नई दिल्ली. इस साल भी दिल्ली-एनसीआर (Delhi-NCR) में रहने वाले लोग प्रदूषण (Pollution) से बेहाल हैं. कई जगहों पर प्रदूषण का लेवल खतरनाक (Severe) स्तर तक पहुंच गया है. एक तो कोरोना (Coronavirus) ऊपर से प्रदूषण ने दिल्ली के लोगों का जीना मुहाल कर दिया है. दिल्ली के कई अस्पतालों (Hospitals) में सांस के मरीज पहुंचने लगे हैं. पिछले कुछ दिनों से स्मॉग भी नजर आने लगी है. कहा ये जा रहा है कि अगले एक सप्ताह में स्थिति और भयानक होने वाली है. बता दें कि पिछले साल भी इसी तरह की स्थिति बन गई थी, तब आनन-फानन में सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में प्रदूषण को लेकर सुनवाई हुई. सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और दिल्ली सरकार को झाड़ लगाते हुए कहा था, 'प्रदूषण की वजह से लोगों की जिंदगी के साल कम हो रहे हैं. ये किसी सभ्य समाज में नहीं हो सकता. क्या हम लोग इस वातावरण में जिंदा रह पाएंगे? कोई अपने घर तक में सेफ नहीं है. इस तरह से हम बच नहीं सकते हैं.'
सुप्रीम कोर्ट के सख्त तेवर के बावजूद प्रदूषण बेलगाम
सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल प्रदूषण को लेकर काफी सख्त तेवर अपनाए थे. सुप्रीम कोर्ट की चिंता और गुस्सा दोनों जायज थी, लेकिन सवाल है कि प्रदूषण को लेकर कानून के पास क्या उपाय हैं? क्या कानून के जरिए प्रदूषण पर लगाम लगाई जा सकती है? इस बारे में भारतीय कानून क्या कहता है?

इस साल भी दिल्ली में प्रदूषण के स्तर में लगातार तेजी आ रही है.
प्रदूषण को लेकर बनाया गया एक्ट कितना कारगर?
जानकारों का मानना है कि एक्ट के प्रावधान भी काफी पुराने पड़ गए हैं. 1987 और 2010 में कुछ संशोधन हुआ था, लेकिन ज्यादातर प्रावधान पुराने ही हैं. दो साल पहले केंद्र सरकार ने नेशनल क्लीन एयर प्रोग्राम की शुरुआत की थी. इसमें 5 साल में वायु प्रदूषण को कम करने का लक्ष्य रखा गया था. इसमें पूरे देश में एयर क्वालिटी की जांच होगी और लोगों को इस बारे में जागरूक किया जाएगा. प्रोग्राम के तहत खासतौर से 102 सबसे ज्यादा प्रदूषित शहरों पर नजर रखने की बात की गई थी. इस कार्यक्रम में अगले 5 वर्षों में पीएम 2.5 को करीब 20 से 30 फीसदी कम करने का लक्ष्य रखा गया था, लेकिन हकीकत में धरातल पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. इस कार्यक्रम को किसी कानून का समर्थन प्राप्त नहीं है. जमीनी स्तर पर बिना किसी कानूनी प्रावधान के प्रदूषण कम करने के उपायों पर कैसे अमल लाया जा सकता है?
प्रदूषण को लेकर भारत में ये हैं कानून
प्रदूषण को लेकर प्रमुख तौर पर तीन कानून हैं- द एयर (प्रिवेंशन एंड कंट्रोल ऑफ पॉल्यूशन) एक्ट 1981, द वाटर ( प्रिवेंशन एंड कंट्रोल ऑफ पॉल्यूशन) एक्ट 1974 और द एनवॉयरमेंट (प्रोटेक्शन) एक्ट 1986. इन एक्ट से संबंधित करीब 15 नियम कानून हैं. इसमें प्रिवेंशन एंड कंट्रोल ऑफ पॉल्यूशन एक्ट 1981 सबसे अहम है.

ठंड का मौसम आने से पहले ही दिल्ली एक बार फिर स्मॉग की चपेट में आ गया है. (प्रतीकात्मक तस्वीर: Pixabay)
हर राज्य में पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड करता है काम
इसी एक्ट के अधीन केंद्र और राज्य के पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड काम करते हैं, जिनके जरिए प्रदूषण की जांच की जाती है और नियमों के उल्लंघन पर नजर रखी जाती है. इस एक्ट के जरिए उद्योगों से होने वाले वायु प्रदूषण पर लगाम लगाई जाती है और उल्लंघन होने की स्थिति में जुर्माना लगाया जाता है. उल्लंघन होने की स्थिति में पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड कोर्ट भी जा सकता है.
पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड के पास क्या हैं अधिकार
पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड के पास ये अधिकार है कि प्रदूषण के नियमों का उल्लंघन होने पर वो जुर्माना लगा सकता है, लेकिन जुर्माने की रकम कोर्ट ही वसूल करती है. किसी इंडस्ट्रियल यूनिट से ज्यादा प्रदूषण होने की स्थिति में बोर्ड उसे बंद करने की सिफारिश भी कर सकता है, लेकिन ये सबसे कठोरतम कदम होता है और ये शायद ही उठाए जाते हैं.

गाजियाबाद से सटे क्षेत्रों में प्रदूषण ज्यादा है
प्रदूषण के मामले कोर्ट में क्यों चलते हैं लंबे
गौरतलब है कि प्रदूषण को लेकर कोर्ट में चल रहे मामले भी लंबे वक्त तक चलते ही रहते हैं. 2017 में प्रदूषण से संबंधित 82 फीसदी मामले साल के खत्म होने तक चलते ही रहे. प्रदूषण के मामलों में दोषी ठहराए जाने का दर भी बहुत कम है. पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड के पास इतने योग्य लोग नहीं होते कि वो पॉल्यूशन के मामलों की सही जांच करके कोर्ट के सामने उसे दोषी ठहरा सकते हों.
प्रदूषण के कितने मामले में दोषी को सजा मिलती है?
2014 में प्रदूषण फैलाने के 48 मामले दर्ज किए गए, उसमें से सिर्फ 3 मामलों में दोष साबित किया जा सका. इसी तरह 2015 में 50 मामले दर्ज हुए, जिसमें सिर्फ 3 पर दोष साबित हुआ. 2016 में 25 मामले दर्ज हुए लेकिन किसी में दोष साबित नहीं किया जा सका. इसी तरह 2017 में 36 मामलों में सिर्फ 2 में दोष साबित हुआ.

गोपाल राय ने कहा है कि प्रदूषण के खिलाफ युद्धस्तर पर काम शुरू किए जा रहे हैं.
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प्रदूषण बढ़ाने वाले सबसे बड़े कारक पीएम-10 का सामान्य लेवल 100 माइक्रो ग्राम क्यूबिक मीटर (MGCM) जबकि पीएम 2.5 का 60 एमजीसीएम होता है. केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने 2016 से 2018 तक औसत पीएम-10 और 2.5 का विश्लेषण किया है. जिसमें पता चलता है कि तीनों साल भी यह सामान्य स्तर पर नहीं रहा. जबकि 2019 में सिर्फ दो दिन ही प्रदूषण मैप ग्रीन हुआ था. इस साल लॉकडाउन में 28 मार्च को मेरठ का पीएम 2.5 सिर्फ 12.91 था. जो लॉकडाउन के दौरान प्रदूषित शहरों में सबसे कम था.undefined
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FIRST PUBLISHED : October 20, 2020, 18:44 IST