भारत के इतिहास (Indian History) में 10 मई 1857 को भारत में एक क्रांतिकारी (Revoltion) की चिंगारी फूटी जिसकी आग ने देश के बहुत सारे हिस्सों को अपने लपेटे में ले लिया था. कुछ समय बाद यह आंदोलन कुचल दिया गया. इस आंदोलन की कई तरह से व्याख्या करने के प्रयास किए गए. कुछ लोगों ने इसे केवल छोटी से सैन्य बगावत कहा, तो कुछ लोगों ने ईसाइयों के खिलाफ हिंदू मुसलमानों का सुनियोजित षड़यंत्र, तो इसे प्रथम राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन (First National Independence Movement) भी कहा गया. लेकिन यह समझना भी जरूरी है कि इस पूरे घटनाक्रम को जो भी नाम दिए गए वो क्यों दिए गए, किस परिपेक्ष्य में दिए गए और क्या उसके पीछे कोई निहित उद्देश्य था.
कई घटनाओं का नतीजा थी यह क्रांति
19वीं सदी की पूर्वार्ध में ईस्ट इंडिया कंपनी के रूप अंग्रेज भारत के कई क्षेत्रों में हावी हो गए थे. सिक्खों को हराकर पंजाब और सिंध पर कब्जा कर लिया, मध्य में मराठाओं के पेशवा से उनकी पदवी छीन ली, इसके बाद बरार और फिर 1856 में अवध पर कब्जा कर लिया. वहीं अपनी नीतियों के कारण झांसी भी छीन ली थी. इस तरह से अंग्रेजों ने कई इलाकों के राजाओं को सत्ता से हटाकर विरोध के बीज बो दिए थे जो बाद में विद्रोह के तौर पर पनपे.
अंग्रेजों के खिलाफ वातावरण
अग्रेजों के खिलाफ पिछले कई सालों या दशकों से ही जनमानस में नापसंदगी का भाव पैदा होने लगा था. कई राजाओं से अनैतिक रूप से राज्य हड़पना भारी संख्या में लोगों को नाराज कर गया. ईसाई धर्म के प्रसार के प्रयास भी अंग्रेजों के खिलाफ माहौल बनने का एक कारण बने. इसके अलावा अंग्रेजों के नियम कानून हिंदू मुसलमानों को धार्मिक रूप से आहत वाले कठोर नियम साबित हुए. इसके अलावा अंग्रेजो का आर्थिक शोषण लोगों में ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ नाराजगी का सबसे बड़ा कारण था.
एक तात्कालिक कारण
अंग्रेजी सैन्य छावनियों में नई एनफील्ड राइफल आने से हिंदुस्तानी मूल के सैनिकों में फैला असंतोष इस आंदोलन या क्रांति का तात्कालिक कारण बताया जाता है. 10 मई 1857 को शुरुआती घटना मानी जाती है वह भी पिछले कुछ दिनों से जारी असंतोष का नतीजा भर था. एन्फील्ड राइफल के कारतूस में सुअर की चर्बी का होना जिसे राइफल में भरने से पहले मुंह से काटना प़ड़ता था. मंगल पांडे की फांसी ने विद्रोह निश्चित ही कर दिया था.
सैनिकों के सब्र का बांध टूटा
सैन्य विद्रोह की नींव साबित हुआ जिसने बाद में एक व्यापक रूप ले लिया. वैसे तो इस बगावत की तैयारी पहले से चल रही थी, लेकिन 10 मई को मेरठ की छावनी में 85 जवानों के सब्र का बांध टूट गया और उन्होंने मिल कर इसकी शुरुआत समय से पहले ही कर दी. देखते ही देखते यह आग की तरह फैल गई. दिल्ली, कानपुर, अवध, हरियाणा, बिहार, सेंट्रल प्रोविंस आदि में फैलने लगी.
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केवल सैन्य विद्रोह तो बिलकुल नहीं
एक दलील यह दी जाती है कि यह मात्र एक सैन्य विद्रोह था. ऐसा अंग्रेजी इतिहासकार कहते हैं. वे इसकी व्यापकता को भी चुनौती देते हैं. लेकिन ऐसा नहीं था. हां इस आंदोलन की शुरुआत को एक तरह सैन्य विद्रोह से हुई शुरुआत माना जा सकता है, लेकिन जिसतरह से बागी सैनिको को अलग अलग जगह पर सैन्य समर्थन मिला और इससे बाहदुर शाह जफर से लेकर झांसी की रानी जैसे कई राज्यों के बड़े जुड़े यह एक बड़े आंदोलन में ही तब्दील हो गया था.
बहुत से नेता पर समन्वय की कमी
एक दलील दी जाती है कि इस आंदोलन में एकीकृत नेतृत्व की कमी थी, एकजुटता और सामंजस्य की कमी थी. यह इस आंदोलन की नाकामी के कारणों में शामिल किया जा सकता है. लेकिन इस आधार पर इसे क्रांतिकारी आंदोलन के तौर पर खारिज नहीं किया जा सकता. इसमें हर तरफ स्थानीय स्तर पर जरूर नेतृत्व मिला उनमें एक जुटता भी थी, लेकिन एक समन्वय नहीं दिखा. इतना ही नहीं कई राज्यों के राजाओं ने अंग्रेजों का साथ भी दिया. लेकिन इससे आंदोलन की व्यापकता कम नहीं हुई.
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वास्तव में यह अंग्रेजों से छुटकारा पाने का आंदलोन था. एक तरह से आजादी की लड़ाई ही थी क्योंकि यह पहली बार इतने व्यापक स्तर पर एकजुट होकर लड़ी गई थी. इस आंदोलन का ही प्रभाव था कि जहां ईस्ट इंडिया कंपनी से शासन की बागडोर ब्रिटिश शासन के हाथ में चली गई. देश भर में भी स्वतंत्रता के लिए कुलबुलाहट बढ़ने लगी जो आगे के आंदलोनों में स्पष्ट तौर पर दिखाई दी. इस आंदोलन से ही हिंदु मुसलमान अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट हुए थे.
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