बैंकों में जमा पैसा उधार देने के लिए उपयोग में लाया जाता है. (प्रतीकात्मक तस्वीर: Pixabay)
आर्थिक विश्व में दुनिया एक बार फिर से सुर्खियों में हैं. पहले अमेरिका के सिलिकॉन वैली बैंक और फिर स्विट्जरलैंड के क्रेडिट स्विसी बैंक संकटग्रस्त हो गया. अब जर्मनी के डॉयचा बैंक पर भी खतरा मंडराने लगा है. और ऐसा लगता है कि सिलसिला चलने को है. इस तरह के संकटों के पीछे की बड़ी वजह घरों की कीमतें गिरना और उधार लेने वालों की संख्या बहुत ही ज्यादा बढ़ना बताई जा रही है. इससे लोगों का प्रतिक्रिया स्वरूप लोगों में अविश्वास आया और बैंक मुसीबत में आ गए. यहां एक सवाल उठता है कि आखिर बैंक हमारे द्वारा जमा किए गए पैसों का करते क्या हैं?
पुराने समय में उधार
इस सवाल के जवाब को समझने के लिए बैंकों के तंत्र को समझना होगा. बहुत पहले हमारे देश में महाजन हुआ करते थे जो लोगों को उधार देने का काम करते थे. आम तौर पर ऐसे लोग अमीर लोग हुआ करते थे जिनके पास पैसा था और लोगों से उन्हें दिए गए पैसा वसूलने की ताकत भी थी. वहीं राजा महाराजा अपनी खजाना मंदिरों या तहखाने में बंद रखते थे तो अमीरों के पास भी बड़ी तिजोरियां हुआ करती थी.
महाजन सबसे पुराने बैंक
धीरे धीरे यह व्यवस्था पनपी कि अमीर लोग अपना पैसा महाजनों के पास पैसा जमा कराने लगे जिसके बदले उन्हें मामूली रकम मिलती थी. वहीं महाजन उस जमा पैसे का उपयोग दूसरों को उधार देने में किया करने लगे. मूल रूप से यही व्यवस्था बैंकिंग तंत्र बाद में यही काम सरकार खुद बैंकों के नाम से करने लगी और कानूनी तौर पर अमीर महाजनों ने भी निजी बैंकों का विकास किया.
बचत को प्रोत्साहन
सरकार के बैंक तंत्र खोलने का फायदा यह हुआ कि आम लोगों को भी बचत के लिए प्रोत्साहित किया जाने लगा जिससे बैंकों के पास जमा रकम बढ़ने लगी और उन्हें उधार देने के ज्यादा अवसर मिले जिससे वे ज्यादा ब्याज के जरिए अपनी कमाई कर सकते थे. धीरे धीरे लोगों से पैसा लेने के तरीकों में भी कुछ बदलाव आए और शेयरों एवं प्रतिभूतियों के क्रय विक्रय की अवधारणा भी आई.
बदलता हुआ आर्थिक तंत्र
खुद बैंकों ने भी यह काम शुरू किया और आज हम देखते हैं कि बैंक खुद भी शेयरों में पैसा लगाते है. बड़ी कंपनियों ने भी एक ही जगह से उधार लेने का जोखिम कर किया कुछ बैंकों से तो कुछ शेयरों के जरिए पैसा जुटाना शुरू किया. वहीं बैंकों ने भी शेयरों घरों के लिए लोन, सोने की खरीद फरोख्त यहां तक विदेशी मुद्रा की खरीद फरोख्त जैसे कामों में पैसा लगाना शुरू कर दिया.
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संतुलन की जरूरत
सवाल यह उठता है कि आखिर बैंक संकट में आते ही क्यों हैं. इसकी वजह बैंकिंग तंत्र में ही छिपी है. दरअसल बैंकों को जितना पैसा वे जमाकर रखते हैं और जितना पैसा वे उधार या कर्ज देते हैं, उन्हें उसमें संतुलन रखना होता है. उन्हें यह ध्यान रखना होता है कि कर्जदार और उनका कर्जा ज्यादा ना हो और उनके पास इतना पैसा हो कि ग्राहक जरूरत पड़ने पर पैसा बैंक से निकाल सके.
विश्वास और संकट
सरकार और सरकार का केंद्रीय बैंक तय करता है कि बैंकों को कितना हिस्सा ग्राहकों को लिए तैयार रखना चाहिए. इसे तरलता या लिक्विडिटी शब्द से व्यक्त किया जाता है. जब बैंकों का कर्जा ज्यादा हो जाए या किसी भी वजह से लोगों का बैंकों पर से विश्वास कम या खत्म हो जाए तो ज्यादा से ज्यादा ग्राहक बैंक से पैसा निकालने लगते हैं जिससे बैंको पर संकट आ जाता है क्योंकि वे ग्राहकों को पैसा लौटाने की स्थिति में नहीं होते हैं.
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फिलहाल बैंकों के साथ यही हो रहा है. बैंकों को ग्राहक देखते हैं कि बैंकों पर कर्ज ज्यादा हो रहा है या अन्य किसी भी तरह की समस्या आ रही है तो उनका बैंक पर से विश्वास उठ जाता है क्योंकि उन्हें लगता हैं की अब बैंकों के पैसा लौटाने की क्षमता कम या खत्म होने लगी है और ग्राहक अपना जमा पैसा निकालने पहुंच जाते हैं. इससे बैंकों की मुसीबत और बढ़ जाती है और बैंक संकट में आ जाते हैं. सरकारी या और बड़े बैंकों का दखल ग्राहकों की इसी विश्वास की बहाली का प्रयास होता है जैसा हम एसयूवी बैंक के मामले में देख रहे हैं.
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