सिरिल रेडक्लिफ ने केवल नक्शे पर ही भारत पाकिस्तान के बीच सीमा रेखा खींच दी थी. (प्रतीकात्मक तस्वीर: Wikimedia Commons)
एक अंग्रेज कुछ दिनों के लिए भारत आता है और बिना किसी बड़े प्रशासनिक या सैन्य पद पर रहते हुए भारत और पाकिस्तान के लोगों की नफरत झेलते हुए वापस लौट जाता है और कसम खाता है कि वह अब कभी भारत या पाकिस्तान नहीं आएगा. यह शख्स कोई और नहीं वहीं वकील है जो पहली बार भारत आता है और उसे भारत और पाकिस्तान के बीच की सीमा रेखा खींचने की जिम्मेदारी दे दी जाती है. सर सिरिल रेडक्लिफ का 30 मार्च को जन्मदिन है और उन्हें भारत पाक विभाजन की कई विभीषिकाओं के लिए जिम्मेदार माना जाता है. इतिहासकार आज भी मानते हैं सीमा खींचते हुए उनसे कई भारी गलतियां हो गईं थीं.
सेना और वकालत से नाता
30 मार्च 1899 को आर्मी कैप्टन के बेटे रूप में सिरिल जॉन रेडक्लिफ का जन्म वेल्स के डेनबिगशायर में हुआ था. ब्रिटेन के हेली बेरी कॉलेज में शिक्षित होकर वे ऑक्सफोर्ड में पढ़ाई कर वकील बने थे. द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान वे सूचना मंत्रालय में आए और 1941 में उसके डायरेक्टर जनरल बन गए और 1945 में बार में वापस ब्रिटेन लौट गए थे.
अजीबोगरीब सीमा
कहा जाता रहा है कि अगर भारत के बंटवारे वक्त जरा सी संवेदनशीलता दिखाई जाती तो लाखों लोगों की जान बच सकती थी, लेकिन क्या रेडक्लिफ वाकई ऐसा कर सकते थे. उन्होंने यह काम केवल नक्शे पर कर डाला था और उनकी बनाई रेखा आज तक अपने अजीबोगरीब सीमा के तौर पर पहचानी जाती है जिसमें बांग्लादेश से लगी सीमा तो बहुत ही अजीब है.
धर्म के आधार पर बंटवारा की जरूरत
रेडक्लिफ पहले अपने जीवन में कभी पूर्व तक नहीं गए थे और उन्हें इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट के पास होने के बाद दो सीमा समितियों का चेयरमैन बनाया गया था. उन पर औपनिवेशिक जिम्मेदारी सौंपी गई थी कि वे दो देश भारत और पाकिस्तान की सीमा रेखा बनाएं जिसे तय करने का आधार हिंदू और मुस्लिम बहुल इलाके थे.
क्या कम समय मिला था
रेडक्लिफ को इस काम पूरा करने के लिए केवल पांच हफ्ते का वक्त मिला था जो कि पर्याप्त समय नहीं था. उन्होंने नक्शे बनाकर 9 अगस्त 1947 को ही दे दिए थे. उसमें भी हैरानी की बात यह रही कि इसका औपचारिक ऐलान पाकिस्तान की आजादी के तीन और भारत की आजादी के दो दिन बाद 17 अगस्त 1947 को हो सका था.
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क्यों चुना गया रेडक्लिफ को
रेडक्लिफ का भारत से कोई लेना देना नहीं था. इसलिए उन्हें एक हिंदू और एक मुस्लिम वकील की मदद से विभाजन रेखा की जिम्मेदारी दी गई. इसके अलावा एक आरोप यह भी लगाया जाता है कि खुद रेडक्लिफ ने अपनी रिपोर्ट देर से सौंपी थी. लेकिन यह भी सच है कि अंग्रेज जानते थे कि बंटवारे की लकीर भविष्य में भी उनकी भूमिका पर सवाल जरूर खड़ा करेगी इसलिए वे एक निष्पक्ष व्यक्ति चाहते थे इसीलिए उन्होंने रेक्लिफ को चुना.
नहीं लिया कोई पैसा
कई लोगों को मानना था कि अंग्रेजों ने सोची समझी नीति के तहत ही रेडक्लिफ को चुना था जिससे वे कम समय का बहाना बना कर अपनी जिम्मेदारी से पीछे हट सकें. खुद रेडक्लिफ ने कहा था कि अगर उन्हें दो से तीन साल का समय मिल जाता तो वे बेहतर नतीजे दे पाते. बाद में जब उन्हें पता चला कि उनकी काम से भारत और पाकिस्तान में कोई भी संतुष्ट नहीं हैं, तो उन्होंने इसका काम के लिए मिलने जा रहा पैसा नहीं लिया और तय किया कि वे कभी भारत नहीं लौटेंगे.
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इस काम के बाद रेडक्लिफ ने ब्रिटेन में कई तरह की वैधानिक जिम्मेदारियां संभाली जिसमें वे कई जगह के ट्रस्टी, गवर्नर, चेयरमैन बनते रहे. लेकिन उनका कभी भारत से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कोई वास्ता नहीं रहा. 1957 में वे मुद्रा और क्रेडिट सिस्टम की पड़ताल के लिए बनी समिति के चेयरमैन भी बने जो रेडक्लिफ कमेटी के नाम से मशहूर हुई थी. एक अप्रैल 1977 को उनकी 78 साल की उम्र में मौत हो गई थी.
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