उत्तराखंड के बागेश्वर की कत्यूर घाटी में स्थित कोट भ्रामरी मंदिर को नवरात्रि पर्व के लिए विशेष तौर से सजाया गया है.इस मंदिर की खास बात यह है कि मां शक्ति के इस रूप के दर्शन सीधे तौर पर संभव नहीं हैं. कोट भ्रामरी देवी के मंदिर में मां दुर्गा श्रद्धालुओं की तरफ पीठ करके विराजमान है. दर्पण के माध्यम से ही माता के दर्शन संभव होते है.
रिपोर्ट : सुष्मिता थापा
बागेश्वर. उत्तराखंड के बागेश्वर की कत्यूर घाटी में स्थित कोट भ्रामरी मंदिर को नवरात्रि पर्व के लिए विशेष तौर से सजाया गया है. माता के जयकारों के साथ श्रद्धालु सुबह से ही मंदिर में देवी मां के दर्शन के लिए पहुंच रहे है. माता के दरबार में श्रद्धालुओं की लंबी-लंबी कतारें लग रही है. यह शक्तिपीठ श्रद्धालुओं की अटूट आस्था का केंद्र है. इसका पौराणिक और ऐतिहासिक महत्व है. मां नंदा सुनंदा के इस धार्मिक केंद्र में हर साल चैत्राष्टमी को विशाल मेला लगता है. इस दौरान श्रद्धालुओं की तरफ से विशेष पूजा-अर्चना की जाती है. मां दुर्गा यहां भंवरे के रूप में विराजमान है.
इस मंदिर की खास बात यह है कि मां शक्ति के इस रूप के दर्शन सीधे तौर पर संभव नहीं हैं. कोट भ्रामरी देवी के मंदिर में मां दुर्गा श्रद्धालुओं की तरफ पीठ करके विराजमान है. दर्पण के माध्यम से ही माता के दर्शन संभव होते हैं. प्रत्येक 12 वर्षों में केवल एक बार इस शक्तिपीठ पर मां भ्रामरी देवी के सीधे दर्शन किए जा सकते है. मंदिर का पौराणिक और ऐतिहासिक महत्व है. यह मंदिर इस लिहाज़ से महत्वपूर्ण है कि यहां पर कत्यूरियों की कुलदेवी भ्रामरी और चन्दों की कुलदेवी नंदा की सामूहिक पूजा-अर्चना की जाती है.
असुर के संहार के लिए माता ने धारण किया था भंवरे का रूप
इस प्राचीन कोट भ्रामरी देवी मंदिर का निर्माण कब और किसने करवाया, यह आज तक एक रहस्य बना हुआ है. इस पर भी कई कहानीयां प्रचलित हैं. बताया जाता है कि कत्यूर घाटी में एक समय अरुण नामक असुर का प्रकोप था. उसको वरदान प्राप्त था कि न उसको कोई देवता मार सकता है और न ही कोई मनुष्य उसको मारा जा सकता है. उसका अत्याचार लगातार बढ़ता ही जा रहा था. आखिर में उसका संहार करने के लिए भगवती मां ने भंवरे का रूप धारण कर दैत्य का वध करके लोगों को उसके भय से मुक्ति दिलाई, इसलिए यहां भगवती मां की भ्रामरी रूप में पूजा होती है.
कुमाऊं-गढ़वाल की देवी भी कहा जाता है
बागेश्वर और चमोली के मध्य गरुड़ के डंगोली में स्थित इस देवी मंदिर में कुमाऊं और गढ़वाल क्षेत्र के कुल देवी के रुप में भी पूजी जाती है, इसलिए इस मंदिर को गढ़-कूमो की देवी अर्थात गढ़वाल और कुमाऊं की देवी भी कहा जाता है. यहां गढ़वाल-कुमाऊं सहित महानगरों और विदेशों से श्रद्धालुओं की भीड़ हमेशा लगी रहती है और चैत्र नवरात्र पर विशेष रुप से यहां मेला भी लगता है, जिसमे हजारों की संख्या में भक्त पहुंचते हैं.
मंदिर की स्थापना भी एक रहस्य
स्थानीय लोक मान्यताओं के अनुसार, कत्यूरी राजाओं की कुलदेवी भ्रामरी और चंद राजाओं की नंदा देवी हैं. मंदिर में भ्रामरी रूप में देवी की पूजा की जाती है. भ्रामरी रूप में मां दुर्गा मूर्ति के रूप में नहीं, बल्कि मूल शक्ति के रूप में हैं. एक समय चंद शासक नंदा की शिला लेकर गढ़वाल से अल्मोड़ा निकले, तो रात में विश्राम के लिए यहां रुके. अगले दिन सेवकों ने शिला उठानी चाही, लेकिन वह उनसे हिल तक न सकी. सभी हताश निराश होकर बैठ गए. तब किसी ने राजा को सलाह दी कि देवी का मन इस स्थान पर रम गया है, वह यहीं रहना चाहती हैं. आप इसकी यहीं पर स्थापना कर दें. तब वहीं पर उसकी प्रतिष्ठा करवा दी गई.
दोनों देवियों के लगते है अलग-अलग मेले
यहां भगवती मां भ्रामरी देवी का मेला चैत्र मास की शुक्ल अष्टमी को आयोजित होता है, जबकि मां नंदा का मेला भाद्र मास की शुक्ल अष्टमी को लगता है. मान्यता है कि इस दौरान श्रद्धालुओं की तरफ से विशेष पूजा-अर्चना करने पर मां भगवती और नंदा भक्तों की सारी मन्नतें पूरी करती हैं.
(NOTE: इस खबर में दी गई सभी जानकारियां और तथ्य मान्यताओं के आधार पर हैं. NEWS18 LOCAL किसी भी तथ्य की पुष्टि नहीं करता है.)
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