प्रतिशोध की आग में जल रहे पत्थलगढ़ी (Pathalgadi) समर्थकों ने 7 पत्थलगढ़ी विरोधियों की सामूहिक हत्या कर दी है. घटना चाइबासा (Chaibasa) जिला के गुदड़ी थाना के गूलिकेरा पंचायत के बुरूगुलिकेरा गांव (Burugulikera Massacre) की है. घटना के बाद चाइबासा, सराइकेला, खूंटी समेत रांची जिले के बुंडु और तमाड़ में दहशत और तनाव का माहौल है. घटना के बाद एक बार फिर से कोल्हान (Kolhan) के इन नक्सली प्रभावित इलाकों में खूनी संघर्ष की आशंका बढ़ गई है, क्योंकि पत्थलगढ़ी आंदोलन के दौरान क्षेत्र के दो नक्सली संगठनों के बीच वर्चस्व की लड़ाई किसी से छुपी हुई नहीं है. ऐसे में समय रहते अगर सरकार ने माहौल की संवेदनशीलता को समझते हुए उचित कदम नहीं उठाया, तो शांतिप्रिय आदिवासी बहुल यह इलाका एक बार फिर से अशांत और हिंसक रास्ते पर भटक सकता है. गौरतलब है कि झारखंड (Jharkhand)में पिछले साल पत्थलगढ़ी आंदोलन के चलते पुलिस और ग्रामीणों के बीच लंबा संघर्ष हुआ था, जिसमें कुछ लोगों की जानें भी गई थीं.
घटना की शुरुआत और वजह
बीते सप्ताह 17 जनवरी को पत्थलगढ़ी समर्थकों और विरोधियों के बीच विवाद के बाद मारपीट की घटना हुई थी उसके बाद रविवार को फिर से गांव में पंचायत बैठी. पत्थलगढ़ी को लेकर एक बार फिर से संघर्ष हुआ उसके बाद उपमुखिया सहित 7 विरोधियों का अपहरण कर जंगल ले जाकर उनकी हत्या कर दी गई. इलाका इतना सुदूर और पिछड़ा है कि वारदात के दो दिन के बाद पुलिस को पूरी घटना की जानकारी मिल पाई. फिलहाल इन इलाकों में बड़ी संख्या में पुलिसबल तैनात है और सूबे के बड़े पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी घटना क्षेत्र में कैंप कर रहे हैं. मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन भी घटना को लेकर गंभीर हैं और पूरे मामले की जांच और स्थिति की समीक्षा का आदेश दिया है.
गूलिकेरा पंचायत में मारे गए लोगों के शव पुलिसकर्मियों को इस तरह से लाने पड़े. (फाइल फोटो)
घटना में नक्सलियों का हाथ
सूत्रों के मुताबिक सूबे में सरकार बदलते ही विरोधियों को सबक सिखाने की पृष्ठभूमि पहले से तैयार थी और अति नक्सल प्रभावित इस इलाके में हुई इस घटना में नक़्सलियों के शामिल होने से इंकार नहीं किया जा सकता. क्योंकि पहले भी पत्थलगढ़ी आंदोलन के वक़्त और बाद में भी इन संगठनों की सक्रियता उन इलाकों में देखी जा रही थी. पिछले कुछ वर्षों से कोल्हान के कई जिलों खासकर खूंटी, पूर्वी सिंहभूम, पश्चिमी सिंहभूम, सिमडेगा, गुमला और रांची के ग्रामीण आदिवासी इलाकों में जगह-जगह पत्थलगढ़ी के कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे थे, जिसमें बड़ी संख्या में लोग जमा हो रहे थे. आरोप था कि इलाके के कुछ महत्वाकांक्षी नेता और मुट्ठीभर स्वार्थी तत्व आदिवासियों के बीच आज भी प्रचलित पौराणिक परंपरा पत्थलगढ़ी की आड़ में कुछ और भी खेल खेल रहे थे. उन इलाकों में रहने वाले सीधे-साधे आदिवासियों को बरगलाया जा रहा था. आदिवासियों के बीच पत्थलगढ़ी कर उस पर विधान संस्कार के मुताबिक इसमें ग्राम, मोजा, सीमा और अधिकार का उल्लेख होता था या फिर वंशावली, पुरखे और मरनी की यादें संजोने के लिए भी पत्थलगढ़ी की जाती थी.
क्या है पत्थलगढ़ी
पत्थलगढ़ी, पत्थर के उन स्मारकों को कहा जाता है, जिसकी शुरुआत इंसान हजारों साल पहले किया करता था. यह एक पाषाणकालीन परंपरा है, जो आज भी आदिवासी समाज में प्रचलित है. सूबे में पत्थलगढ़ी आंदोलन और इससे जुड़ा विवाद सुर्खियों में तब आया, जब खूंटी के कांकी गांव में पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों को ग्रामीणों ने बंधक बना लिया. काफी मशक्कत के बाद उन्हें छुड़ाया जा सका था. तब यह बात भी सामने आई कि उस इलाके में पत्थलगढ़ी कर ग्रामसभा ने यह आदेश जारी किया है कि कोई भी बाहरी बिना ग्रामसभा की अनुमति के उनके इलाके में प्रवेश नहीं कर सकता. बगैर अनुमति के प्रवेश पर उन्हें सजा दी जा सकती है. यह घटना सभ्य और जागरूक समाज के लिए अटपटी थी, लिहाजा कई सप्ताह तक मीडिया में इसको लेकर सुर्खियां बनती रहीं.
झारखंड में पिछले साल पत्थलगढ़ी आंदोलन की हुई थी शुरुआत. (फाइल फोटो)
मुकदमे के बावजूद पत्थलगढ़ी
यह घटना 25 अगस्त 2017 की है, जिसके बाद 600 अज्ञात ग्रामीणों के खिलाफ मामला दर्ज किया गया था. उसके बाद चार जिलों के सैकड़ों गांवों में लंबे समय तक चरणबद्ध तरीके से पत्थलगढ़ी आंदोलन चलता रहा. जानकारी के मुताबिक पत्थलगढी के दौरान राष्ट्र और शासन विरोधी नारेबाजी की जाती थी और बाद में शिलापट्ट पर विवादित सूचनाएं लिखी जाती थीं. साथ ही देश के संविधान को गलत तरीके से निरूपित किया जा रहा था. पूरे इलाके में भ्रम की स्थिति थी.
पत्थलगढ़ी और भ्रम की स्थिति
पत्थलगढ़ी आंदोलन के दौरान इलाके में भ्रम की स्थिति थी. आदिवासी समाज में सरकार को लेकर डर और गुस्सा था. उनके बीच यह चर्चा थी कि सरकार पूंजीपतियों के हाथों जंगल और जमीन का अधिकार सौंपने जा रही है. उन्हें खनन और औद्योगिकीकरण के नाम पर उजाड़ा जाएगा. इतना ही नहीं, आदिवासियों को यह भी डर था कि सरकार एक नया वन कानून बनाने जा रही है, जिसकी आड़ में उन्हें उनकी ही जमीन से बेदखल कर दिया जाएगा. फॉरेस्ट ऑफिसर को विशेष अधिकार दिए जाएंगे, उन अधिकारों की आड़ में वे उनकी (आदिवासियों) बहु-बेटियों को परेशान करने की कोशिश करेंगे..., वगैरह-वगैरह. जानकारों के मुताबिक इस तरह की चर्चाओं को उसी इलाके के कुछ पढ़े-लिखे स्वार्थी लोग और स्थानीय नेता हवा दे रहे थे और सीधा-साधा आदिवासी समाज उनके साथ खड़ा होता जा रहा था. वर्षों पुराना आशियाना और जमीन का मालिकाना छिनने, जंगलों से बेदखल होने के डर से आदिवासी इस पत्थलगढ़ी आंदोलन से स्वतः जुड़ते चले गए. चूंकि आदिवासियों के लिए जंगल और जमीन उनकी इज्जत और अस्मिता से जुड़ा मामला है, लिहाजा वे सरकार और शासन के खिलाफ गोलबंद होते चले गए.
रांची से सटे खूंटी जिले में पहली बार आदिवासियों ने यह आंदोलन शुरू किया. (फाइल फोटो)
अब भी पिछड़े हैं आदिवासी और उनके इलाके
शहरी क्षेत्रों से सुदूर ये इलाके अति पिछड़ा और अशिक्षित हैं. बुनियादी सुविधाओं से वंचित ये समाज अति गरीब है, जिनका जीवन जंगलों और जंगली उत्पादों पर निर्भर है. रोजगार के नाम पर खेती-बाड़ी और पशुपालन ही उनका सबसे बड़ा सहारा है. देश-दुनिया ने भले ही कितनी तरक्की कर ली हो, लेकिन ये आदिवासी इलाके आज भी विकास से कोसों दूर हैं. झारखंड राज्य का निर्माण आदिवासियों के नाम पर हुआ, लेकिन 20 साल बाद भी किसी ने इनकी सुध लेने की कोशिश नहीं की. सरकारी योजनाओं से आज भी ये वंचित हैं. शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, बिजली और पानी की सुविधा आज तक ज्यादातर गांवों में नहीं है. ये समाज आज भी पिछड़ा और अज्ञानी है, जिन्हें बड़ी आसानी से बहलाया-फुसलाया या बरगलाया और भड़काया जा सकता है.
सरकार की बड़ी चूक
पत्थलगढ़ी आंदोलन की जब उन इलाकों में शुरुआत हुई, उस वक़्त अगर सरकार चाहती तो बड़ी ही संजीदगी के साथ शासन-प्रशासन के माध्यम से आंदोलन को काबू में कर सकती थी. लेकिन तत्कालीन सरकार आदिवासी भावनाओं को समझने में चूक कर गई. उन इलाकों में पत्थलगढ़ी के जरिए जो संदेश मिल रहे थे, अगर सरकार ने उसे समझने का प्रयास किया होता, तो ये आंदोलन समय रहते सुलझा लिया जाता. लेकिन पत्थलगढ़ी और ग्रामीणों में व्याप्त भ्रम को समझने और सलटाने की जगह सरकार ने बलपूर्वक इसे दबाने की कोशिश की. पत्थलगढ़ी एक सामाजिक और आर्थिक समस्या का परिणाम था, लेकिन इस पर राजनीति भी खूब हुई. जिसका परिणाम भी सामने आया, जब लोकसभा चुनाव में शासन कर रही पार्टी के उम्मीदवार अर्जुन मुंडा बड़ी मुश्किल से खूंटी सीट से चुनाव जीत सके, जबकि भाजपा का यह मजबूत गढ़ था. हाल में संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में दो-तीन सीटें छोड़ दें, तो ज़्यादातर सीटों पर भाजपा को करारी हार मिली. भाजपा की हार और झामुमो की जीत में पत्थलगढ़ी आंदोलन की भूमिका महत्वपूर्ण मानी जाती है.
नासूर बन सकता है पत्थलगढ़ी
पूर्ववर्ती सरकार की तरह मौजूदा सरकार भी अगर पत्थलगढ़ी के पीछे चल रहे 'खेल' पर अंकुश लगाने में नाकाम होती है, तो यह सूबे और सरकार के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द साबित होगा. क्योंकि पिछली सरकार की चूक के कारण राजनीतिक बयानबाजियों के बीच पत्थलगढ़ी आंदोलन विकृत होता चला गया. स्थिति इतनी खराब हो गई है कि खूंटी के कोचांग में नाट्यकर्मियों के साथ बलात्कार जैसी घटनाओं का अंजाम दिया गया, तब इस आंदोलन में नक्सलियों की संलिप्तता की बात मुखर होकर सामने आई. भयावह स्थिति को देख सरकार ने पत्थलगढ़ी समर्थकों के खिलाफ कार्रवाई करनी शुरू कर दी. लिहाजा, पत्थलगढ़ी समर्थकों और पुलिस के बीच खूनी संघर्ष हुए. सरकार की तरफ से ढाई हजार से ज़्यादा लोगों पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा दर्ज किया गया, जिसमें कुछ स्थानीय नेता और नक्सली भी नामजद किए गए. सरकार की कठोर करवाई से उन इलाकों में आंदोलन को विराम लगा, तात्कालिक रूप से इलाके में शांति भी कायम हुई, लेकिन अंदर ही अंदर समर्थकों के बीच आग सुलगती रही. आखिरकार गूलिकेरा नरसंहार उसी का परिणाम साबित हुआ. पूरी घटना में नक्सलियों का नाम फिर सामने आया है. अगर सरकार ने स्थिति की समीक्षा जल्दी और गंभीरता से नहीं की, तो इसके दुष्परिणाम और भी भयावह होंगे.
पत्थलगढ़ी की घटना पर सीएम हेमंत सोरेन को गंभीरता से विचार करना होगा, तभी यह समस्या सुलझेगी. (फाइल फोटो)
सरकार के लिए चुनौती
पिछली सरकार ने पत्थलगढ़ी आंदोलन को दबाने का प्रयास किया, लेकिन समस्या को समझने और सुलझाने का प्रयास कायदे से नहीं किया. अगर उन इलाकों में सरकारी और गैर सरकारी लोगों को भेजकर आंदोलन और वजह को समझने की कोशिश की जाती, तो संभवतः कोई रास्ता निकल आता. लेकिन आंदोलन से जुड़े मुट्ठीभर लोगों को काबू में करने की सरकार ने कोई पहल नहीं की, जिसका परिणाम विधानसभा चुनाव में भाजपा सरकार ने भुगता. लेकिन राज्य की नवनिर्वाचित सरकार ने अपनी पहली ही कैबिनेट बैठक में सभी पत्थलगढ़ी समर्थकों के खिलाफ दर्ज केस वापस लेने की घोषणा कर डाली, जिसे भी चूक ही कहा जा सकता है. सरकार के फैसले के तहत कुछ ऐसे लोगों के ऊपर से भी केस उठा लिए गए, जो पूरे आंदोलन को गलत दिशा देने के आरोपी थे या नक्सल समर्थक थे. इस सरकार को भी कायदे से पहले समीक्षा कर उन लोगों को लाभ देना था, जो निर्दोष थे. मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने गूलिकेरा जाकर भक्त भोगियों के परिवार से मुलाकात कर हर्जाने और दोषियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई का भरोसा दिलाया है, लेकिन एक बार फिर सरकार के लिए यही चुनौती होगी कि पत्थलगढ़ी आंदोलन की तह में जाकर आंदोलन के पीछे की भावना और वजहों को जाने और फिर उस दिशा में काम करे. स्वार्थी और असामाजिक तत्वों की पहचान कर उन्हें आंदोलन से अलग कर उनके खिलाफ कड़ी कार्रवआ करे. तभी इलाके में अमन-चैन स्थापित हो पाएगा, नहीं तो यह मामला कोई और ही रुख अख़्तियार कर लेगा.
डिस्क्लेमरः लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं.