले अति पिछड़ी जनजाति के लोगों जिन्हें संविधान में विशेष संरक्षण प्राप्त है, उन्हें अबूझमाड़िया कहते हैं। प्रकृति के साथ तालमेल बनाकर रहने वाले सीधे साधे प्रवृत्ति वाले ये आदिवासी लोग आमतौर पर बाहरी दुनिया से आज भी कम ही संपर्क रखते हैं। बाहरी दुनिया के लोगों से संपर्क ये सिर्फ नमक लेने और उसके बदले में वनोपज देने के लिए ही करते हैं।
- News18
- Last Updated: September 1, 2014, 10:23 AM IST
आमतौर पर हम नारायणपुर के अबूझमाढ़ में रहने वाले अति पिछड़ी जनजाति के लोगों जिन्हें संविधान में विशेष संरक्षण प्राप्त है, उन्हें अबूझमाड़िया कहते हैं। प्रकृति के साथ तालमेल बनाकर रहने वाले सीधे साधे प्रवृत्ति वाले ये आदिवासी लोग आमतौर पर बाहरी दुनिया से आज भी कम ही संपर्क रखते हैं। बाहरी दुनिया के लोगों से संपर्क ये सिर्फ नमक लेने और उसके बदले में वनोपज देने के लिए ही करते हैं।
धुर नक्सल प्रभावित नारायणपुर के जिला मुख्यालय में अगर आप पहुंचेंगे तो इनके बारे में एक नई जानकारी हाथ लगेगी। नारायणपुर कलेक्ट्रेट के पास बसी इस बस्ती में इन्हें मुखबिर के नाम से भी जाना जाता है। अब इसे दुर्भाग्य कहें या सरकारी नाकारापन कि आज डेढ़ दशक से भी ज्यादा समय से अबूझमाढ़ नक्सलियों के लिए सुरक्षित पनाहगाह बना हुआ है और वहां के अबूझमाड़िए उनके गुलाम।
जो भी कोई नक्सलियों की ना फरमानी की हिमाकत करता है या तो उसे मार दिया जाता है या फिर पुलिस का मुखबिर नाम देकर उसे पलायन करने पर मजबूर कर दिया जाता है। ऐसी स्थिति तब से है जब से राज्य सरकार और नक्सलियों के बीच जंग छीड़ी हुई है।
नारायणपुर जिला मुख्यालय से कुछ दूरी पर एक बस्ती है जिसका असली नाम शांति नगर है लेकिन आम बोल चाल की भाषा में लोग इसे मुखबिर पारा के नाम से जानते हैं। इस बस्ती में रह रहे सैकड़ों परिवार ऐसे हैं जिनके परिवार का कोई न कोई व्यक्ति पुलिस के लिए मुखबिरी करता है।पेशे से वकील शिव पांडेय का कहना है कि जिन अबूझमाड़ियों को समूचा विश्व उनके प्रकृति प्रेम के लिए जानता था उन्हें अब लोग मुखबिर के नाम से जानते हैं। इस बस्ती में रहने के कारण उन्हें हमेशा डर के साये में रहना पड़ता है, क्योंकि नक्सली इस बस्ती में रहने वाले तमाम आदिवासियों को पुलिस का मुखबिर ही मानते हैं।
पांडेय का कहना है मुखबिर पारा की नींव जिले के 2006 में एसपी सुंदरराज के समय में उस वक्त पड़ी जब नक्सलियों ने नारायणपुर जिला मुख्यालय से सटे गांव कोकामेटा, सोनपुर के कुछ लोगों को पुलिस का मुखबिर होने के शक में प्रताड़ित कर भागने को मजबूर कर दिया था। उसके बाद खाली पड़ी जमीन पर कुछ परिवार जिनके सदस्यों ने सही में पुलिस के लिए मुखबिरी की थी उन्हें बसाया गया और उन्हें 15,000 रुपये प्रति परिवार के हिसाब से मुआवजा भी दिया गया। उसके बाद यह सिलसिला चल पड़ा।
आज भी इस कॉलोनी में जो परिवार बसे हैं या तो वे नक्सलियों से प्रताड़ित हैं नहीं तो उनके परिवार का कोई न कोई सदस्य 3000 से 4000 रुपये के लिए अपनी जान जोखिम में डालकर पुलिस के लिए मुखबिरी करता है। अबूझमाड़ियों के कई परिवार जो इस सोच के साथ यहां आए थे कि सरकार नक्सलियों का खात्मा सरकार कर देगी और फिर से वे अपने घरों को लौटेंगे वो केवल सपना ही रह गया। मुखबिरी और मुआवजे के चंद हजार रुपयों ने अबूझमाड़ियों को मुखबिर बना दिया।
अबूझमाड़ियाें का दर्द
माढ़ के पूर्व निवासी रामू बरदाई (परिवर्तित नाम) का कहना है कि नक्सलियों द्वारा प्रताड़ित होने के बाद वह तो अपनी पत्नी के साथ इस बस्ती में चला तो आया लेकिन आज भी चावल और राशन लाने के लिए उसे ब्लॉक मुख्यालय ओरछा ही जाना पड़ता है।
बूढ़ूराम (परिवर्तित नाम) बताते हैं यहां आने से मेरी जान तो बच गई लेकिन जहां भी जाता हूं लोग मुझे पुलिस का मुखबिर ही समझते हैं। अच्छा तो यही होता कि हम फिर से वहीं चल जाते।
श्यालुबोदो (परिवर्तित नाम) का कहना है कि शुरुआत में पुलिस के लिए काम किया पर पैसा बहुत ही कम मिला और जान का खतरा अभी भी बना हुआ है। नक्सलियों ने परिवार के अन्य सदस्यों को धमकी दे रखी है हमे मिलेगा तो मार दिया जाएगा।
स्थानीय पत्रकार रितेश तंबोली का कहना है कि इस बस्ती के कमोबेश सभी परिवारों की एक ही जैसी कहानी है। अधिकांश लोगों के पास राशन कार्ड और वोटर कार्ड भी नहीं है। आज भी इन्हें कई दिक्कतों का सामना करना पड़ता है।
नारायणपुर के वर्तमान एसपी अमित तुकाराम कांबले का कहना है कि ऐसी कोई भी बस्ती लैंड-रेकॉर्ड में नहीं है। शांति नगर में नक्सल प्रभावित परिवार रहते तो जरूर हैं लेकिन सरकार उन्हें पर्याप्त सुरक्षा मुहैया करवा रही है। रही बात सुविधाओं की तो कुछ कमियां अवश्य हैं जिन्हें दूर करने के प्रयास जारी हैं।
धुर नक्सल प्रभावित नारायणपुर के जिला मुख्यालय में अगर आप पहुंचेंगे तो इनके बारे में एक नई जानकारी हाथ लगेगी। नारायणपुर कलेक्ट्रेट के पास बसी इस बस्ती में इन्हें मुखबिर के नाम से भी जाना जाता है। अब इसे दुर्भाग्य कहें या सरकारी नाकारापन कि आज डेढ़ दशक से भी ज्यादा समय से अबूझमाढ़ नक्सलियों के लिए सुरक्षित पनाहगाह बना हुआ है और वहां के अबूझमाड़िए उनके गुलाम।
जो भी कोई नक्सलियों की ना फरमानी की हिमाकत करता है या तो उसे मार दिया जाता है या फिर पुलिस का मुखबिर नाम देकर उसे पलायन करने पर मजबूर कर दिया जाता है। ऐसी स्थिति तब से है जब से राज्य सरकार और नक्सलियों के बीच जंग छीड़ी हुई है।
नारायणपुर जिला मुख्यालय से कुछ दूरी पर एक बस्ती है जिसका असली नाम शांति नगर है लेकिन आम बोल चाल की भाषा में लोग इसे मुखबिर पारा के नाम से जानते हैं। इस बस्ती में रह रहे सैकड़ों परिवार ऐसे हैं जिनके परिवार का कोई न कोई व्यक्ति पुलिस के लिए मुखबिरी करता है।पेशे से वकील शिव पांडेय का कहना है कि जिन अबूझमाड़ियों को समूचा विश्व उनके प्रकृति प्रेम के लिए जानता था उन्हें अब लोग मुखबिर के नाम से जानते हैं। इस बस्ती में रहने के कारण उन्हें हमेशा डर के साये में रहना पड़ता है, क्योंकि नक्सली इस बस्ती में रहने वाले तमाम आदिवासियों को पुलिस का मुखबिर ही मानते हैं।
पांडेय का कहना है मुखबिर पारा की नींव जिले के 2006 में एसपी सुंदरराज के समय में उस वक्त पड़ी जब नक्सलियों ने नारायणपुर जिला मुख्यालय से सटे गांव कोकामेटा, सोनपुर के कुछ लोगों को पुलिस का मुखबिर होने के शक में प्रताड़ित कर भागने को मजबूर कर दिया था। उसके बाद खाली पड़ी जमीन पर कुछ परिवार जिनके सदस्यों ने सही में पुलिस के लिए मुखबिरी की थी उन्हें बसाया गया और उन्हें 15,000 रुपये प्रति परिवार के हिसाब से मुआवजा भी दिया गया। उसके बाद यह सिलसिला चल पड़ा।
आज भी इस कॉलोनी में जो परिवार बसे हैं या तो वे नक्सलियों से प्रताड़ित हैं नहीं तो उनके परिवार का कोई न कोई सदस्य 3000 से 4000 रुपये के लिए अपनी जान जोखिम में डालकर पुलिस के लिए मुखबिरी करता है। अबूझमाड़ियों के कई परिवार जो इस सोच के साथ यहां आए थे कि सरकार नक्सलियों का खात्मा सरकार कर देगी और फिर से वे अपने घरों को लौटेंगे वो केवल सपना ही रह गया। मुखबिरी और मुआवजे के चंद हजार रुपयों ने अबूझमाड़ियों को मुखबिर बना दिया।
अबूझमाड़ियाें का दर्द
माढ़ के पूर्व निवासी रामू बरदाई (परिवर्तित नाम) का कहना है कि नक्सलियों द्वारा प्रताड़ित होने के बाद वह तो अपनी पत्नी के साथ इस बस्ती में चला तो आया लेकिन आज भी चावल और राशन लाने के लिए उसे ब्लॉक मुख्यालय ओरछा ही जाना पड़ता है।
बूढ़ूराम (परिवर्तित नाम) बताते हैं यहां आने से मेरी जान तो बच गई लेकिन जहां भी जाता हूं लोग मुझे पुलिस का मुखबिर ही समझते हैं। अच्छा तो यही होता कि हम फिर से वहीं चल जाते।
श्यालुबोदो (परिवर्तित नाम) का कहना है कि शुरुआत में पुलिस के लिए काम किया पर पैसा बहुत ही कम मिला और जान का खतरा अभी भी बना हुआ है। नक्सलियों ने परिवार के अन्य सदस्यों को धमकी दे रखी है हमे मिलेगा तो मार दिया जाएगा।
स्थानीय पत्रकार रितेश तंबोली का कहना है कि इस बस्ती के कमोबेश सभी परिवारों की एक ही जैसी कहानी है। अधिकांश लोगों के पास राशन कार्ड और वोटर कार्ड भी नहीं है। आज भी इन्हें कई दिक्कतों का सामना करना पड़ता है।
नारायणपुर के वर्तमान एसपी अमित तुकाराम कांबले का कहना है कि ऐसी कोई भी बस्ती लैंड-रेकॉर्ड में नहीं है। शांति नगर में नक्सल प्रभावित परिवार रहते तो जरूर हैं लेकिन सरकार उन्हें पर्याप्त सुरक्षा मुहैया करवा रही है। रही बात सुविधाओं की तो कुछ कमियां अवश्य हैं जिन्हें दूर करने के प्रयास जारी हैं।