सरपट्टा पराम्बरायी कहानी एक बॉक्सर की है जो अपने कोच का अपमान होते देख कर विरोधी दल के बॉक्सर को हराने की चुनौती देता है.(फोटो साभारः इंस्टाग्रामः Amaonprimevideo)
अमेज़ॉन प्राइम (Amazon Prime) ने हाल ही में फरहान अख्तर (Farhan Akhtar) की बॉक्सिंग पर आधारित "तूफ़ान (Toofaan)" रिलीज़ की थी और अब त्तमिल भाषा की फिल्म "सरपट्टा पराम्बरायी" को दर्शकों के लिए रिलीज़ किया है जो कि 1970-80 के दशक में उत्तरी चेन्नई के "बॉक्सिंग" के कल्चर की झलक दिखाती है और साथ ही एक मर्मस्पर्शी कहानी के माध्यम से आर्थिक और जातीय विसंगतियों को छूने का प्रयास करती है. निर्देशक पीए रंजीत ज़्यादा पुराने निर्देशक नहीं हैं, लेकिन सामाजिक विसंगतियों, जाति समीकरण, राजनैतिक परिस्थितयों और आम जन को होने वाली समस्याओं को अपनी फिल्म में मुख्य थीम से जोड़ते हैं और सांकेतिक ढंग से इन समस्याओं को उठाते हैं. रंजीत की फिल्म को देखते समय थोड़ा ध्यान देना पड़ता है क्योंकि उनकी फिल्म में छिपे हुए अर्थ उन्हें बाकी फिल्मकारों से अलग बनाते हैं.
पराम्बरायी का अर्थ होता है कुल और सरपट्टा का अर्थ होता है, 4 छुरियां. यूं कहें कि ब्रूस ली या जैकी चैन की फिल्मों में जैसे मार्शल आर्ट स्कूल हुआ करते थे और वर्चस्व की लड़ाई में वो लोग आपस में टूर्नामेंट आयोजित किया करते थे, ये फिल्म उसी तर्ज़ पर सत्तर और अस्सी के दशक के चेन्नई में प्रचलित बॉक्सिंग क्लब्स या पराम्बरायी को दिखाती है. फिल्म काफी लम्बी है लेकिन एक भटकाव के बाद फिल्म फिर से बॉक्सिंग पर लौट आती है. मूल कहानी एक बॉक्सर की है जो अपने कोच का अपमान होते देख कर विरोधी दल के बॉक्सर को हराने की चुनौती देता है और लगभग जीत भी जाता है, जिसके बाद उसके कदम डगमगा जाते हैं और वो गलत रास्ते पर चल पड़ता है. कोच से स्वीकृति पाने की ख्वाहिश में वो फिर उस गर्त से निकल कर सफलता अर्जित करता है. तूफ़ान की भी कहानी कमोबेश ऐसी ही थी लेकिन सरपट्टा में जो कमाल की बातें हैं वो इस फिल्म के सब-प्लॉट्स हैं.
शुरुआत कोच रंगन वाथियार (पशुपति) के सब -प्लॉट से करते हैं. वैसे तो कहानी में मोटिवेशन इन्हीं की वजह से आता है लेकिन ये एक सख्त और लगभग खड़ूस किस्म के कोच बने हैं. अपने बेटे को भी मुकाबले में नहीं उतरने देते क्योंकि विरोधी से लड़ने की तकनीक उसे नहीं आती. तमिलनाडु की राजनीति समझने वाले और राष्ट्रीय राजनीति में तमिलनाडु का महत्त्व समझने वाले अन्नादुरई और करूणानिधि की पार्टी "द्रविड़ मुनेत्र कषगम" को भलीभांति जानते हैं. 70 के दशक में तो करूणानिधि ने पूरे देश की राजनीति को प्रभावित किया हुआ था. तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने तमिलनाडु की ताजनीति को अपने तरीके से चलाने की भरपूर कोशिश की लेकिन जनता की ताक़त का अंदाजा उन्हें देर से लगा. आज भी डीएमके तीसरी सबसे बड़ी पार्टी है. फिल्म में रंगन इसी डीएमके के एक प्रमुख नेता है, करूणानिधि को अपना नेता मानते हैं और आगे चल कर इस राजनीति की वजह से जेल भी जाते हैं.
रंगन के बेटे वेट्रिसेलवन (कलैयारसन) की भूमिका महती है. उनके पिता उन्हें तकनीक की कमी की वजह से विरोधी मुक्केबाज़ से लड़ने के लिए मना कर देते हैं और पिता द्वारा की गयी सार्वजनिक बेइज़्ज़ती और बीवी के तानों की वजह से वो अवैध शराब की भट्टियां चलाने लगता है. मूलतः अच्छा आदमी होने की वजह से उसे अंत में अपनी गलती का एहसास हो जाता है. इसकी स्टोरी में पिता विरोध के स्वर के तौर पर करूणानिधि के एक समय सहयोगी रहे सुपरस्टार एमजी रामचंद्रन (जिन्होंने डीएमके छोड़ कर अपनी पार्टी बना ली थी) का समर्थक होने की छोटी सी घटना दिखाई है. रंगन स्वयं जेल से लौटने पर अपने घर में एमजीआर की तस्वीर देख कर दुखी हो जाते हैं. इस दृश्य में काफी सारे मतलब निकल कर आते हैं.
रंजीत की फिल्म में महिलाओं को बड़ी प्राथमिकता दी गयी है. उनके किरदार छोटे हैं और सबसे ज़्यादा प्रभावशाली हैं. कबीलन (आर्या) की माँ की भूमिका निभाई है अनुपमा कुमार ने. विज्ञापन फिल्म्स और तमिल फिल्मों में चरित्र अभिनेत्री के तौर पर काम करने वाली अनुपमा के क्लोज अप शॉट्स नहीं के बराबर हैं लेकिन उनकी डायलॉग डिलीवरी, उनके चेहरे के एक्सप्रेशन और बॉडी लैंग्वेज उनका महत्त्व दिखा देती हैं. अपने पति को बॉक्सर से एक मवाली बनते देखना और फिर दूसरे गुंडों द्वारा उसकी हत्या होते देखना, किसी भी स्त्री के लिए कठिन होता है. संघर्षों से भरे जीवन में अपने बेटे को भी बॉक्सिंग के शौक़ से बचने की असफल कोशिश, उसका गलत राह पर चलना और फिर आखिर में उसे माफ़ कर के उसकी प्रेरणा बनना. रोल में कई खूबियाँ थीं.
कबीलन की पत्नी मरियम्मा के किरदार में दुशारा विजयन को लिया गया है. इस किरदार में अभिनय का इंद्रधनुष दिखाने का अवसर था. फैशन मॉडल के तौर पर अपना करियर शुरू करने वाली दुशारा ने इस फिल्म में एक गाँव की लड़की का किरदार निभाया है. ग्लैमर नहीं के बराबर था. ऑडिशन में उन्हें पूरी ताक़त से तमिल में चिल्ला चिल्ला कर बात करनी थी और वो फिल्म तक क्या खूब चिल्लाई हैं. फिल्म में एक छुईमुई सी लड़की के तौर पर उनकी एंट्री होती है, सुहाग रात में वो अपने पति के सामने "बाराती" वाला डांस कर के दिखाती है. धीरे धीरे अपनी सास की तरह, पूरे घर के काम संभाल लेती हैं लेकिन अपने पति से बहस करने में नहीं चूकती. जब वो उसे छोड़ के बॉक्सिंग करने जाता है तब भी, जब वो शराबी हो जाता है तब भी, जब वो फिर से बॉक्सिंग करने का सोचता है तब भी, अपनी बीवी की बातों की कुनैन उसे मिलती रहती है. एक दृश्य में शराब में धुत्त पति की गुंडों से रक्षा करने हाथापाई करती है और फिर अचानक टूट के रोने लगती है. मरियम्मा का किरदार लेखक ने फुर्सत में रचा और इसलिए उसके किरदार में कई सारे पहलू हैं.
फिल्म में कुछ और महत्वपूर्ण किरदार हैं जो कि फिल्म को नए आयाम देते हैं. शब्बीर कल्लारक्कल ने एक अलग तरह के बॉक्सर “डांसिंग रोज़” की छोटी लेकिन बहुत बढ़िया भूमिका निभाई है. शुरू में ये कोच रंगन को ताने मारते रहते हैं लेकिन जब बॉक्सिंग रिंग में आ कर अपनी बॉक्सर बॉडी दिखाते हैं और डांस की स्टाइल में बॉक्सिंग करते हैं, देखने वालों को थोड़ा मज़ा आ जाता है. कबीलन के पिता के मित्र केविन उर्फ़ डैडी की भूमिका में जॉन विजय ने फिल्म को सीरियस होने से बचाये रखा और हलके फुल्के क्षणों से दर्शकों को थोड़ी मुस्कराहट उधार दी. फिल्म के प्रमुख विलन विरोधी कोच रमन (संतोष) और कबीलन के प्रतिद्वंद्वी वेम्बुली (जॉन कोकन) का अभिनय ठीक ठाक है. हालाँकि फिल्म में ये किरदार प्रमुखता से दिखाए हैं, निर्देशक इन्हें फ़िल्मी होने से बचा नहीं पाया.
फिल्म एक जगह रास्ते से भटक जाती है. कबीलन और वेम्बुली की फाइट के दौरान पुलिस आ जाती है और इंदिरा गाँधी के तमिलनाडु की सरकार भंग करने के फैसले के चलते कोच रंगन को गिरफ्तार कर के ले जाती है. इसके बाद, कोच रंगन का बेटा वेट्रिसेलवन अपने पिता से नाराज़ हो कर अवैध शराब का धंधा करने लगता है और कबीलन के बाहुबल का इस्तेमाल कर के छोटे मोटे सभी अड्डों पर कब्ज़ा कर लेता है और धीरे धीरे कबीलन को देशी शराब पीने का आदी बना देता है. कबीलन को क्लाइमेक्स में वेम्बुली से बड़ी फाइट करनी ही थी तो निर्देशक अगर कबीलन का रास्ते से भटकना और अपनी ज़िन्दगी तबाही के रस्ते पर ले जाना ना दिखाते तो शायद फिल्म का अंत कर पाना मुश्किल होता लेकिन समस्या ये रही कि ये हिस्सा कुछ ज़्यादा ही लम्बा हो गया. तीन घंटे की फिल्म में ये 30 मिनिट का हिस्सा मिसफिट लगता है.
फिल्म के हीरो कबीलन हैं आर्या जिन्होंने करीब 7 महीने रोज़ाना 6 घंटे पसीना बहा कर एक बॉक्सर की बॉडी बनायी. थोड़ा उनकी बॉक्सिंग स्टाइल में कमी नज़र आती है क्योंकि उनके पंच इतने शक्तिशाली जान नहीं पड़ते. एक्शन कोरियोग्राफी में बॉक्सिंग मैचेस में थोड़ा और बेहतर काम की गुंजाईश थी. फिल्म में मोहम्मद अली का ज़िक्र बार बार हुआ है और एक बार स्वयं मोहम्मद अली चेन्नई आये थे और एमजी रामचंद्रन के साथ उनकी कई तस्व्वीरें चेन्नई के बॉक्सिंग कल्चर का सबूत हैं. फिल्म में संगीत संतोष नारायणन का है और इसी वजह से एक दो गानों की जगह बना कर फिल्म में लगातार एक्शन सीन्स के बीच में ब्रेक दिया गया है, इसकी ज़रूरत थी नहीं मगर नाच गाना हमारी फिल्मों में होता है. सिनेमेटोग्राफर मुरली की निर्देशक रंजीत के साथ लगातार चौथी फिल्म है. फ्रेमिंग के साथ साथ कैमरा मूवमेंट पर मुरली साधिकार काम करते हैं और वो फिल्म की भाषा में बहुत बहुत महत्वपूर्ण होता है. एडिटिंग सेल्वा आरके की ज़िम्मेदारी है और वो उन्होंने कहानी के मद्देनज़र बखूबी निभाई है. क्या फिल्म छोटी हो सकती थी, लगता तो नहीं है. तमिल प्रभा और पीए रंजीत की कहानी को एडिट कर पाना मुश्किल काम होता.
फिल्म में कई कमाल के दृश्य हैं. तूफ़ान के फिल्मीपन से अगर आप दुखी हैं और सही मायने में बॉक्सिंग पर एक बढ़िया फिल्म देखना चाहते हैं तो सरपट्टा पराम्बरायी देखिये. वीकेंड पर देखेंगे तो लम्बी होने के बावजूद देखी जा सकेगी. लगता तो है कि इस फिल्म के बाद स्पोर्ट्स ड्रामा की फिल्में थोड़ी बेहतर बन सकेंगी और स्पोर्ट्स स्टोरी में हीरो के मोटिवेशन के तरीकों में या उनकी बैक स्टोरी में कुछ परिवर्तन सकेगा.
कहानी | : | /5 |
स्क्रिनप्ल | : | /5 |
डायरेक्शन | : | /5 |
संगीत | : | /5 |
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