चीन से तनाव के बीच अब सीमा पर तैनात भारतीय सैनिकों को चीनी भाषा सिखाई जाने वाली है. माना जा रहा है कि इससे छोटे-मोटे संघर्ष को टाला जा सकेगा. कुछ सालों में कई ऐसी घटनाएं सामने आई हैं, जब पेट्रोलिंग के दौरान चीनी और भारतीय सैनिकों के बीच टकराहट हुई, जैसे एक-दूसरे को गिराने की कोशिश. कंधे से धक्का लगाना या अपशब्द कहना. इसी वजह से तय हुआ है कि भारत तिब्बत सीमा पुलिस (Indo-Tibetan Border Police) की जो भी टीम पेट्रोलिंग पर जाए, उनके साथ चीनी भाषा बोलने-समझने वाला कोई जवान भी हो. अब योजना को आगे बढ़ाते हुए भारत चीन सीमा पर तैनात करीब 90 हजार जवानों की फोर्स में हरेक को चीनी भाषा सिखाई जाएगी.
क्यों है भाषा सिखाना जरूरी
लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल को लेकर दोनों देशों के बीच तनाव बना रहता है, जो इसी साल खुलकर सामने आया. इससे पहले भी हालांकि सीमा पर तैनात चीनी और भारतीय सैनिकों के बीच धक्का-मुक्की जैसी बातें आती रहीं. पेट्रोलिंग के दौरान धक्का लगाना, डंडों के जरिए सैनिकों को पीछे करना या पिट्ठू बैग गिराना जैसी बातें सीमा पर होती रही हैं. टकराव के बीच दोनों देश के सैनिक आपस में कुछ बोलने की कोशिश करते लेकिन भाषा उनके बीच बाधा रही. छोटे-मोटे गतिरोध को आपसी बात से कम करने की सोचकर साल 2017 में ही आईटीबीपी के लगभग 300 जवानों को चीनी भाषा सिखाई गई. ये पक्का किया गया कि पेट्रोलिंग के दौरान हर पोस्ट पर चीनी भाषा जानने वाला कोई न कोई जवान रहे.

भारत तिब्बत सीमा पुलिस की जो भी टीम पेट्रोलिंग पर जाए, उनके साथ चीनी भाषा बोलने वाला कोई जवान अनिवार्य है- सांकेतिक फोटो
अब सबको सिखाई जाएगी भाषा
अब हालिया तनाव के बाद से आईटीबीपी के हर जवान को चीनी सिखाई जाने वाली है. यहां पर लगभग 180 बॉर्डर आउटपोस्ट हैं, जहां करीब 90 हजार जवानों की फोर्स तैनात है. अब हरेक को चीनी भाषा सिखाने के लिए ट्रेनिंग प्लान तैयार किया जा रहा है. हरेक जवान के लिए ये अनिवार्य होगा. बेसिक ट्रेनिंग कोर्स के अलावा रिफ्रेशर कोर्स भी होगा ताकि समय-समय पर भाषा को मांजने का मौका मिले.
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तैयार हो रहा ट्रेनिंग मॉड्यूल
बता दें कि फोर्स के जवानों को चीनी भाषा सिखाने की जिम्मेदारी आईटीबीपी के चाइनीज लैंग्वेज डिपार्टमेंट की होती है. यही विभाग ट्रेनिंग मॉड्यूल बना रहा है. इसके तहत बेसिक चीनी भाषा की ट्रेनिंग 1 से 2 साल तक दी जा सकती है. इसमें सभी जवानों को जोड़ा जाएगा. फिलहाल हर 3 से 4 महीने पर रिफ्रेशर कोर्स होते हैं. अब इनकी संख्या भी बढ़ाने की योजना बनाई जा रही है. लैंग्वेज सिखाने के दौरान सैनिकों को ऑडियो और वीडियो के जरिए ज्यादा से ज्यादा ट्रेनिंग दी जाएगी. इससे सैनिक जल्दी से जल्दी सीख सकेंगे. साथ ही इससे उच्चारण समझने और करने में भी आसानी होगी. इस सबके साथ सीमा पर तैनात जवानों को भारत-चीन समझौते की पूरी जानकारी दी जाएगी ताकि अगर चीनी सैनिक नियम तोड़ें तो हमारे जवान उन्हें उनकी ही भाषा में बता सकें कि असल करार क्या है.

लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल को लेकर दोनों देशों के बीच तनाव बना रहता है
चीन भी चाहता है हिंदी सिखाना
इंडियन आर्मी की तर्ज पर चीन के एक्सपर्ट भी कहते आए हैं कि उनके सैनिकों को हिंदी सीखनी चाहिए. इस बारे में सरकारी समाचार पत्र ग्लोबल टाइम्स में भी साल 2017 में एक रिपोर्ट आई थी. डोकलाम विवाद के बीच अखबार ने कहा था कि चीन के सैनिकों को भी हिंदी सिखाई जाए ताकि जवानों के बीच दोस्ती बढ़े. हालांकि इसके बाद से ऐसी कोई जानकारी नहीं आई कि चीन की पीपल्स लिबरेशन आर्मी अपनी फौज को हिंदी सिखा रही है.
इंडियन आर्मी और कौन-सी भाषाएं सीख रही
चीनी भाषा के अलावा भारतीय फौज के लिए बेसिक अंग्रेजी सीखना जरूरी है. लगभग सारी ट्रेनिंग इसी में दी जाती है. साथ ही अलग-अलग देशों की सीमा पर तैनात इंडियन आर्मी के उन भाषाओं की जरूरत काफी दिनों से महसूस की जा रही है. साल 2018 में इसपर दिल्ली में आर्मी कमांडर के बीच चर्चा भी हुई. डीएनए की रिपोर्ट के मुताबित तभी चीनी के अलावा बर्मीज, पश्तो और डारी भाषा सिखाने की भी बात हुई. दरी भाषा अफगानिस्तान की भाषा है. वहीं पश्तो उर्दू और सिन्धी से मिलती-जुलती भाषा है जो अफगानिस्तान की आधिकारिक भाषा भी है.
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पश्तो और दरी भाषाएं जम्मू-कश्मीर में भी बोली जाती हैं इसलिए वहां तैनात जवानों के लिए इन भाषाओं के सीखने पर जोर दिया जा रहा है. पीटीआई की एक खबर के मुताबिक नेशनल डिफेंस अकादमी (NDA) के कैडेट्स को भी कोर्स के आखिरी साल में इन भाषाओं की बेसिक ट्रेनिंग दी जा रही है.

पहले भी अनुवाद की कमी के कारण सेनाओं के बीच दिक्कतें होती रही हैं
सदियों पहले भी सेनाओं के बीच भाषा जानने की जरूरत हुई थी
वैसे सेना के लिए भाषा जानने की जरूरत सदियों पहले से महसूस की जाती रही है. जैसे एक लड़ाई में भाषा न जानने के कारण गठबंधन के तहत काम कर रहे अलग-अलग देशों से 10 हजार से ज्यादा सैनिकों की जान चली गई थी. साल 1788 में हुई इस लड़ाई को इतिहास की सबसे बेककूफाना जंग (Dumbest Battle in History) भी कहते हैं. उस साल सितंबर में ऑस्ट्रिया की सेना यूरोप के कैरनसीब्स (Karansebes) शहर को फतह करने पहुंची.
अनुवाद की कमी के कारण गई जानें
उस वक्त ऑस्ट्रियाई सेना एक खास अंब्रेला के तहत काम करती थी, जिसमें कई राज्य एक साथ मिलकर काम कर रहे थे. इसे हैब्सबर्ग साम्राज्य (Habsburg Empire) कहते थे. इस एंपायर में ऑस्ट्रिया के सैनिकों के साथ ही जर्मनी, फ्रांस, सर्बिया, पोलेंड और चेक रिपब्लिक के सैनिक भी काम कर रहे थे. अलग-अलग भाषाएं होने के कारण इनमें आपस में तालमेल काफी मुश्किल से हो पाता था. ऐसे में तुर्क सैनिकों से लड़ने के लिए गई खिचड़ी सेना एक रात भाषा की गलतफहमी के कारण आपस में ही गुत्थमगुत्था हो गई और 10 हजार से ज्यादा सैनिक मारे गए. इसे कैरनसीब्स की जंग कहते हैं. लेकिन ज्यादातर इतिहासकार इसे दुनिया की सबसे मूखर्ताभरी जंग मानते हैं.
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FIRST PUBLISHED : July 17, 2020, 12:25 IST