मुझे पुलिस के लिए अपराधियों के स्केच बनाते हुए 25 साल से ज्यादा हो गए थे, लेकिन पुलिस वालों के अलावा बाहर मुझे कोई नहीं जानता था. ये अगस्त, 2013 की बात है. मुंबई के शक्ति मिल्स कंपाउंड में एक महिला पत्रकार के साथ गैंगरेप की घटना हुई थी. मेरे पास रात 2 बजे पुलिस का फोन आया. मैं पुलिस स्टेशन गया. वहां काफी भीड़ थी. पीडि़त लड़की जसलोक अस्पताल में भर्ती थी. मैं उससे कभी नहीं मिला. पुलिस स्टेशन में वो फोटोग्राफर लड़का था, जो लड़की के साथ था, जब यह घटना हुई. वह इकलौता चश्मदीद था. उन लोगों ने उसकी काफी पिटाई की थी. उसने मुझे उन अपराधियों का हुलिया बताया. वो बताता रहा और मैं स्केच बनाता रहा. पूरी रात यह चला. सुबह तक तीन स्केच बनकर तैयार हुए. पुलिस ने उस स्केच के आधार पर उनमें से एक अपराधी को पकड़ा और फिर उसके जरिए 72 घंटे के अंदर पुलिस ने बाकी चारों अपराधियों को भी पकड़ लिया. उन पांचों को सजा हुई.
उस घटना के बाद मेरे बारे में अखबार में खबर छपी और लोग मुझे जानने लगे.
पुणे में दाभोलकर ही हत्या हुई थी. पुलिस अपराधियों की तलाश कर रही थी. वहां पुलिस वालों को जब शक्ति मिल वाले केस का पता चला तो वो मुझे अपने साथ पुणे ले गए. वहां मैंने पुलिस आयुक्त के सामने तीन घंटे तक काम किया और अपराधी का स्केच बनाया. वो स्केच 82 फीसदी तक बिलकुल सटीक बना था. इसके पहले भी किसी ने उसका स्केच बनाने की कोशिश की थी, लेकिन वो सही नहीं बना था. मेरा स्केच बनाने के बाद अपराधी पकड़ा गया. आज मुझे ये काम करते हुए 28 साल से ज्यादा हो चुके हैं. मेरे कला किसी मायने में समाज के काम आई, यह सोचकर मुझे खुशी मिलती है.
बचपन और चित्रकारी
मेरा जन्म महाराष्ट्र के एक बेहद मामूली निर्धन परिवार में हुआ था. पिता कुर्ला की स्वदेशी मिल में वर्कर थे. मां के हाथ में हुनर था, तो वो धागों, मोतियों से तोरण और कपड़े और रूई से बच्चों के खिलौने बनाती थीं. हम तीन भाई और तीन बहन थे. सभी के हाथों में कला थी, लेकिन किसी ने उसे अपना कॅरियर नहीं बनाया. सब पढ़ाई करके अलग-अलग कामों में लग गए. सिर्फ मैं और मेरी बड़ी बहन ने ही चित्रकारी जारी रखी और हम दोनों स्कूल में ड्रॉइंग टीचर हुए. मैं पिछले 25 सालों से चेंबूर के एक प्राइमरी स्कूल में ड्रॉइंग टीचर हूं. छोटे-छोटे बच्चों को चित्र बनाना सिखाता हूं.
जब मैं सातवीं क्लास में था तो एक बार पेंट करके 20 रु. का एक नोट बनाया. मैंने बॉल पेन और वॉटर कलर से बड़ी मेहनत से 20 रु. के नोट की हू-ब-हू शक्ल उतार दी. इसे बनाने में तीन दिन लगे थे. मैं जब वो नोट लेकर दुकान में छुट्टा मांगने जाता तो दुकान वाला उसे अपने गल्ले में डाल लेता और छुट्टा देने लगता. फिर मैं कहता कि ये नकली नोट है. बहुत ध्यान से देखने पर ही समझ आता था कि वह असली नोट नहीं, बल्कि नोट का हू-ब-हू चित्र है. सब मेरी कला की बड़ी तारीफ करते. फिर एक दिन मैं वो नोट लेकर स्कूल गया. स्कूल में वो नोट हर क्लास में घूमा, बच्चों से लेकर टीचर तक सब मेरी प्रतिभा के मुरीद हो गए. सबने तारीफ की. सिर्फ एक टीचर ने मुझे अपने पास बुलाया और कहा कि तुम्हारी चित्रकला बहुत अच्छी है, तुमने बिलकुल असली जैसा दिखता नोट बनाया है, लेकिन ये काम अब दोबारा कभी मत करना. कला का गलत इस्तेमाल नहीं करना चाहिए.
उनकी वो बात मेरे मन में रह गई कि कला का इस्तेमाल गलत काम के लिए नहीं करना चाहिए. उन्होंने न कहा होता तो क्या पता, मैं बड़ा होकर नकली नोट बनाने लगता. लेकिन उस दिन के बाद मैंने कभी नकली नोट नहीं बनाया. अभी एक साल पहले उनका देहांत हुआ.
मेरा स्कूल खत्म ही हुआ था कि स्वदेशी मिल बंद हो गई और पिता बेरोजगार हो गए. घर में बहुत गरीबी थी. बड़े भाई के पास भी कोई काम नहीं था. घर में आय का कोई जरिया नहीं था तो मैं स्कूटर, गाडि़यों की नंबर प्लेट पेंट करने लगा. साथ ही मैंने जे जे स्कूल ऑफ आर्ट से पेंटिंग का डिप्लोमा कोर्स किया. मैं मास्टर्स करना चाहता था, लेकिन तब मेरे पास ज्यादा वक्त नहीं था. मुझे जल्दी से कोई ऐसा कोर्स करना था, जिससे मुझे नौकरी मिल जाए. डिप्लोमा करने के बाद मुझे एक स्कूल में ड्रॉइंग टीचर की नौकरी मिल गई. इसके अलावा नंबर प्लेट पेंट करने का काम भी मैंने जारी रखा.
पहला मर्डर केस और पहला स्केच
ये 1984 की बात है. कुर्ला के किसी होटल में एक मर्डर हुआ था. उस समय मैं पुलिस की गाडि़यों के लिए भी नंबर प्लेट पेंट करता था. पुलिस वाले आपस में बात कर रहे थे कि उस मर्डर करने वाले को कैसे पकड़ा जाए. एक वेटर था, जिसने उस आदमी को देखा था. मैंने कहा, अगर आप कहो तो मैं स्केच बनाने की कोशिश कर सकता हूं. हालांकि ये काम मैंने पहले कभी किया नहीं है. वो मान गए. वेटर ने मुझे कई घंटों तक उस आदमी का हुलिया बताया और मैंने जो चित्र बनाया, वो उसकी शक्ल से 80 फीसदी मिलता-जुलता था. पुलिस ने उस स्केच के सहारे कर्नाटक जाकर मर्डरर को पकड़ लिया. मेरी बड़ी तारीफ हुई. उसके बाद कोई भी केस होता तो पुलिस वाले मुझे स्केच बनाने के लिए बुलाते.
उस जमाने में सोशल मीडिया तो था नहीं. पुलिस वालों का जब एक चौकी से दूसरी चौकी में ट्रांसफर होता तो मेरा नाम भी दूसरी चौकी में पहुंच जाता. सब एक-दूसरे को बताते और ऐसे धीरे- धीरे करके पूरी मुंबई की सारी पुलिस चौकियों में मेरा नाम फैल गया. पुलिस वाले छोटे से लेकर बड़े केस तक में स्केच बनाने के लिए मुझे बुलाने लगे. बांद्रा में एक बार एक महिला का मर्डर हो गया. वॉचमैन ने उस आदमी को देखा था. मैंने स्केच बनाया, वो पकड़ा गया. 4 साल पहले वडाला में एक छह साल की लड़की के साथ रेप हुआ था. उस केस में भी मैंने अपराधी का स्केच बनाया और वो भी पकड़ा गया. चेंबूर में एक महिला के तीन टुकड़े करके नाले में फेंक दिया गया था. मैंने स्केच बनाया और अपराधी पकड़ा गया.
मैं पुलिस के लिए अब तक 4000 से ज्यादा स्केच बना चुका हूं. पुणे के जर्मन बेकरी ब्लास्ट, दाभोलकर मर्डर केस में मैंने स्केच बनाए. मैंने सीसीटीवी फुटेज के आधार पर कसाब का भी स्केच बनाया था. उसने कहां-कहां और कैसे फायरिंग की होगी. वो भी पकड़ा गया.
मेरे बनाए बहुत सारे चित्र अब मेरे पास नहीं हैं. मैं पुलिस के लिए जो स्केच बनाता था, हमेशा उसकी कॉपी नहीं मिल पाती थी. कई बार रात-बेरात काम करते. तब दुकानें भी नहीं खुली होती थीं कि जेरॉक्स निकाल लेते. अब तो स्मार्ट फोन आ गया है. अब स्केच बनाकर उसकी फोटो खींचकर अपने पास रख सकते हैं. पहले ये सब कहां होता था. मेरे पास एक संदूक में मेरे बनाए ढेर सारे चित्र थे. एक बार घर में चोरी हुई तो वो संदूक भी चोरी चला गया. मेरे बनाए सारे चित्र, बचपन की सारी यादें चली गईं. अब वही चित्र बचे हैं, जिनकी स्मृति मन में है. फिर भी मेरे पास तकरीबन 2000 स्केच तो हैं, जो मैंने अलग-अलग मौकों पर पुलिस के लिए बनाए थे.
गणपति के जैसे बड़े कान करके सुनता हूं
किसी के मुंह से सुनकर चित्र बनाना आसान नहीं है. इंसान कोई कौआ, कबूतर नहीं कि सब एक जैसे ही होंगे. हर चेहरा अलग है. इसलिए स्केच बनाने से पहले मैं विवरण देने वाले से बारीकी से सवाल करता हूं और उसकी हर बात ध्यान से सुनता हूं. मैं उसकी बुद्धि और समझ का भी आंकलन करने की कोशिश करता हूं. बताने वाला कितना पढ़ा-लिखा है, उसका ऑब्जर्वेशन कितना तेज है. फिर मैं एक-एक बात बारीकी से पूछता हूं. क्या देखा, कितना देखा, कितनी दूर से देखा, कितनी रौशनी में देखा. क्या उसकी शक्ल किसी से मिलती जुलती थी, उम्र क्या थी. मैं गणपति की तरह कान बड़े करके हर बात बारीकी से सुनता हूं और फिर उसे स्केच में उतारता हूं.
संगीत और आवाज
चित्रकला के साथ संगीत में भी मेरी बड़ी रुचि थी. मैं बचपन से ही गाता था और कई इंस्ट्रूमेंट बजाया करता था. हारमोनियम, कीबोर्ड, माउथ ऑर्गन, तबला, ढोलक, बेंजो ये सभी इंस्ट्रूमेंट बजाने में पारंगत था. फिर चार साल पहले मुझे गले का कैंसर हो गया और मेरी आवाज पहले जैसी नहीं रही. अब बड़ी मुश्किल से गले से आवाज निकलती है और बोलने में काफी तकलीफ भी होती है. अब जब हारमोनियम बजाता हूं तो सिर्फ हारमोनियम की आवाज होती है. मेरी नहीं. अब गले से सुर नहीं, आंखों से आंसू निकलते हैं. लेकिन सब नसीब का खेल है. हाथों का लिखा कोई कैसे बदल सकता है.
28 साल में एक रु. नहीं लिया
अभी दो साल पहले मैंने खारघर में एक बेडरूम का फ्लैट बुक कराया है. कुर्ला में हम एक छोटी चाल में रहते थे. अब भी चाल में ही रहते हैं. जब मुझे कैंसर हुआ तो मुझे थोड़ा डर लगा. पहली बार लगा कि घरवालों के लिए कुछ तो कर दूं. कल को मुझे कुछ हो गया तो मेरी पत्नी और बच्चों का क्या होगा. मुझे पैसों का लालच कभी नहीं रहा. स्कूल टीचर की नौकरी से जितने पैसे मिलते थे, उसी में मेरा घर चलता था. मैं बच्चों को ड्रॉइंग सिखाता था, लेकिन उनसे पैसे नहीं लेता था. फिर मैंने 20 रु. फीस लेना शुरू किया. अब महीने का डेढ़ सौ रु. फीस लेता हूं. अभी भी काफी गरीब बच्चे ऐसे हैं, जिन्हें मैं मुफ्त में ही सिखाता हूं. पुलिस के लिए स्केच बनाते हुए 28 साल से ज्यादा हो गए, लेकिन मैंने आज तक एक पैसा नहीं लिया. कभी किसी ने खुश होकर कुछ ईनाम दे दिया हो तो बात अलग है. लेकिन मैंने इस काम का पैसा नहीं मांगा.
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