बीते दो दशकों में हिमालय के ग्लेशियर का पिघलना बढ़ा है
उत्तराखंड के चमोली में ग्लेशियर टूटने की वजह से तपोवन हाइड्रो प्रोजेक्ट का बांध टूट गया. साथ ही इससे अलकनंदा और धौली गंगा उफान पर हैं. यानी कुल मिलाकर एक बड़ा हादसा हो चुका है. वैसे ग्लेशियर टूटने से लेकर पिघलने का दोष विशेषज्ञ ग्लोबल वॉर्मिंग को देते आ रहे हैं. एक स्टडी बताती है कि हिमालय के लगभग 650 ग्लेशियर भी ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण तेजी से पिघल रहे हैं.
पिघल रहा हिमालय
बीते दो दशकों में हिमालय के ग्लेशियर का पिघलना बढ़ा है. ये बात साल 2019 में हुई एक स्टडी में सामने आया. स्टडी के तहत 40 सालों तक भारत, चीन, नेपाल और भूटान में फैले हिमालयन ग्लेशियरों पर सैटेलाइट के जरिए नजर रखी गई, जिसमें ये नतीजे निकलकर आए कि ग्लोबल वॉर्मिंग इन ग्लेशियरों को पिघला रही है. साल 1975 से 2000 तक हर साल औसतन 400 करोड़ टन बर्फ पिघलती रही, लेकिन इसके बाद के सालों में ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार दोगुनी हो चुकी है.
कैसी की गई स्टडी
स्टडी के नतीजे विज्ञान पत्रिका साइंस एडवांसेज (Science Advances) में प्रकाशित हुए. धरती की तस्वीरें खींचने के लिए अमेरिका ने 70 और 80 के दशक में जासूसी उपग्रह अंतरिक्ष में भेजे थे. उनसे मिले चित्रों को थ्री डी मॉड्यूल में बदलकर ये शोध हुआ. इसके मुताबिक 1975 से 25 सालों तक हिमालय रेंज के ग्लेशियर जहां हर साल 10 इंच तक घट रहे थे, वहीं 2000 से 2016 के बीच हर साल औसतन 20 इंच तक घटे.
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क्या नतीजे रहे
स्टडी में पाया गया है कि 2 हज़ार किलोमीटर से ज्यादा लंबी पट्टी में फैले हिमालयन क्षेत्र का तापमान एक डिग्री से ज़्यादा तक बढ़ चुका है, जिसकी वजह से ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार दोगुनी हो गई है. शोधकर्ताओं ने 40 सालों के इन उपग्रही चित्रों का अध्ययन नासा और जापानी अंतरिक्ष एजेंसी जाक्सा के ताज़ा डेटा के विश्लेषण के साथ किया तो पाया कि कैसे हिमालयीन क्षेत्र बदल रहा है और कैसे 650 ग्लेशियरों पर खतरा बढ़ रहा है.
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ये देश चुकाएंगे कीमत
हिमालय के ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार दोगुनी होने के बाद आठ देशों के लिए खतरे की घंटी बजी है. भारत, चीन, म्यांमार, नेपाल, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश और भूटान, ये आठ देश हिंदुकुश हिमालय क्षेत्र में हैं और 650 ग्लेशियरों के खतरे में आने के बाद यहां के जनजीवन पर भारी असर पड़ने वाला है.
तो कब तक पिघल जाएंगे हिमालय के ग्लेशियर?
अगर ग्लोबल वॉर्मिंग के खतरे के मद्देनज़र चलाए जा रहे ग्लोबल क्लाइमेट प्रयास नाकाम हुए तो साल 2100 तक हिमालय क्षेत्र के दो तिहाई ग्लेशियर पिघल चुके होंगे. इस खतरे की भयावहता को आप ऐसे भी समझ सकते हैं कि ग्लोबल वॉर्मिंग से निपटने के लिए जो महत्वाकांक्षी पेरिस समझौता हुआ, उसका लक्ष्य है कि इस सदी के आखिर तक ग्लोबल वॉर्मिंग को डेढ़ डिग्री तक सीमित किया जाए लेकिन ऐसा कर पाने के बावजूद तब तक 2.1 तक डिग्री तापमान बढ़ चुका होगा.
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इसका नतीजा ये होगा कि दो तिहाई तक हिमालयीन ग्लेशियर पिघल चुके होंगे और एशिया के जिन इलाकों में इन ग्लेशियरों के कारण नदियां प्रवाहित होती हैं, उन पर निर्भर करने वाली करीब दो अरब लोगों की आबादी सीधे तौर पर जीवन संकट से जूझेगी.
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ये है खतरे का सीधा गणित
ग्लेशियरों के पिघलने का सबसे पहला नतीजा होगा भयानक बाढ़. जैसा कुछ साल पहले हम केदारनाथ में देख चुके थे. इसके दूरगामी नतीजे ये होंगे कि ग्लेशियर पिघलने के कारण समुद्र का जलस्तर बढ़ जाएगा, जबकि नदियों को तेज़ी से घटेगा. खेती, भोजन, ऊर्जा और प्रदूषण पर इसका असर होगा. डेढ़ अरब से ज़्यादा की आबादी के लिए भोजन पैदा होने की समस्या होगी, तापमान बढ़ने के साथ ही वायु प्रदूषण तेज़ी से बढ़ेगा और ऊर्जा के कई साधन बहुत तेज़ी से ठप होते जाएंगे.
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