सुबोध कुमार गुप्ता
हजारीबाग. हिंदू धर्म में पर्व-त्योहारों में बलि की पुरातन परंपरा है. इस तरह के खास अवसर पर आम तौर पर बकरे की बलि दी जाती है. लेकिन झारखंड में आदिवासी समाज में मुर्गे की बलि देने की परंपरा है. यह बलि सरहुल पर पर्व पर दी जाती है. इसकी खासियत है कि बलि के बाद प्रसाद को केवल पुरूष खा सकते हैं. महिलाओं को इसे खाने की मनाही होती है. पूजा स्थान के पाहन (पुजारी) मुर्गे की बलि देते हैं.
पूर्व पाहन मनोज टूडू ने न्यूज़ 18 लोकल को बताया कि सरहुल प्रकृति पूजा का पर्व है. इसे प्रत्येक साल मार्च माह में मनाया जाता है. यह पूजा दिन के 10 बजे होती है. पूजा के ठीक आधे घंटे पहले तीन तरह के मुर्गे की बलि तीन अलग-अलग देवी-देवताओं पर चढ़ाई जाती है. सफेद मुर्गा, लाल मुर्गा और कटोर (खोबड़ा) मुर्गा की बलि पड़ती है.
सभी लोगों में नहीं बंटता बलि का प्रसाद
सफेद मुर्गे की बलि कुल देवी-देवता को दी जाती है. वहीं, लाल मुर्गे की बलि गांवा देवी को दी जाती है. जबकि कटोर मुर्गे की बलि सुख-शांति और प्रकृति के नाम से दी जाती है. बलि दिये जाने वाले मुर्गों को केवल पुरुष ही खाते हैं. इसमें पाहन (पुजारी) और मनोनीत सदस्य शामिल होते हैं. यह प्रसाद सभी लोगों में नहीं बांटी जाती है.
इस प्रसाद को महिलाओं के खाने पर सख्त पाबंदी होती है. जब पाहन और संबंधित सदस्य प्रसाद ग्रहण कर लेते हैं तो उसके बाद सरहुल पर्व का झूमर और त्योहार से जुड़े अन्य कार्यक्रम की शुरुआत की जाती है.
क्या है सरहुल पर्व
दरअसल, सरहुल आदिवासियों का एक महत्वपूर्ण पूर्व है जिसे मार्च महीने में पूरे धूमधाम से मनाया जाता है. हजारीबाग के विभिन्न इलाकों में रहने वाले आदिवासी समाज के लोग इस पर्व को मनाते हैं. सरहुल प्रकृति पूजा का त्योहार है. इसमें पूजा की शुरुआत जीवों की बलि देने के बाद होती है.
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