"राजा नहीं फकीर है भारत की तकदीर है". 80 के दशक के आखिरी सालों में हिंदी बोलने वाले इलाकों में ये नारा खासा बोला जाता था. इसी के साथ विश्वनाथ प्रताप सिंह (Vishwanath Pratap Singh) भारतीय राजनीति के पटल पर नए मसीहा और क्लीन मैन की इमेज के साथ अवतरित हुए थे. 1987 में भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू हुई उनकी मुहिम ने देश का मिजाज ही बदल दिया. वो एक नई राजनीतिक ताकत बन गए.
यह वो समय था जिसमें वीपी सिंह की आंधी थी. वीपी सिंह के पास इलाहाबाद के नजदीक मांडा स्टेट की रियासत थी. प्यार से उन्हें ‘राजा साहब’ कहा जाता था. वो स्वभाव से शालीन और अपने मूल्यों पर जीने वाले व्यक्ति थे.

राजीव गांधी की सरकार के खिलाफ वीपी सिंह ने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर बड़ा प्रचार अभियान चलाया था.
वीपी सिंह ने राजीव को मात दी
1987-90 तक की राजनीति में वो धूमकेतु की तरह छाए रहे. दिलचस्प यह है कि न ही उनके पास कोई संगठन था और न किसी विचारधारा का आलम्बन. थी तो सिर्फ एक छवि जो साफ-सुथरे ईमानदार राजनेता की थी. इसी के भरोसे उन्होंने राजीव गांधी की शक्तिशाली कांग्रेस को चुनौती दी. वामपंथ और दक्षिणपंथ यानी बीजेपी उनके साथ हो लिए. 1989 के चुनाव में राजीव गांधी को शिकस्त दी.
फिर अजीब भटकाव में आ गई उनकी राजनीति
नि:संदेह यह मामूली घटना नहीं थी. प्रधानमंत्री बनने के बाद वीपी सिंह अपनी राजनीति में फंस के रह गए. भितरघात के अलावा बीजेपी का फैलाव उनके लिए मुसीबत का सबब बना. संगठनात्मक ढांचा न होने के कारण उनकी राजनीति भी एक अजीब भटकाव के दौर में आ गई.
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चौधरी देवीलाल की चुनौती से निपटने के लिए उन्होंने मंडल आयोग का सहारा लिया. आरक्षण एक जरूरत है इसका उन्हें एहसास था. पर समाज इसके लिए तैयार नहीं था. न ही कोई ऐसी राजनीतिक पहल हुई कि समाज को इसके लिए तैयार किया जाए.
फिर बाजी हाथ से निकल गई
वीपी सिंह देश की भावनात्मक राजनीति के शिकार हुए. एक वक्त का मसीहा अब समाज के कुछ वर्ग को शैतानी शक्ल में दिखने लगा. वीपी सिंह को समझते देर न लगी कि बाजी उनके हाथ से निकल गई है. उनकी स्वीकार्यता का दायरा संकीर्ण हो गया है. यही वजह है कि प्रधानमंत्री पद छोड़ने के बाद सत्ता की राजनीति से वो दूर रहे. लेकिन सामाजिक न्याय की प्रतिबद्धता में उन्होंने कभी कमी नहीं दिखाई.
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केंचुए को मरना पड़ता है तितली के जन्म के लिए
वीपी सिंह को पता था कि पिछड़ों की राजनीति के वो नेता नहीं हो सकते हैं. एक बार उन्होंने इस बात को स्वीकारा. पर फिर उन्होंने कहा, ‘केंचुए को मरना पड़ता है तितली के जन्म के लिए.’ क्या हुआ अगर मैं सामाजिक न्याय का नेता नहीं हूं तो? उनका जवाब और सवाल दोनों सार्थतकतापूर्ण थे. आज तक मेरे कानों में गूंजते हैं.
सामाजिक न्याय के नेताओं से नाखुश थे
पर क्या वीपी सिंह सामाजिक न्याय से निकले नेताओं से खुश थे? मसलन लालू यादव, मुलायम सिंह यादव. मायावती. जीवन के अंतिम दौर में उन्होंने एक बार तकलीफ प्रकट की कि यह सकारात्मक आंदोलन कैसे लोगों के पास चला गया है? उन्होंने कहा ‘इसीलिए तो आज यह हालत है.’ यह दौर था जब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी.

एक सियासी नेता के तौर पर वीपी सिंह का विश्लेषण कई तरह से हो सकता है. पहले वो गांधी परिवार इंदिरा, संजय और राजीव गांधी के चाटुकार बने रहे. फिर मौका देखकर उन्हें ही नुकसान पहुंचाया.
क्या उन्होंने मौकापरस्त राजनीति की
एक राजनीतिक व्यक्ति के रूप में वीपी सिंह का विश्लेषण कई तरह से हो सकता है. उनकी कई व्यक्तिगत व राजनीतिक खामियां गिनाई जा सकती हैं. मसलन उन पर संजय गांधी और इंदिरा गांधी की चाटुकारिता का आरोप लगता है.
बाद में उनका नाम अंधेरे में खो गया
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्रित्व काल में उन्होंने फर्जी एनकाउंटर को प्रोत्साहित किया. हर व्यक्ति की तरह वीपी सिंह को काले और सफेद में देखना बेमानी है. इसमें जरा भी संदेह नहीं कि राजनीति व सार्वजनिक जीवन में उन्होंने ईमानदारी, शुचिता व मूल्यों की पुरजोर वकालत की.
जीवन के अंतिम क्षण तक वो अपनी शर्तों पर जीते रहे. देश के शीर्षस्थ पद पर रहने और राजसी पृष्ठभूमि के बावजूद उनमें समाज, विशेषकर गरीबों के लिए कुछ करने का जज्बा था. राजनीतिक संगठन न होने की वजह से उनका नाम अंधेरे में भले खो गया हो पर यह भी सच है कि अपने समकालीन अग्रणी नेताओं में वो चमत्कारी व्यक्तित्व थे.
(इसे अजय सिंह ने "फर्स्ट पोस्ट" में लिखा था. इसे हम दोबारा प्रकाशित कर रहे हैं) ब्रेकिंग न्यूज़ हिंदी में सबसे पहले पढ़ें News18 हिंदी| आज की ताजा खबर, लाइव न्यूज अपडेट, पढ़ें सबसे विश्वसनीय हिंदी न्यूज़ वेबसाइट News18 हिंदी|
Tags: Allahabad news, Prime minister
FIRST PUBLISHED : November 27, 2020, 11:28 IST