सुशांत सिंह राजपूत (Sushant Singh Rajput) इस दुनिया का हिस्सा नहीं हैं. बिहार के पूर्णिया से मुंबई तक उनका सफर सपने सरीखा रहा. उनकी मृत्यु पर सब चकित हैं. ऐसे याद कर रहे हैं लोग उनको मानो सुशांत उनके कोई बहुत गहरे नजदीकी हों. कलाकार ऐसे ही तो होते हैं, जो सघनता से आप से जुड़ जाए वही तो कला है.
ठीक यहीं पर जाकर रुकना जरूरी है. मैं नहीं चाहता कि आप सोशल मीडिया के अतिवादी दौर में सुशांत सिंह के साथ खड़े हों. ‘जीवन संवाद’ के पहले अंक से लेकर अब तक यही बात मैं दोहराता रहा हूं, आगे भी करता रहूंगा कि हमें आत्महत्या के विरुद्ध होना है. उसके साथ नहीं दिखना. हमारी समस्या यह है कि हम जीवित व्यक्ति के साथ कभी समय पर खड़े नहीं होते, लेकिन मातम के वक्त समय पर पहुंच जाते हैं.
आपको कभी ख्याल आता है कि आपका बॉलीवुड संभवत: भारत में इकलौती जगह है, जहां मातम के वक्त एक जैसे कपड़े में लोग दिखते हैं. ठीक एक जैसे चश्मे. एक जैसी भाव भंगिमा है और लगभग-लगभग एक ही जैसे संवाद. अगर इनके भीतर संवेदनशीलता गहरी होती तो शायद इस तरह के संकटों से बचा जा सकता. पिछले दिनों बालीवुड से जीवन के प्रति लगातार निराशाजनक खबर आ रही है.
लेकिन उसके बाद भी बॉलीवुड का समाज पर असर गहरा है. इसलिए इनकी बातें नीचे तक बहुत तेजी से पहुंचती हैं. इसीलिए मैंने आपसे कहा कि सुशांत के साथ खड़े नहीं होना. सुशांत के साथ कोई सहानुभूति नहीं! आत्महत्या चुनाव नहीं है. यह मनुष्यता की अवहेलना है. भूल गए करोड़ों मजदूरों को जो कैसे-कैसे कष्ट सहते हुए, अटैची पर सोते बच्चे, पीठ और छाती से चिपके बच्चे लिए कैसे सफर पर हैं. श्रद्धा और सहानुभूति इनके साथ होनी चाहिए. जिनके भीतर संघर्ष का रस जिंदा है, उनके साथ खड़े होना है!
पेट की आग, भविष्य की अनिश्चितता लिए प्रवासी मजदूरों ने किसी का घर नहीं जलाया है! सहा है! जीवन सहने से बनता है. धैर्य खोने से नहीं. अगर किसी को जीवन सीखना है तो उसे इन अप्रवासी मजदूरों की ओर देखना चाहिए. सुशांत की ओर नहीं.
इसलिए, अपने बच्चों को इस नशे में उतरने से बचाइए. उन्हें आत्महत्या के प्रति सहृदय होने से रोकिए. हमारे आस पास बहुत से ऐसे लोग हैं, जिनकी नौकरी जा रही है. जिनको काम नहीं मिल रहा. जिनके पति/ पत्नी से संबंध तनावपूर्ण हैं. पटरी नहीं बैठ रही, उनको सुशांत की कहानी मत सुनाइए.
जिसे जीवन का स्वाद लेना है. पूर्णिया से आकर, बैक डांसर से मुख्य किरदार तक की भूमिका निभानी है. सफलता के स्वाद चखने हैं उसे जीवन की विफलता के लिए तैयार रहना ही चाहिए. यह हमारे समाज का संकट है कि हम असफलता के बारे में किसी को कुछ नहीं बताते. हम सफलता का नशा बेचने वाला समाज बनते जा रहे हैं. हर कोई कामयाबी के नशे में ऐसा डूबा है कि उसे यह ख्याल ही नहीं कि इसे भी एक दिन डूबना है.
मेरा निरंतर निवेदन है कि आत्महत्या संक्रामक है. यह ऐसे ही लोगों से समाज में घर करती है जिनका हर घर में असर होता है. इसलिए इसके प्रति किसी तरह की कोमलता मत रखिए. जिंदगी सबकी कठिन है मुश्किल है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि सब लोग इसी रास्ते को चुनें. यह मनुष्यता के विरुद्ध है.
शुभकामना सहित…
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नोट: यह लेख… 15 जून को पब्लिश हो चुका है, लेकिन आज यूपी बोर्ड का रिजल्ट आया है और बच्चे तनाव में हैं. इसलिए इसका पुनः प्रकाशन किया जा रहा है.
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