इंटरनेशनल ट्रैवल के लिए दुनियाभर में वैक्सीन पासपोर्ट (vaccine passport) जारी करने की तैयारी हो रही है. ये पासपोर्ट इस बात का सबूत होगा कि आपने कोरोना वैक्सीन (corona vaccine) का पूरा डोज ले लिया है और अब किसी देश के लिए खतरा नहीं. वैसे वैक्सीन पासपोर्ट का आइडिया नया नहीं, बल्कि 20वीं सदी की शुरुआत में ही ये चलन में आ चुका था. तब अमेरिका में स्मॉल पॉक्स बीमारी का आतंक था. ऐसे में यहां से वहां जाने के लिए लोगों को बताना होता था कि वे सुरक्षित हैं. ये सबूत केवल दूर-दराज की यात्रा में नहीं, बल्कि रोजमर्रा के कामों के लिए बाहर निकलने पर भी चाहिए होता था.
जानलेवा थी स्मॉलपॉक्स की बीमारी
अमेरिका में स्मॉल पॉक्स के कारण लगातार जानें जा रही थीं. जो बच जाते, वे नेत्रहीन हो जाते या फिर कोई गंभीर समस्या हो जाती. माना जाता है कि साल 1899 से लेकर साल 1904 तक इससे लगभग 1,64,283 जानें गईं. हालांकि ये केवल आधिकारिक आंकड़ा है, असल नंबर इससे कहीं ज्यादा हो सकता है.
पहला वैक्सीन पासपोर्ट बना
स्मॉल पॉक्स एक महामारी थी, जिससे बचने के लिए बहुतेरे उपाय खोजे गए. इन्हीं में से एक उपाय वैक्सीन पासपोर्ट से मिलता-जुलता था. लेकिन यहां केवल कागज दिखाने से काम नहीं चलता था, बल्कि ये भी दिखाना होता था कि फलां जगह आपको स्मॉल पॉक्स का टीका लग चुका है. बांह पर बना वो निशान दुनिया का पहला वैक्सीन पासपोर्ट माना जाता है.

वैक्सीन लेने के दौरान होने वाले दर्द को टालने के लिए लोगों ने कई चालाकियां भी दिखाईं- सांकेतिक फोटो
इसके लिए सुझाव कई डॉक्टरों की ओर से आया था, जिनमें से एक थे शिकागो में रश मेडिकल कॉलेज के फिजिशियन डॉ जेम्स हाइड. उन्होंने वैक्सीन पासपोर्ट के पक्ष में बात करते हुए कहा था कि ये निशान किसी भी पब्लिक जगह पर जाने के लिए अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए.
शरीर पर दाग भी देखा जाता
अधिकारी हर एंट्री पॉइंट पर इसकी जांच करने लगे. सबसे पहले तो वे लोगों के कागजात जांचते, जिसके बाद उनकी बांह पर दाग देखा जाता. जो लोग स्मॉल पॉक्स से जूझकर बाहर निकलें हों, उनके चेहरे या शरीर के खुले हिस्से पर दिखने वाले दाग भी एक तरह की तसल्ली होते कि अब इसे संक्रमण नहीं होगा. इस बात का जिक्र 1910 में अल पासो अखबार में था, जिसका जिक्र सीएन ट्रैवलर नाम की वेबसाइट में है.
वैक्सीन से जख्म हो जाता
हालांकि सुनने में जितना आसान लग रहा है, तब वैक्सीन लेना उतना आसान था नहीं. ये काफी दर्दनाक प्रक्रिया होती. स्मॉल पॉक्स की शुरुआती वैक्सीन में स्किन में घाव करके भीतर जिंदा वायरल डाले जाते. इसके बाद वैक्सीन लेने वाले को बुखार आ जाता, दर्द होता. जब घाव ठीक होता तो वहां गहरा निशान बन जाता.

त्वचा को खुरचकर घाव बनाया जाता, जिसमें जीवित वायरस डाले जाते- सांकेतिक फोटो (flickr)
तब भी थे वैक्सीन का विरोध करने वाले
वैक्सीन लेने के दौरान होने वाले दर्द को टालने के लिए लोगों ने कई चालाकियां दिखाईं. कुछ लोग वैक्सीन के असर पर सवाल उठाते. कुछ का तर्क था कि त्वचा को खुरचकर घाव बनाने के चलते टिटनेस या सिफलिस जैसी घातक बीमारी हो सकती है. वहीं कई एंटी-वैक्सर भी थे, जो इस प्रक्रिया को निजी जीवन में दखल की तरह देखते.
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नकली सर्टिफिकेट बनने लगे
वैक्सीन लिए बगैर घूम-फिर सकने का कोई रास्ता नहीं था. ऐसे में लोगों ने नकली सर्टिफिकेट बनाना भी शुरू कर दिया. कई पेरेंट्स अपने बच्चों को वैक्सीन के लिए अनफिट बताने लगे और डॉक्टरों से नकली सर्टिफिकेट भी लेने लगे. कई लोग खुद ही डॉक्टरों का नकली दस्तखत तैयार करने लगे.
हेल्थ एक्सपर्ट को नकली सर्टिफिकेट वाले स्कैम का अंदाजा था. लिहाजा वे एक कदम आगे निकलते हुए केवल कागज नहीं, बल्कि शरीर पर वैक्सीन का निशान दिखाने की मांग करने लगे. अमेरिका में सड़कों पर तब जहां-तहां एक वाक्य सुनाई देता- शो अ स्कार. इसका भी कुछ लोगों ने तोड़ निकाल लिया. वे नाइट्रिक एसिड से बांह पर निशान बनाने लगे ताकि सार्वजनिक जीवन जीने में आसानी हो.
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Tags: America, Corona vaccine, Coronavirus Third Wave, Coronavirus vaccine india, Research on corona
FIRST PUBLISHED : July 15, 2021, 07:29 IST