डॉ भीमराव अंबेडकर (Dr Bhimrao Ambedkar) कई सालों से बीमार चल रहे थे. (तस्वीर: Wikimedia Commons)
डॉ भीमराव अंबेडकर (Dr Bhimrao Ambedkar) की परंपरा को उनके निधन के बाद उनके अनुयायी के बाद उनके परिवार ने भी आगे बढ़ाया है. एक कानून के विशेषज्ञ, अर्थशास्त्र के ज्ञाता, संविधान निर्माता के अलावा उन्हें दलितों का उद्धार करने वाला मसीहा माना जाता है. 6 दिसंबर 1956 को उनका निधन हुआ था. उसके बाद से हर साल 6 दिसंबर को महापरिनिर्वाण दिवस (Mahaprinirvan Day) के रूप में मनाया जाता है. उनके निधन के बाद उनके कार्यों को आगे बढ़ाने का काम उनके अनुयायियों के अलावा परिवार की अगली पीढ़ियों ने भी बढ़ाने का काम किया है. लेकिन शोषित समाज के साथ देश के लिए भी बाबासाहेब का योगदान आज भी अतुलनीय माना जाता है.
भेदभाव सहन करते-करते उठे थे बाबासाहेब
भीमराव रामजी अंबेडकर का जन्म मध्यप्रदेश के महू में 14 अप्रैल 1891 हुआ था. वे रामजी मालोजी सकपाल और भीमाबाई की 14वीं और अंतिम संतान थे. उनका मराठी मूल का परिवार महाराष्ट्र रत्नागिरी जिलेके आंबडवे गांव का था. वे हिंदूओं में अछूत माने जाने वाली महार जाति के थे जिससे भीमराव को बचपन से ही घोर भेदभाव और सामाजिक तिरस्कार का सामना करना पड़ा था जिसे सहन करने के बाद भी उन्होंने ना केवल समाज में अपना स्थान बनाया, बल्कि दलित और शोषित समाज के उत्थान के लिए पूरे समर्पित भाव से काम किया.
सेहत होती जा रही थी खराब
डॉ अंबेडकर के देहांत को महापरिनिर्वाण कहा जाता है. उनका निधन 1956 में हुआ था, लेकिन उन्हें 1948 से डायबिटिज की शिकायत शुरू हो गई थी और दवाओं के साइड इफेक्ट की वजह से उनके आंखें भी कमजोर हो गई थीं. 1955 में उनकी तबियत और ज्यादा खराब हो गई थी. अपनी किताब द बुद्धा एंड हिज धर्मा को पूरा लिखने के तीन बाद ही उन्होंने दिल्ली में अपने घर में नींद में ही अपने प्राण त्यागे थे.
क्या हुआ था 6 दिसंबर की सुबह
सुबह जब श्रीमती अंबेडकर हमेशा की तरह उठीं तो उन्होंने पति के पैर को हमेशा की तरह कुशन पर पाया, लेकिन कुछ ही मिनटों में उन्हें महसूस हुआ कि डॉ. अंबेडकर अपने प्राण खो चुके हैं. उन्होंने तुरंत अपनी कार 16 वर्षों से उनके सहायक रहे नानक चंद रत्तू लाने का कहा, लेकिन, जब वो आए तो श्रीमती अंबेडकर वो बिलख रही थीं कि बाबा साहेब दुनिया छोड़कर चले गए. रत्तू ने छाती पर मालिश कर की, हाथ-पैर हिलाए डुलाए, उनके मुंह में एक चम्मच ब्रांडी डाली लेकिन सबकुछ विफल रहा. वे शायद रात में सोते समय ही गुजर चुके थे.
जंगल में आग की तरह फैली खबर
अब श्रीमती अंबेडकर के रोने की आवाज तेज हो चुकी थी. रत्तू भी मालिक के पार्थिव शरीर से लगकर रोए जा रहे थे- ओ बाबा साहेब, मैं आ गया हूं, मुझको काम तो दीजिए. कुछ देर बाद रत्तू ने करीबियों और फिर केंद्रीय मंत्रिमंडल के सदस्यों को दुखद सूचना दी गई. लोग तुरंत नई दिल्ली में 20, अलीपोर रोड की ओर दौड़ पड़े. भीड़ में हरकोई इस महान व्यक्ति के आखिरी दर्शन करना चाहता था.
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बौद्ध परंपरा से हुए अंतिम संस्कार
बाबासाहेब का अंतिम संस्कार बुद्ध धर्म की परंपराओं के अनुसार मुंबई के दादर स्थित चौपाटी बीच पर किया गया था. उस समय वहां 5 लाख लोगों ने उन्हें भावभीनी विदाई दी थी. इसके बाद 16 दिसंबर को एक धर्मांतरण कार्यक्रम आयोजित किया गया जिसमें उसी जगह पर उनका अंतिम संस्कार करने वालों का धर्मांतरण किया गया.
उनकी पत्नी और उनके पुत्र
डॉ अंबेडकर के बाद उनकी दूसरी पत्नी सविता अंबेडर, जिन्हें मासाहेब भी कहा जाता है, ने उनकी परंपरा को आगे बढ़ाया. उनके पुत्र यशवंत अंबेडकर भइयासाहेब के नाम से जाने जाते थे. मां पुत्र ने बाबासाहेब के सामाजिक-धार्मिक आंदोलन को आगे बढ़ाया. साल 2003 में मांसाहेब का निधन हुआ था, जबकि भइयासाहेब उनका निधन 1977 में ही हो गया था.
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यशवंत अंबेडकर बुद्धिस्ट सोसाइटी ऑफ इंडिया के दूसरे अध्यक्ष थे और महाराष्ट्र विधानपरिषद के सदस्य भी थे. बाबासाहेब के बड़े पोते प्रकाश यशवंत अंबेडकर बुद्धिस्ट सासाइटी ऑफ इंडिया के प्रमुख सलाहकार और भारतीय संसद के दोनों ही सदनों के सदस्य रह चुके हैं. वहीं उनके छोटे पोते आनंदराज अंबेटडर रिपब्लिकन आर्मी की अगुआई करते हैं. इतना ही नहीं डॉ अंबेडकर की चौथी पीढ़ी भी सक्रिय रूप से उनको कार्यों का आगे बढ़ाने का काम कर रही है.
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Tags: Dr. Bhim Rao Ambedkar, History, India, Research
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