जीवी मावंलकर (GV Mavalankr) ने संसदीय परंपरा के नए मानदंड स्थापित किए थे. (प्रतीकात्मक तस्वीर: Wikimedia commons)
भारत में आजादी के बाद संविधान 1950 में लागू हुआ जिसके तहत पहले लोकसभा चुनाव के बाद 1952 में पहली लोकसभा (First Lok Sabha of India)का गठन हुआ और द्विसदनीय व्यवस्था की लोकसभा में एक बड़ी सरल सी लगने वाली घटना एक बहुत बड़ी चुनौती थी. वह थी लोकसभा के स्पीकर या अध्यक्ष के चुनाव की. संसदीय व्यवस्था में लोकसभा की बड़ी ताकत होती है जिसमें सरकार और कानून बनाने की प्रक्रिया में एक बड़ी भूमिका होती है. इसलिए लोकसभा के संचालन में लोकसभा अध्यक्ष (Speaker of Lok Sabha) का कार्य बहुत ही जिम्मेदारी और संवेदनशील होता है. यह जिम्मेदारी जीवी मावंलकर (GV Mavalankr) को सौंपी गई थी. जिन्होंने लोगों की उम्मीद से बढ़ कर अपनी भूमिका बखूबी निभाते हुए बेहतरीन मानदंड स्थापित किए.य
एक शानदार वकील के रूप में मशहूर
गणेश शंकर वासुदेव का जन्म गुजरात के वडोदरा में 27 नवंबर 1888 को एक मराठी परिवार में हुआ था. शुरुआती शिक्षा के बाद वे 14 साल की उम्र में वे आगे की पढ़ाई के लिए अहमदाबाद चले गए थे जहां उन्होंने स्नातक की उपाधि हासिल की. इसके बाद उन्होंने 1912 में कानून की पढ़ाई पूरी की जिसके बाद वे एक बड़े वकील के रूप में प्रसिद्ध हुए.
सामाजिक कार्य और राजनीति में प्रवेश
मवलंकर कानून के अलावा सामाजिक कार्यों में बहुत ज्यादा दिलचस्पी रखते थे और गुजरात के कई सामाजिक संगठनों से जुड़े, 1913 में वे गुजरात एजुकेशन सोसाइटी के मानद सचिव पद ग्रहण करने के बाद 1916 में वे गुजरात सभा के भी सचिव रहे. इन्हीं सामाजिक गतिविधियों के जरिए वे स्वराज पार्टी और कांग्रेस के भी सदस्य भी बने.
1937 से स्पीकर का अनुभव
मावलंकर ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में असहयोग आंदोलन के जरिए प्रवेश किया और कुछ समय के लिए स्वराज पार्टी से जुड़ने के बाद वे वापस कांग्रेस में आ गए थे. गांधी जी के नमक सत्याग्रह में भाग लेकर उन्होंने कांग्रेस के साथ 1934 के चुनावों का भी बहिष्कार किया. 1937 के चुनावों में जब वे बॉम्बे प्रॉविंस की विधानसभा के लिए चुने गए थे तो उसके स्पीकर चुने गए थे. इस पद पर वे 1946 तक रहे थे.
संविधान सभा से पहले लोकसभा तक
उसके बाद वे सेंट्रल लजिस्लेटिव एसेंबली के लिए चुने गए थे. और बाद में संविधान सभा के भी सभापति के तौर पर उन्हें चुना गया तो वहां भी उन्होंने अपने पद के साथ बखूबी न्याय किया और संविधान लागू होने तक इस पद की गरिमा को नई ऊंचाइयां प्रदान करते रहे इसलिए कोई हैरानी की बात नहीं थी कि जब पहले लोकसभा के स्पीकर के पद के चुनने की बारी आई तो मावलंकर सभी की पहली पसंद थे.
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निष्पक्षता की मिसाल
दादासाहेब के नाम से मशहूर मावलंकर अपनी निष्पक्षता के लिए बहुत मशहूर थे. कांग्रेस का सदस्य होने के बाद भी उन्हें किसी भी पार्टी का सदस्य नहीं माना जाता था. यह भूमिका में उन्होंने 1937 से स्पीकर का पद संभालने के बाद बनाई थी. उनके इसी अनुभव की वजह से उन्हें पहले संविधान सभा का सभापति और फिर पहली लोकसभा का अध्ययक्ष चुना गया.
क्या थे मवलंकर के पहले शब्द
लोकसभा के अध्ययन बनने के बाद मालवंकर ने सबसे पहले कहा कि जब तक लोग अलग-अलग नजरिए और विचारधारा रखते हैं, उनमें अलग स्तर की सहनशीलताएं होती हैं, दूसरों को अपना पक्ष समझाने का प्रयास करते हैं, तभी तक संसदीय सरकार के सफल होने की संभावना है. बहुत सारे कानून या नियम वांछनीय नतीजे नहीं देंगे, बल्कि एकदूसरे के प्रति जिम्मेदार से कार्य करने का भाव हमें नतीजे देगा.
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मावलंकर के इसी भाषण को सुन कर ही देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उन्होंने लोकसभा के पिता की उपाधि प्रदान की थी. वे साल 1956 तक स्पीकरके पद पर रहे और तब तक उन्होंने इस पद की गरिमा को ना केवल बनाए रखा, बल्कि आने वाले उनके उत्तराधिकारियों के लिए एक नहीं बल्कि बहुत सारी मिसालें कायम कीं.
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Tags: History, Indian, Research
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