मुंबईः नसीरुद्दीन शाह (Naseeruddin Shah) की "अ वेडनेसडे (A Wednesday)" हिंदी फिल्म के दर्शकों के मन में छपी हुई है. एक आम इंसान जब व्यवस्था से तंग आ जाता है और उसे किसी तरह की कोई मदद नहीं मिलती तो वो स्वयं हथियार उठाने पर मजबूर हो जाता है. बेहरी व्यवस्था को सुनाने के लिए धमाके की जरूरत होती ही है. रंग दे बसंती, शाहिद, मदारी, पान सिंह तोमर, और यहां तक कि कोर्टरूम ड्रामा पिंक और मुल्क भी एक आम इंसान की सड़ी गली व्यवस्था और समाज के खिलाफ विद्रोह की कहानी है. कई फिल्में हैं जो इस तर्ज़ पर बनी हैं, लेकिन इन सब में एक नया नाम जोड़ा जाना चाहिए - कन्नड़ फिल्म "एक्ट 1978 (Act 1978)" का.
एक सरकारी दफ्तर की लाल फीताशाही से परेशान गीता (यगना शेट्टी) अपने एक बुजुर्ग साथी शरणप्पा (बी. सुरेश) के साथ उस ऑफिस में घुस कर बन्दूक और कमर पर बंधे बम की मदद से पूरे ऑफिस को बंधक बना लेती है. एक योग्य पुलिस अफसर को इस केस को सुलझाने का काम दिया जाता है जिसे धीमे धीमे ये एहसास होता है कि गलती सरकारी दफ्तर में काम करने वाले घूसखोर कर्मचारियों की है. अपने पति की मौत के बाद गर्भवती गीता, मुआवजे के लिए सरकारी ऑफिस में कामचोर कर्मचारियों के व्यवहार, उनकी घूसखोरी और उनकी काम टालने के नए नए तरीकों से त्रस्त हो कर, सभी को बंधक बना लेती है. परत दर परत पूरा मसला सामने आता है, राजनेता और सरकार के लोग, स्पेशल फोर्स और स्थानीय पुलिस इस केस को सुलझाने में पूरा दम लगा देते हैं.
आखिर में जो होता है, उस क्लाइमेक्स तक पहुंचने में ये फिल्म एक ऐसा सोशल मैसेज दे जाती है जो सभी सरकारी नौकरों को आत्म-मंथन करने पर मजबूर कर देता है. फिल्म की रफ़्तार थोड़ी धीमी है मगर लेखक मंजूनाथ सोमशेखर रेड्डी, दयानन्द और वीरेंद्र मल्लना ने फिल्म को बांध कर रखा है. गांधीवादी तरीके से सत्याग्रह करता एक शख्स फिल्म में रखा गया है जिसके पास कोई डायलॉग नहीं हैं, मगर उसका प्रभाव गांधी के समान ही है. ऑफिस में काम करने वाले प्यून, छोटे बाबू, ,बड़े बाबू, ब्रांच मैनेजर, विधायक और यहां तक कि बम सप्लाई करने वाले का किरदार भी महत्वपूर्ण है. कहानी लिखते वक़्त इस बात का ध्यान रखा गया है कि कोई अविश्वसनीय बात या सीन न हो, कोई फालतू हीरोइज़्म नहीं हो, कोई ऐसा स्टंट या डायलॉग नहीं है जो आम आदमी बोलता न हो.
रीयलिस्टिक स्क्रिप्ट और स्वाद के अनुसार ड्रामा रखते हुए, एक बहुत ही मजबूत फिल्म लिखी गयी है. कन्नड़ सिविल सर्विसेज एक्ट 1978 का रिफरेन्स लेकर इस ड्रामा को रचा गया है. सरकार के कानूनी सलाहकार, महिला आयोग, मीडियाकर्मी और पुलिस वाले, एक ही घटना को अलग अलग नज़र से कैसे देखते हैं, ये इस फिल्म की सबसे बड़ी ताक़त है.
यगना शेट्टी ने सिर्फ दिखने में सुन्दर हैं, बल्कि अत्यंत प्रतिभाशाली भी हैं. पूरी फिल्म उन्होंने अपने कांधों पर खींची है. एक गर्भवती महिला का किरदार बखूबी निभाया है. उनके चेहरे का फ़्रस्ट्रेशन, हम सबने कभी न कभी महसूस किया है. उनकी बेचारगी, साफ नजर आती है. इतना बड़ा गैर कानूनी कदम उठाने के पहले उनकी सोच भी बड़ी ही संयत तरीके से दिखाई गयी है. एक आम आदमी कभी कोई ऐसा कदम बिना मदद के नहीं उठा सकता और इसलिए पटकथा लेखकों को बहुत बारीकी से सोच कर दृश्य लिखने की बधाई दी जानी चाहिए. छोटे से छोटे रोल का अपना महत्त्व है और उसके लिए एक्टर भी एकदम माकूल चुने हैं.
फ़िल्म के निर्देशक का नाम मासो रे हैं जो की लेखक मंजूनाथ सोमशेखर रेड्डी का ही निक नेम है. एक्ट 1978 से पहले उन्होंने नतिचरामि और और हरिवू (सर्वश्रेष्ठ कन्नड़ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार) नाम की दो फिल्में निर्देशित की हैं और कई पुरस्कार भी जीते हैं. असाधारण कहानियों पर फिल्म बनाना उन्हें पसंद हैं. एक्ट 1978, सरकारी ऑफिसेस के उनके निजी अनुभवों से प्रेरित है. तारीफ के योग्य हैं फिल्म के सिनेमेटोग्राफर सत्य हेगड़े, जिन्होंने सरकारी ऑफिस जैसी ही बिल्डिंग में शूटिंग की और एक एक कोने का इस्तेमाल बखूबी किया. एडिटर नागेंद्र ने जान बूझ का फिल्म की गति कम ही रखी है. कुछ दृश्यों में तो आँखों में आंसू रोकना मुश्किल हो जाता हैं.
लॉकडाउन खुलने के बाद सिनेमा हॉल में रिलीज होने वाले पहली कन्नड़ फिल्म थी एक्ट 1978 जो अब अमेज़ॉन प्राइम वीडियो पर देखी जा सकती है. एक असाधारण थ्रिलर है. कोई जादू नहीं है, कोई फालतू का हीरोइक एक्ट नहीं है, कोई असंभव घटना नहीं है, कोई अजीब वाकया नहीं है. इस फिल्म को देखा जाना चाहिए. सबटाइटल अंग्रेजी में हैं. भाषा की मोहताज नहीं है ये फिल्म.undefined
डिटेल्ड रेटिंग
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FIRST PUBLISHED : April 25, 2021, 13:59 IST