रिपोर्ट- अनुज गौतम
सागर. चैत्र नवरात्रि के 9 दिनों में माता आदिशक्ति की नौ रूपों में उपासना की जाती है माता को प्रसन्न करने और अपनी मनोकामना को पूरी करने के लिए भक्तों के द्वारा तरह-तरह के जतन किए जाते हैं नवरात्रि पर सदियों से चली आ रही अलग-अलग तरह की परंपराएं देखने को भी मिलती हैं. इन्हीं में से एक है सामूहिक रूप से जवारा विसर्जन की बुंदेली परंपरा.
बुंदेलखंड में जवारे को लेकर श्रद्धालुओं में गजब की आस्था देखने को मिलती है 9 दिन तक माता रानी की पूजा अर्चना करने के बाद नवमी तिथि को इन का विसर्जन किया जाता है, लेकिन इससे पहले चैत्र नवरात्रि शुरू होते ही अपने पारंपरिक और पुश्तैनी जवारे की खप्पर या घट की स्थापना करवाई जाती है फिर उसी को लेकर अपने देवी मंदिर में उसे अर्पित किया जाता है.
मुंह से त्रिशूल आर पार…
अलग-अलग जगहों पर यह जवारे वही जाते हैं इन जवारों की सेवा करने वालों को पंडा कहा जाता है, इनमें से कई पंडे अपने मुंह से त्रिशूल आर पार करते हैं जिन्हें बाना कहा जाता है यह माता की कृपा ही इनके ऊपर होती है कि यह एक गाल से दूसरे गाल में छेद करके इस बाना को निकाल लेते हैं और घंटों तक उस बाने को ऐसे ही छेद के रखते हैं और कहते हैं कि जो ऐसा कर लेता है उसमें माता का सत्य आ जाता है साथ ही उसकी शरीर के अंदर से सारी रोग बीमारियां दूर हो जाती हैं.
कील से भरी पटरियों पर नाच…
माता में आस्था रखने वाले कुछ लोगों के द्वारा जहां कील से भरी पटरियों पर नाचा जाता है तो वही कुछ भक्तों के द्वारा कटीले हंटर की बौछार खुद पर करवाते हैं. कहीं पर मनोकामना पूर्ण होने पर इस दिन राई नृत्यांगनाओं के द्वारा बधाई नृत्य भी करवाया जाता है. जवारे विसर्जन के दौरान ग्रामीण क्षेत्रों में भारी एकता देखने को मिलती है सभी लोग एक जगह पर एकत्रित होते हैं और फिर एक साथ वे गांव की गलियों से निकलते हुए देवी मंदिर पहुंचते हैं. फिर वहां से उनको किसी तालाब नदी या खेत में ले जाकर विसर्जित करते हैं तो वहीं शहरों में भी लोग देवी मंदिरों में उमड़ते हैं.
जवारी का विसर्जन
जवारा विसर्जन का क्रम नवमी तिथि की सुबह से शुरू होकर देर रात तक और फिर अगले दिन दशमी तिथि को भी दिन भर चलता रहता है. कई लोग 9 वें दिन तो कई लोग 10वें इन जवारी का विसर्जन करते हैं. चैत्र नवरात्रि में जवारे का ही विशेष महत्व होता है सनातन प्रेमियों के हर घर से इसकी कहीं ना कहीं स्थापना करवाई जाती है और फिर अपनी कुलदेवी, कुलदेवता या माता मंदिरों में जाकर इसे अर्पित करते हैं.
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