#HumanStory: क्या होता है जेल की सलाखों के पीछे, रिटायर्ड जेल अधीक्षक की आपबीती
पहली दफा यूं ही तफरीह के जेल पहुंचा. तब जेल का एक अफसर दोस्त हुआ करता था. सुबह का वक्त. सारे कैदी बाहर थे. एक से नजरें मिलीं. लगा जैसे दुनिया का सबसे खतरनाक डाकू सामने हो. मैं सहम गया. फिर तो जहां देखता, हर चेहरे पर मुझे डाकू और हत्यारे नजर आते. अपराध साहित्य खूब पढ़ा करता. दोस्त थोड़ा और घुमाना चाहता था लेकिन मैं बुरी तरह से डरा हुआ था. बाहर आया तो मानो जान बची.
- News18Hindi
- Last Updated: July 4, 2019, 3:58 PM IST
पत्नी के हत्यारे, गुदगुदे गालों वाली नन्ही बच्ची का बलात्कारी, पैसों के लिए मां-बाप का गला मरोड़ने वाले- जेल में ऐसे कितने ही अपराधी होते हैं. कई छुटपुट जुर्म करने वाले, तो कुछ निर्दोष भी होते हैं. कैदी आते हैं- जाते हैं. लेकिन जेलर की जिंदगी उन्हीं दीवारों में कैद रहती है. कभी सोचा है- हरदम खूंखार कैदियों के बीच रहते जेलर के दिमाग में क्या चलता है!
जानने के लिए पढ़ें, रिटायर्ड 'सीनियर जेल अधीक्षक डॉ सेवा राम सिंह' को.
जेल का तसव्वुर करें तो अंधेरी तंग कोठियां और बात-बात पर दूसरे का गला काटने को तैयार कैदी नजर आते हैं. ये राजे-महाराजे के वक्त की बात रही होगी. तब किले के तहखाने में जेल होती. रौशनी और धूप का टुकड़ा भी नहीं पहुंचता था. अंग्रेजी हुकूमत ने सबसे पहले जेल का नक्शा बदला. अब रिहायशी इलाकों में भले अंधेरा रहे लेकिन जेल के भीतर से मौसम के मिजाज खूब नजर आते हैं. दीवारों पर रंग-रोगन होता है. अहाते में हरी-ताजी सब्जियां होती हैं.
देश की कई नई जेलें देखें तो वो खुले- खूबसूरत मकान जैसी लगेंगी. ऐसी ही एक जेल से मेरा काम शुरू हुआ.तब 38 का था. बीडीओ (खंड विकास अधिकारी) की कुर्सी पर लगभग 6 साल बिता चुका था. दिल में दुनिया बदलने की ख्वाहिश. पढ़ता-लिखता था. सुना था कि कैसे पश्चिमी दार्शनिक मिलिट्री में जाते हैं और एकदम से सबकुछ बदल देते हैं. मैं भी दर्शन पढ़ता और अब वर्दी भी पहने हुए था. कैदियों से कभी राब्ता नहीं पड़ा था. मान चुका था कि अंदर बंद सब के सब दुनिया और इंसानियत से नफरत करते होंगे. भीतर गया तो कुछ और ही जाना.

कैदी भी उतने ही इंसान होते हैं, जितने बाहर खुले में घूमने वाले लोग. उन्हें भी तकलीफ होती है, आंसू बहते हैं, गुस्सा आता है. वे भी वो सबकुछ महसूस करते हैं जो जेल की बजाए घरों में रहते लोग.
वे जुर्म देखकर तय करते हैं कि नए कैदी के साथ कैसे रहना है. रेप के बंदियों से हत्या करने वाले कैदी भी खराब व्यवहार करते हैं. वो मानते हैं कि इससे बुरा कोई काम नहीं. ऐसा इसलिए भी है क्योंकि लगभग 80 प्रतिशत कैदी आवेश में वारदात कर जाते हैं. कई निर्दोष भी होते हैं. उन्हें रेपिस्ट को देखकर अपने परिवार के लिए डर लगता है. जेल में ऐसे मामले भी होते हैं, जब बाकी कैदियों ने बलात्कारियों को पीट दिया.
कई कैदी डिप्रेशन में रहते हैं. खुदकुशी करना चाहते हैं. ऐसे लोगों का खास ख्याल रखना होता है. अगर वे जूते पहनते हैं तो सबसे पहले उनके जूतों से लेस निकलवा देते हैं.
ध्यान रखते हैं कि कपड़ों में नाड़े न हों. कैदी का गमछा, लुंगी ले ली जाती है. डिप्रेशन के कैदियों को संभालना आसान नहीं. अस्पताल वाले अक्सर उन्हें किसी न किसी बहाने से जेल भेज देते हैं. तब जेल में ही उनकी दवा और खानपान देखना होता है. आवेश में हत्या करके पहुंचे कैदी अक्सर डिप्रेशन में खुद को नुकसान पहुंचाने की सोचते हैं. ऐसे लोगों को देखकर मन बड़ा परेशान होता है लेकिन आखिरकार वे हैं तो कैदी ही.

जेल के भीतर की दुनिया भी बाहरी दुनिया से अलग नहीं. लड़ाई-झगड़े, साजिशें होती हैं तो कई दिलचस्प वाकये भी होते हैं.
ऐसे ही एक सोमवारी परेड में एक कैदी सामने आया. उसे शिकायत थी कि साहब, जेल में नहाने को पानी नहीं जुटता है. वो बस कंडक्टर था. शिकायत थोड़े खराब लहजे में की गई थी. मैं भड़क उठा. पूछा कि तुम जब बस चलाते थे तो कितनी दफे नहाते थे! फिर मुझे एक तरीका सूझा. जेल में साग-भाजी के लिए गार्डन होता है, जिसे हम बगिया कहते.
मैंने उसकी ड्यूटी बगिया में लगा दी. उससे कहा- वहां ट्यूबवेल चलता है. तुम भाजियां भी उगाना और चाहे जितना नहाना.
अगली रोज राउंड पर था. देखा कि वही कंडक्टर छोटी-सी निकर में खुले बदन बगिया में बैठा है. पास ही एक सिपाही खड़ा था. मैंने मामला पूछा तो उसने बताया कि सर, ये मरने की कोशिश कर रहा था. वहीं खुसपुसाते हुए नंबरदार ने कुछ और ही बताया. दरअसल सिपाही उससे पैसे ऐंठने की कोशिश में था और न देने पर ये सजा दी थी. मैं तुरंत वापस लौटा और कंडक्टर की सजा वापस ले ली. वक्त पर ध्यान देने पर बंदी बेवजह की तकलीफ से बच जाते हैं.
हमारा काम है बंदियों की जायज जरूरतें पूरी करना. परिजन आएं तो ढंग से मुलाकात हो जाए. कुछ खाने-पीने का पहुंचे तो बिना घालमेल उन तक पहुंचा देना. ख्याल रखना कि कोई कैदी, दूसरे कैदी से बदतमीजी न करे. कोई सिपाही या अफसर कैदियों से खराब तरीके से बात न करे. इसके लिए हम हर सोमवार परेड कराते. यहां कैदी अपने दुख-सुख बांटते. जरूरतें बताते. कोई बीमार होता तो उसका अलग इंतजाम किया जाता. कोई तकलीफ में होता तो उसे समझाते-बुझाते. 24 साल जेल को दिए.
एक मायने में वो हमारा घर हो चुका था, जिसमें बस रहने वालों के चेहरे बदलते रहते थे.

जेल अधीक्षक रहते हुए एक बार जौनपुर जेल में मेरा तबादला हुआ. बहुत ही बिगड़ी हुई जेल. वहां कोई नियम-कायदा नहीं था.
400 बंदी रहे होंगे, उनमें से आधे अपना खाना अलग बनाया करते. जब मन चाहे, बाहरवालों से मुलाकात करते. बैरक के भीतर भी अपनी मर्जी से आया-जाया करते. अब मेरा काम जेल में अनुशासन लौटाना था. जॉइनिंग लेते ही सबसे पहले कुछ अच्छे और जांबाज सिपाही बुलाए. इसके बाद कैदियों को आश्वासन दिया कि खाना आप अलग मत बनाएं. जेल की रसोई में ही इतना बढ़िया खाना बनेगा कि आपको अलग बनाने की जरूरत नहीं पड़ेगी. हेड-क्वार्टर से इजाजत ली. बदल-बदलकर सब्जियां आने लगीं. सब साथ में खाने लगे. समय पर खुलने-बंद होने लगे. मुझे लगा कि सब ठीक हो रहा है लेकिन उनमें अंदर ही अंदर गुस्सा भर रहा था. एक रोज अदालत से लौटते हुए कैदी बोरियां भर-भरकर राशन लेते आए. मैंने ठान लिया कि राशन तो आज भीतर नहीं आएगा. सारे सिपाही साथ आ गए.
जेल का माहौल उस दिन एकदम कबड्डी ग्राउंड जैसा हो गया था. एक ओर कैदी, जो हमसे कई गुना थे. दूसरी तरफ थोड़े से पुलिसवाले.
कैदियों के चेहरे पर इतना गुस्सा था कि सिपाही पीछे हटने लगे. अब मैंने सिपाहियों को ललकारा. कुछ सिपाहियों में थोड़ा जोश आया. वे लाठी-डंडे लेकर आगे बढ़े. अब कैदी बैरक की ओर लपके और बंद हो गए. उसके बाद कई दिनों तक जेल में शांति रही. हम सबने मान लिया कि बिगड़ैल कैदी अब सुधर चुके हैं. लेकिन यहीं मैं गलत था. एक रोज कैदियों ने चुपके से मेरे सबसे जांबाज सिपाही को बुलाया. सुबह का वक्त था, सारे कैदी खुले हुए थे. सिपाही जैसे ही पहुंचा, चार-पांच लोगों ने मिलकर ईंटें मार-मारकर उसकी जान ले ली. इसके बाद भी कैदी शांत नहीं बैठे. जिंदाबाद -मुर्दाबाद के नारे लगने लगे. हमपर ईंट-पत्थर बरसने लगे. बड़ी मुश्किल से हालात काबू में आ सके.
उस सिपाही की मौत मेरे जेल जीवन के कुछ बेहद दर्दनाक हादसों में से है. बाद के दिनों में उसकी जांबाजी मुझे अक्सर याद आती.
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जानने के लिए पढ़ें, रिटायर्ड 'सीनियर जेल अधीक्षक डॉ सेवा राम सिंह' को.
जेल का तसव्वुर करें तो अंधेरी तंग कोठियां और बात-बात पर दूसरे का गला काटने को तैयार कैदी नजर आते हैं. ये राजे-महाराजे के वक्त की बात रही होगी. तब किले के तहखाने में जेल होती. रौशनी और धूप का टुकड़ा भी नहीं पहुंचता था. अंग्रेजी हुकूमत ने सबसे पहले जेल का नक्शा बदला. अब रिहायशी इलाकों में भले अंधेरा रहे लेकिन जेल के भीतर से मौसम के मिजाज खूब नजर आते हैं. दीवारों पर रंग-रोगन होता है. अहाते में हरी-ताजी सब्जियां होती हैं.
देश की कई नई जेलें देखें तो वो खुले- खूबसूरत मकान जैसी लगेंगी. ऐसी ही एक जेल से मेरा काम शुरू हुआ.तब 38 का था. बीडीओ (खंड विकास अधिकारी) की कुर्सी पर लगभग 6 साल बिता चुका था. दिल में दुनिया बदलने की ख्वाहिश. पढ़ता-लिखता था. सुना था कि कैसे पश्चिमी दार्शनिक मिलिट्री में जाते हैं और एकदम से सबकुछ बदल देते हैं. मैं भी दर्शन पढ़ता और अब वर्दी भी पहने हुए था. कैदियों से कभी राब्ता नहीं पड़ा था. मान चुका था कि अंदर बंद सब के सब दुनिया और इंसानियत से नफरत करते होंगे. भीतर गया तो कुछ और ही जाना.

कैदी भी उतने ही इंसान होते हैं, जितने बाहर खुले में घूमने वाले (प्रतीकात्मक फोटो)
कैदी भी उतने ही इंसान होते हैं, जितने बाहर खुले में घूमने वाले लोग. उन्हें भी तकलीफ होती है, आंसू बहते हैं, गुस्सा आता है. वे भी वो सबकुछ महसूस करते हैं जो जेल की बजाए घरों में रहते लोग.
वे जुर्म देखकर तय करते हैं कि नए कैदी के साथ कैसे रहना है. रेप के बंदियों से हत्या करने वाले कैदी भी खराब व्यवहार करते हैं. वो मानते हैं कि इससे बुरा कोई काम नहीं. ऐसा इसलिए भी है क्योंकि लगभग 80 प्रतिशत कैदी आवेश में वारदात कर जाते हैं. कई निर्दोष भी होते हैं. उन्हें रेपिस्ट को देखकर अपने परिवार के लिए डर लगता है. जेल में ऐसे मामले भी होते हैं, जब बाकी कैदियों ने बलात्कारियों को पीट दिया.
कई कैदी डिप्रेशन में रहते हैं. खुदकुशी करना चाहते हैं. ऐसे लोगों का खास ख्याल रखना होता है. अगर वे जूते पहनते हैं तो सबसे पहले उनके जूतों से लेस निकलवा देते हैं.
ध्यान रखते हैं कि कपड़ों में नाड़े न हों. कैदी का गमछा, लुंगी ले ली जाती है. डिप्रेशन के कैदियों को संभालना आसान नहीं. अस्पताल वाले अक्सर उन्हें किसी न किसी बहाने से जेल भेज देते हैं. तब जेल में ही उनकी दवा और खानपान देखना होता है. आवेश में हत्या करके पहुंचे कैदी अक्सर डिप्रेशन में खुद को नुकसान पहुंचाने की सोचते हैं. ऐसे लोगों को देखकर मन बड़ा परेशान होता है लेकिन आखिरकार वे हैं तो कैदी ही.

जेल की रसोई को हम बगिया कहा करते (प्रतीकात्मक फोटो)
जेल के भीतर की दुनिया भी बाहरी दुनिया से अलग नहीं. लड़ाई-झगड़े, साजिशें होती हैं तो कई दिलचस्प वाकये भी होते हैं.
ऐसे ही एक सोमवारी परेड में एक कैदी सामने आया. उसे शिकायत थी कि साहब, जेल में नहाने को पानी नहीं जुटता है. वो बस कंडक्टर था. शिकायत थोड़े खराब लहजे में की गई थी. मैं भड़क उठा. पूछा कि तुम जब बस चलाते थे तो कितनी दफे नहाते थे! फिर मुझे एक तरीका सूझा. जेल में साग-भाजी के लिए गार्डन होता है, जिसे हम बगिया कहते.
मैंने उसकी ड्यूटी बगिया में लगा दी. उससे कहा- वहां ट्यूबवेल चलता है. तुम भाजियां भी उगाना और चाहे जितना नहाना.
अगली रोज राउंड पर था. देखा कि वही कंडक्टर छोटी-सी निकर में खुले बदन बगिया में बैठा है. पास ही एक सिपाही खड़ा था. मैंने मामला पूछा तो उसने बताया कि सर, ये मरने की कोशिश कर रहा था. वहीं खुसपुसाते हुए नंबरदार ने कुछ और ही बताया. दरअसल सिपाही उससे पैसे ऐंठने की कोशिश में था और न देने पर ये सजा दी थी. मैं तुरंत वापस लौटा और कंडक्टर की सजा वापस ले ली. वक्त पर ध्यान देने पर बंदी बेवजह की तकलीफ से बच जाते हैं.
हमारा काम है बंदियों की जायज जरूरतें पूरी करना. परिजन आएं तो ढंग से मुलाकात हो जाए. कुछ खाने-पीने का पहुंचे तो बिना घालमेल उन तक पहुंचा देना. ख्याल रखना कि कोई कैदी, दूसरे कैदी से बदतमीजी न करे. कोई सिपाही या अफसर कैदियों से खराब तरीके से बात न करे. इसके लिए हम हर सोमवार परेड कराते. यहां कैदी अपने दुख-सुख बांटते. जरूरतें बताते. कोई बीमार होता तो उसका अलग इंतजाम किया जाता. कोई तकलीफ में होता तो उसे समझाते-बुझाते. 24 साल जेल को दिए.
एक मायने में वो हमारा घर हो चुका था, जिसमें बस रहने वालों के चेहरे बदलते रहते थे.

अक्सर कैदी अनुशासन तोड़कर चुनौती देते हैं (प्रतीकात्मक फोटो)
जेल अधीक्षक रहते हुए एक बार जौनपुर जेल में मेरा तबादला हुआ. बहुत ही बिगड़ी हुई जेल. वहां कोई नियम-कायदा नहीं था.
400 बंदी रहे होंगे, उनमें से आधे अपना खाना अलग बनाया करते. जब मन चाहे, बाहरवालों से मुलाकात करते. बैरक के भीतर भी अपनी मर्जी से आया-जाया करते. अब मेरा काम जेल में अनुशासन लौटाना था. जॉइनिंग लेते ही सबसे पहले कुछ अच्छे और जांबाज सिपाही बुलाए. इसके बाद कैदियों को आश्वासन दिया कि खाना आप अलग मत बनाएं. जेल की रसोई में ही इतना बढ़िया खाना बनेगा कि आपको अलग बनाने की जरूरत नहीं पड़ेगी. हेड-क्वार्टर से इजाजत ली. बदल-बदलकर सब्जियां आने लगीं. सब साथ में खाने लगे. समय पर खुलने-बंद होने लगे. मुझे लगा कि सब ठीक हो रहा है लेकिन उनमें अंदर ही अंदर गुस्सा भर रहा था. एक रोज अदालत से लौटते हुए कैदी बोरियां भर-भरकर राशन लेते आए. मैंने ठान लिया कि राशन तो आज भीतर नहीं आएगा. सारे सिपाही साथ आ गए.
जेल का माहौल उस दिन एकदम कबड्डी ग्राउंड जैसा हो गया था. एक ओर कैदी, जो हमसे कई गुना थे. दूसरी तरफ थोड़े से पुलिसवाले.
कैदियों के चेहरे पर इतना गुस्सा था कि सिपाही पीछे हटने लगे. अब मैंने सिपाहियों को ललकारा. कुछ सिपाहियों में थोड़ा जोश आया. वे लाठी-डंडे लेकर आगे बढ़े. अब कैदी बैरक की ओर लपके और बंद हो गए. उसके बाद कई दिनों तक जेल में शांति रही. हम सबने मान लिया कि बिगड़ैल कैदी अब सुधर चुके हैं. लेकिन यहीं मैं गलत था. एक रोज कैदियों ने चुपके से मेरे सबसे जांबाज सिपाही को बुलाया. सुबह का वक्त था, सारे कैदी खुले हुए थे. सिपाही जैसे ही पहुंचा, चार-पांच लोगों ने मिलकर ईंटें मार-मारकर उसकी जान ले ली. इसके बाद भी कैदी शांत नहीं बैठे. जिंदाबाद -मुर्दाबाद के नारे लगने लगे. हमपर ईंट-पत्थर बरसने लगे. बड़ी मुश्किल से हालात काबू में आ सके.
उस सिपाही की मौत मेरे जेल जीवन के कुछ बेहद दर्दनाक हादसों में से है. बाद के दिनों में उसकी जांबाजी मुझे अक्सर याद आती.
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