#MeToo को लेकर छोटे शहरों और गांवों में शोर-शराबा नहीं है
जब हम #MeToo पर बहस कर रहे थे तब राष्ट्रीय राजधानी से करीब 80 किलोमीटर दूर हरियाणा के रोहतक में एक महिला को उसके पति ने सिर्फ इसलिए घर से निकाल दिया कि उसने फेसबुक पर अपनी आईडी बना ली. बिहार के सुपौल स्थित कस्तूरबा स्कूल में छेड़खानी का विरोध करने पर 34 लड़कियों से मारपीट की गई. लेकिन इन मामलों को 'मी टू' से नहीं जोड़ा गया. महिला मामलों के जानकारों का कहना है कि मी टू अगर अमेरिका से 'इंडिया' पहुंचा है तो 'भारत' के गांवों में भी पहुंचेगा. लेकिन इसमें लंबा वक्त लगेगा. (ये भी पढ़ें: पारो की कहानी...ये जानवरों से भी कम दाम में खरीदी-बेची जाती हैं)
हमने रांची, पटना, जमशेदपुर, धनबाद, भागलपुर, गया, आगरा, अलीगढ़, गोरखपुर, वाराणसी, लखनऊ, बरेली, मेरठ, रोहतक, मोहाली, जयपुर और जोधपुर जैसे शहरों में अखबारों के लोकल पेज देखे, कहीं भी 'मी टू' का जिक्र नहीं है. महिलाओं के खिलाफ अपराध को वैसे ही रिपोर्ट किया गया है जैसे पहले किया जाता था. सिर्फ इलाहाबाद में इसे लेकर एक खबर मिली, जिसमें कुछ लड़कियों ने सेक्सुअल हैरासमेंट पर इस अभियान के जरिए चुप्पी तोड़ी है.
उत्पीड़न के खिलाफ कब चुप्पी तोड़ेंगी सभी पीड़ित महिलाएं?
#MeToo को लेकर बड़े शहरों में जितना शोर-शराबा है उतना छोटे शहरों और गांवों में नहीं है. स्थानीय अखबारों में इसे लेकर चर्चा नहीं है. तो क्या शहरों और गांवों का 'मी टू' अलग-अलग है. गरीब और अमीर महिलाओं का 'मी टू' अलग-अलग है? गांवों में प्रताड़ना के हजारों मामलों के बावजूद लड़कियां और महिलाएं इस ग्लोबल अभियान का सहारा क्यों नहीं ले रही हैं? क्या ये सिर्फ बड़े शहरों और अमीर महिलाओं भर का ही अभियान है?
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पीपल अगेंस्ट रेप्स इन इंडिया (परी) मूवमेंट की फाउंडर योगिता भयाना कहती हैं "जब 'मी टू' अमेरिका से होकर इंडिया पहुंच गया तो गांवों में भी पहुंचेगा, क्योंकि वहां शहरों के मुकाबले महिलाओं के खिलाफ अपराध अधिक है. लेकिन ग्रामीण महिलाओं को मुखर होने का मंच अलग होगा. वो सोशल मीडिया नहीं होगा. बुंदेलखंड (बांदा) का गुलाबी गैंग क्या है? इस तरह का मंच होगा तब ग्रामीण महिलाएं अपने साथ हुए अत्याचार, अनाचार पर मुखर होंगी. MeToo वहां लठ्ठ से पहुंचेगा."
'माननीय' भी महिला उत्पीड़न में कम नहीं!
"फिलहाल तो इसका इस्तेमाल बड़े शहरों और टॉप क्लास में ही हो रहा है. अब भी गांवों में औरतें बहुत कुछ सहती हैं, लेकिन मर्दों का कुछ नहीं बिगड़ता. हरियाणा में बाहर से खरीदकर लाई गईं लड़कियों के साथ जितना अत्याचार होता है वो इसका हिस्सा बनना चाहिए, लेकिन वहां का समाज ऐसा नहीं है कि वे मुखर हो सकें. इसलिए अभी इसे गांवों का सफर तय करना है और ऐसा होगा. मुझे विश्वास है."
हालांकि समाजशास्त्री आलोकदीप कहती हैं "महिला की मर्यादा जब भी भंग हो, तुरंत आवाज उठानी चाहिए न कि सालों बाद. 'मी टू' महिलाओं के लिए एक बड़ी उम्मीद है. मुझे लगता है कि यह गांवों तक पहुंचेगा, लेकिन इसमें अभी समय लगेगा. इसके सामाजिक कारण भी हैं. महिलाओं के साथ रोजाना अपराध हो रहा है लेकिन वो चुप हैं."
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समाजशास्त्री एमपी सिंह कहते हैं "#MeToo अभी गांवों तक इसलिए नहीं पहुंचा क्योंकि वहां समाज ऐसा नहीं है कि कोई महिला मुखर हो सके, जबकि वो शहरी महिलाओं के मुकाबले यौन हिंसा का ज्यादा शिकार होती है. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि हालत कितनी खराब है. शहरी मानसिकता, गांव की मानसिकता अलग-अलग है. क्षेत्र के हिसाब से भी सोच बदलती है. अगर कोई गांव या कस्बे की कोई लड़की 'मी टू' के जरिए यह बताती है कि उसका यौन शोषण किया गया है तो वहां के लोग उसके साथ खड़े होने, सहानुभूति रखने की जगह बातें बनाएंगे, उस पर संज्ञाओं का प्रहार शुरू हो जाएगा. उसकी शादी नहीं होने देंगे.”
महिलाओं के खिलाफ मामलों में राज्यवार भागीदारी
सिंह आगे कहते हैं “महिलाओं के ख़िलाफ हिंसा और यौन शोषण होते हुए भी गांवों, कस्बों और छोटे शहरों में 'मी टू' नजर नहीं आ रहा. वहां की लड़कियां हिम्मत नहीं जुटा पा रही हैं. इसलिए मैं मानता हूं कि यह फिलहाल तो बड़े शहरों और बड़े लोगों का अभियान बना हुआ है. पहले शहरों की लड़कियां भी ऐसी आवाज नहीं उठाती थीं. गांवों तक ऐसा माहौल होने में अभी वक्त लगेगा."
(वीडियो पटना ब्यूरो से)
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