एनएच 34 में पायलट प्रोजेक्ट के रूप में इस्तेमाल की गयी तकनीक.
नई दिल्ली. अब पुरानी सड़कों की रिसाइकिलिंग आसान और किफायती होगी. सेंट्रल रोड रिसर्च इंस्टीट्यूट (सीआरआरआई) ने रेजुपेव तकनीक इजाद की है. इस तकनीक से पुरानी सड़कों की मरम्मत के लिए सड़क के ऊपर 5 से 10 सेमी. तारकोल की लेयर डाल दी जाती है, जिससे सड़क ऊंची हो जाती हैै. इस प्रक्रिया में देश में प्रतिवर्ष गिट्टी काफी मात्रा में गिट्टियां और तालकोल की आवश्यकता होती है. दोनों प्राकृतिक संसाधनों के जरूरत से अधिक इस्तेमाल से पर्यावरण पर दुष्प्रभाव पड़ता है.
सीएसआईआर और सीआरआरआई और वर्मा इंस्डस्ट्रीज द्वारा रिजुपेव तकनीक से तारकोल की लेयर को उखाड़कर 60 फीसदी तक मैटेरियल को दोबारा से इस्तेमाल किया जा सकेगा. इसके अलावा लागत भी कम आएगी. सीआरआरआई ने नई तकनीक का इस्तेमाल कर पश्चिम बंगाल में नेशनल हाईवे के एक किमी. रोड तैयार की गयी है. यह देश का पहला हाईवे है, जहां पर नई तकनीक का इस्तेमाल किया गया है. इस सड़क से रोजाना 5000 से 6000 व्यावसायिक वाहन गुजरते हैं. इस सड़क के निर्माण में देश की प्रतिष्ठिति रोड निर्माण कंपनियां क्यूब हाईवेज, मार्कोलाइन, वीआर टेक्नीक, सारस इंफ्रास्ट्रक्चर शामिल रही हैं.
इस तकनीक को विकसित करने वाले सीआरआरआई के प्रमुख वैज्ञानिक डा. सतीश पांडेय बताते हैं कि देश में अभी तक 30 फीसदी तारकोल मैटेरियल को दोबारा से इस्तेमाल किया जाता था, लेकिन रिजुपेव तकनीक से 60 फीसदी तक मैटेरियल दोबारा से इस्तेमाल किया जा सकता है.
वे बताते हैं कि इस तकनीक के इस्तेमाल से बनी रोड की लागत सामान्य के मुकाबले 40 फीसदी कम आएगी. इस तरह रुपये की बचत होगी. इसके साथ ही थिकनेस अधिक होने से मजबूत भी अधिक होगी. इस तकनीक के अन्य फायदे भी हैं. पूरी तरह से इको फ्रेंडली यह तकनीक पूरी से इको फ्रेंडली है. तकनीक बॉयो आयल पर आधारित है.
प्राकृतिक संसाधन संरक्षित करने में मददगार
तकनीक प्राकृतिक संसाधन को संरक्षित करने में मददगार होगी. मौजूदा समय तारकोल को आयात किया जाता है, लेकिन इस तकनीक से तारकोल का इस्तेमाल कम किया जा सकता है. सड़क निर्माण में पत्थरों को तोड़कर गिट्टियां बनाई जाती हैं, लेकिन तकनीक की मदद से दोबारा मैटेरियल इस्तेमाल कर प्राकृतिक संसाधनों को बचाया जा सकता है.
पूरी तरह से भारतीय तकनीक
यह तकनीक सीएसआईआर- सीआरआरआई और वर्मा इंडस्ट्रीज ने विकसित की है जो पूरी तरह से भारतीय है. यह स्वदेशी तकनीक आयात की जाने वाली तकनीक के मुकाबले सस्ती भी है.
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