बौद्ध भिक्षुओं का अंतिम संस्कार आकाश में किया जाता है. ये लंबी प्रक्रिया होती है.
Cremation of Buddhist Monks: दुनियाभर में रहने वाले अलग-अलग धर्म के अनुयायी अपने-अपने तरीके से जीवन जीते हैं. लोग अपने धर्म या संप्रदाय में सदियों से चली आ रही परंपराओं और प्रथाओं के हिसाब से ही नामकरण, शादी-विवाह और दूसरे संस्कार करते हैं. वहीं, मृत्यु के बाद अंतिम संस्कार की भी सबकी अपनी-अपनी परंपराएं हैं. समय के साथ कुछ परंपराओं को लोगों ने बदल दिया, लेकिन कुछ आज भी जस की तस निभाई जाती हैं. जैन मुनियों के अंतिम संस्कार में लोग हर चरण में बोलियां लगाते हैं और उससे जुटने वाली रकम का इस्तेमाल लोगों की भलाई में किया जाता है. दुनिया में कई संप्रदाय ऐसे भी हैं, जहां अंतिम संस्कार के बाद पूरा परिवार राख का सूप बनाकर पी जाता है. बौद्ध धर्म में अंतिम संस्कार की अलग ही प्रक्रिया है.
दुनियाभर में माने जाने वाले ज्यादातर धर्मा और संप्रदायों में मृत्यु के बाद या तो शव का दाह संस्कार किया जाता है या उसे दफना दिया जाता है. हालांकि, अंतिम संस्कार के लिए इनके अलावा भी कई तरह की प्राचीन परंपराओं को लोग आज भी निभाते हैं. ऐसी एक परंपरा के तहत बौद्ध धर्म में संतों और साधुओं के साथ ही आम लोगों के अंतिम संस्कार की प्रक्रिया काफी अलग है. यहां मृत्यु के बाद ना तो शव को दफनाया जाता है और ना ही जलाया जाता है.
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शव के कर दिए जाते हैं छोटे-छोटे टुकड़े
बौद्ध धर्म में व्यक्ति की मृत्यु के बाद शव को काफी ऊंची जगह पर ले जाया जाता है. बौद्ध धर्म के लोगों का कहना है कि उनके यहां अंतिम संस्कार की प्रक्रिया आकाश में पूरी की जाती है. इसीलिए शव को बहुत ऊंची चोटी पर ले जाया जाता है. तिब्बत में बौद्ध धर्म के अनुयायियों के अंतिम संस्कार के लिए पहले से ही जगह मौजूद होती हैं. शव के पहुंचने से पहले ही बौद्ध भिक्षु या लामा अंतिम संस्कार की जगह पर पहुंच जाते हैं. इसके बाद शव की स्थानीय पंरपराओं के मुताबिक पूजा की जाती है. फि एक विशेष कर्मचारी शव के छोटे-छोटे टुकड़े करता है. इस विशेष कर्मचारी को बौद्ध धर्म के अनुयायी रोग्यापस कहते हैं.
शव के टुकड़ों को जौ के आटे में मिलाते हैं
शव के छोटे-छोटे टुकड़े करने के बाद रोग्यापस जौ के आटे का घोल तैयार करता है. इसके बाद टुकड़ों को इस घोल में डुबाया जाता है. फिर इन जौ के आटे के घोल में लिपटे शव के टुकड़ों को तिब्बत के पहाड़ों की चोटियों पर पाए जाने वाले गिद्धों-चीलों का भोजन बनने के लिए डाल दिया जाता है. जब गिद्ध और चीलें उनके टुकड़ों में से मांस को खा लेते हैं तो बची हुई अस्थियों को पीसकर चूरा बनाया जाता है. इस चूरे को फिर से जौ के आटे के घोल में डुबोया जाता है और पक्षियों का भोजन बनने के लिए छोड़ दिया जाता है.
अंतिम संस्कार की ऐसी परंपरा क्यों?
तिब्बत में बौद्ध धर्म के अनुयायियों के अंतिम संस्कार की इस जटिल परंपरा को मानने के पीछे कई कारण हैं. जानकारों के मुताबिक, तिब्बत बहुत ऊंचाई पर बसा होने के कारण यहां पेड़ आसानी से नहीं पनप पाते हैं. ऐसे में शव का दाह संस्कार करने के लिए लकड़ियां इकट्ठी करना यहां आसान नहीं है. आप कह सकते हैं कि अगर लकड़ी नहीं मिलती तो शव को दफनाया जाता सकता है. तो बता दें कि तिब्बत की जमीन पथरीली है. ऐसे में कब्र लिए गहरा गड्ढा खोदना बहुत मुश्किल काम है. इन सब व्यवहारिक कारणों के अलावा बौद्ध धर्म की एक मान्यता के कारण भी अंतिम संस्कार की अजीब परंपरा आज भी निभाई जा रही है. दरअसल, बौद्ध धर्म में मरने के बाद शरीर को खाली बर्तन माना जाता है. माना जाता है कि शव को छोटे टुकड़ों में कोटकर पक्षियों को खिलाने से उनका भला हो जाता है. अंतिम संस्कार की पूरी प्रक्रिया को बौद्ध धर्म में ‘आत्म बलिदान’ कहा जाता है.
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