शरीर को ठीक रखने के लिए योग की रस्म और उस पर राजनीति तो हो गई. अब हम सियासी योग की बात करते हैं. जैसे-जैसे 2019 नजदीक आ रहा है एनडीए (नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस) और यूपीए (युनाइटेड प्रोग्रेसिव अलायंस) का 'योग' बन और बिगड़ रहा है.
फेडरल फ्रंट का योग अब तक बनता नहीं दिख रहा है. सत्तारूढ़ एनडीए के घटक एक-एक कर टूट रहे हैं. पहले तेलुगू देशम पार्टी, फिर जम्मू-कश्मीर पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी...कुछ और भी इस लाइन में दिख रहे हैं.
एनडीए की सबसे पुरानी सहयोगी शिवसेना पहले ही अकेले लोकसभा चुनाव लड़ने का एलान कर चुकी है. इस बार उसने अलग होकर पालघर लोकसभा (महाराष्ट्र) सीट पर चुनाव लड़ा. उसे सीट गंवानी पड़ी. दरअसल, दोनों का कोर वोटर कट्टर हिंदू माना जाता है. ऐसे में माना जाता है कि बीजेपी महाराष्ट्र में शिवसेना का वोट बैंक अपनी तरफ शिफ्ट कर रही है. इसका नुकसान शिवसेना को हो रहा है. इसलिए शिवसेना लगातार बीजेपी पर मुखर है. नफा-नुकसान का आकलन करते हुए उसने 2019 का चुनाव बीजेपी से अलग लड़ने का फैसला किया. हालांकि, वह अभी एनडीए से अलग नहीं हुई है.
बीजेपी विरोधी पार्टियों की गोलबंदी से गोरखपुर, फूलपुर से लेकर कैराना तक के परिणाम एक सबक है. उपचुनावों के परिणाम बीजेपी के गढ़ में सेंध लगने का संकेत दे रहे हैं. एनडीए के समर्थक दल अब आलोचक बन रहे हैं. माहौल देखकर शिरोमणि अकाली दल हरियाणा विधानसभा चुनाव में अकेले उतरना चाहती हैं, जहां बीजेपी की सरकार है. उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी का कुछ पता नहीं कि वो किसके साथ जाएगी.
इन दिनों जेडीयू से भी बीजेपी के रिश्ते सहज नहीं दिख रहे हैं. नीतीश कुमार केंद्र सरकार की कुछ नीतियों पर आलोचक की मुद्रा में दिखाई दे रहे हैं. यूपी में सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के नेता और योगी कैबिनेट के मंत्री ओम प्रकाश राजभर आए दिन बीजेपी की आलोचना करते रहते हैं.
लंबे समय तक विश्व हिंदू परिषद का चेहरा रहे प्रवीण तोगड़िया बीजेपी और पीएम मोदी के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं. कुछ नेता मौन रहकर मौके का इंतजार कर रहे हैं. बीजेपी सांसद सावित्री बाई फुले, छोटेलाल खरवार, उदित राज, यशवंत सिंह और अशोक दोहरे जैसे दलित सांसदों की नाराजगी भी सत्तारूढ़ पार्टी की सेहत के लिए ठीक नहीं मानी जा रही है.
उधर, राहुल गांधी के साथ भी राजनीतिक योग के लिए पार्टियां राजी नहीं दिख रही हैं. उन्हें उनकी पार्टी के कुछ नेताओं के अलावा कोई पीएम पद का प्रत्याशी मानने और बनाने के लिए तैयार नहीं दिख रहा. यूपीए की कमान कांग्रेस के हाथ में है. लेकिन, उसमें सिर्फ 10 पार्टियां रह गई हैं. संसद सदस्य सिर्फ 52 हैं. लोकसभा इलेक्शन के सबसे बड़े रणक्षेत्र उत्तर प्रदेश में हुए गोरखपुर और फूलपुर उप चुनावों में कांग्रेस का कहीं अता-पता नहीं था. जबकि, सपा और बसपा ने मिलकर बीजेपी से यूपी में उसकी लोकसभा की तीन सीटें छीन लीं.
ममता बनर्जी और कांग्रेस की पुरानी सियासी खटपट है. वो राहुल गांधी को गठबंधन का लीडर मानने के लिए तैयार नहीं हैं. बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी कांग्रेस के साथ आने के लिए राजी नहीं दिख रही है. छोटी-छोटी पार्टियां उस पर दबाव बना रही हैं. मायावती खुद प्रधानमंत्री बनना चाहती हैं. उनकी पार्टी के नेता इसकी वकालत कर रहे हैं. मुलायम सिंह भी प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं. ऐसे में सत्ता तक पहुंचने का योग कैसे और किसका बनेगा?
रही बात तीसरे मोर्चे की तो इसका नेता अब तक तय नहीं है. अब कौन दल किसके साथ जुड़े यही नहीं तय हो पा रहा है. ममता दीदी की कोशिश 2019 के आम चुनाव से पहले एक ऐसा मोर्चा खड़ा करने की है, जो गैर-कांग्रेसी हो और बीजेपी के खिलाफ एकजुट रहे. ऐसा मोर्चा हो जिसमें बीजेपी विरोधी क्षेत्रीय पार्टियां अपने-अपने राज्यों में अपना जनाधार और सरकार बचा और बना लें.
ममता बनर्जी और टीआरएस नेता के. चंद्रशेखर राव की कोशिश है कि सपा, बसपा, बीजेडी, आरजेडी, शिवसेना, वाईएसआर कांग्रेस और एनसीपी के साथ मिलकर एक मोर्चा खड़ा हो. हालांकि, कांग्रेस नेता एम. वीरप्पा मोइली का कहना है कि कांग्रेस के बिना फेडरल फ्रंट नहीं बन सकता. गैर-बीजेपी और गैर- कांग्रेस फेडरल फ्रंट का उद्देश्य बीजेपी विरोधी पार्टियों को बांटना है.
राजनीतिक विश्लेषक आलोक भदौरिया कहते हैं "राजनीतिक योग बनाने बिगाड़ने का समय आ ही गया है. जहां तक बीजेपी की बात है तो वह कोशिश यही करेगी कि किसी भी तरह उसके मौजूदा सहयोगी 2019 के लोकसभा चुनाव में साथ रहें. दूसरा वह ऐसे भावनात्मक मुद्दों को भी ले आएगी, जिससे उसका सत्ता तक जाने का योग बने. जैसे कश्मीर, आतंकवाद और राम मंदिर मुद्दा. रही बात यूपीए की तो यदि कांग्रेस राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में वापसी करती है तो कई रीजनल पार्टियां उसके साथ जुड़ जाएंगी."
भदौरिया कहते हैं " बिना कांग्रेस बीजेपी के खिलाफ मोर्चा तैयार करना कॉन्सेप्ट के लेवल पर तो ठीक है, लेकिन, यह देखना होगा कि क्या अलग-अलग राज्यों के क्षत्रप एक दूसरे का नेतृत्व स्वीकार करने के लिए तैयार होंगे. दरअसल, ये सभी क्षत्रप बात तो कर रहे हैं मोदी सरकार के खिलाफ मोर्चा बनाने की, लेकिन उनकी नजर अपने-अपने राज्यों में सत्ता बरकरार रखने की है. इस सोच के साथ कोई फ्रंट कामयाब नहीं हो सकता."
भदौरिया ने आगे कहा,"इमरजेंसी के बाद गैर कांग्रेसी मोर्चा बना था, लेकिन उसका नेतृत्व जय प्रकाश नारायण जैसे एक बड़े नेता के हाथ में था. ममता बनर्जी ने पिछले लोकसभा चुनावों में भी मुलायम सिंह यादव को साथ लेकर बीजेपी विरोधी मोर्चा बनाने की कोशिश की थी लेकिन मुलायम पलट गए थे. इसलिए कैसे कहा जाए कि इस बार यह कोशिश सफल होगी."
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