रायपुर/सुकमा. छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल से पुलिस की वर्दी पहने एक शख्स की हाथ मिलाते फोटो सोशल मीडिया पर खूब वायरल हो रही है. खुद मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने भी अपने ऑफिशियल सोशल मीडिया एकाउंट पर इन तस्वीरों को शेयर किया है. इस शख्स का नाम मुदराज मड़कम है. मुख्यमंत्री से हाथ मिलाकर सुर्खियों में आए सुकमा पुलिस के डीआरजी प्रभारी मड़कम मुदराज कभी नक्सल संगठन के बेहद खास सदस्य थे. मुदराज नक्सल संगठन का जन मिलिशिया प्लाटून कमांडर भी रह चुके हैं. लेकिन आज वे सुकमा डीआरजी के सबसे भरोसेमंद अधिकारियों में से एक हैं. मुदराज के नेतृत्व में ही करीब 50 जवान नक्सलियों से मोर्चा लेने के लिए जंगलों में निकलते हैं.
नक्सल संगठन छोड़ छत्तीसगढ़ पुलिस की डीआरजी (डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड) यूनिट में शामिल होने वाले कई जवान हैं, लेकिन मुदराज मड़काम की कहानी कुछ अलग है. साल 2001-02 में जब मड़कम मुदराज नक्सल संगठन से जुड़े तो उनकी उम्र महज 14 साल थी. मूलत: सुकमा के गोलापल्ली थाना क्षेत्र के मसलमड़गु गांव के रहने वाले मड़कम कहते हैं- नक्सलियों का मेरे गांव में आना-जाना लगा रहता था. नक्सलियों की वर्दी और बंदूक मुझे आकर्षित करती थी. इसलिए मैं उनके साथ संगठन में चले गया.
35 लाख रुपये छोड़कर भाग गया
बातचीत में मुदरा बताते हैं- मेरा रंग गोरा था, इसलिए मुझे छत्तीसगढ़ की जगह तेलंगाना में संगठन ने ज्यादा काम करवाया. क्योंकि गोरे रंग की वजह से वहां की पुलिस मुझे शक की नजर से नहीं देखती थी. संगठन में रमन्ना, आयतू जैसे शीर्ष कैडर के साथ काम करने का दावा करने वाले मुदरा बताते हैं- 2003 में आंध्र प्रदेश (अब तेलंगाना) के भद्राचलम में एक सड़क ठेकेदार से संगठन द्वारा 35 लाख रुपयों की वसूली की गई. उस रकम को बस्तर में संगठन के नेताओं तक पुहंचाने का जिम्मा मुझे सौंपा गया. पुलिस को कहीं से इस बात की भनक लग गई. सीमावर्ती जंगलों में आंध्र की पुलिस ने हमपर हमला कर दिया. तब जान बचाने के लिए हम रुपयों को छोड़कर भाग आए. इसके बाद नक्सल संगठन में रहते हुए कई बार पुलिस के साथ मुठभेड़ हुई.
34 वर्षीय मड़कम मुदरा कहते हैं- साल 2007 में बस्तर के बीजापुर, दंतेवाड़ा और सुकमा में सलवा जुडूम अपने चरम पर था. तब जब भी मेरा गांव जाना होता था तो परिवार वाले दहशत में रहते थे. उन्हें डर था कि मेरे नक्सल संगठन में जुड़े होने के कारण जुडूम के लोग उन्हें तंग करेंगे. मेरे पिता बार-बार मुझे सरेंडर करने के लिए कहते थे. मुझे भी उनकी बात सही लगी और मैंने साल 2007 में ही पुलिस के समक्ष समर्पण कर दिया. इसके बाद शासन की योजनाओं के तहत मैं पुलिस के लिए काम करने लगा.
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