विज्ञान जगत (Science) में कई बार एक खोज का महत्व उस समय उतना नहीं दिखता जब वह खोज की जाती है. वहीं कुछ खोज अपने आप में ही कुछ खास नहीं दिखती, लेकिन बाद में उसके आयाम खुलने पर ही वह खोज बहुत बड़ी बन जाती है. हरगोविंद खुराना (Har Gobind Khorana) का जब भी नाम लिया जाता है तो कई बड़ी खोजें और वैज्ञानिक उपलब्धियों का नाम याद आता जो उनके “न्यूक्लिक एसिड में न्यूक्लियाइड के क्रम” की खोज के कारण संभव हो सकीं. इस कार्य के लिए उन्होंने चिकित्सा का नोबेल पुरस्कार साझा किया. इस खोज ने अनुवांशिकी की दुनिया को बदल कर रख दिया. 9 जनवरी को उनकी जन्मतिथि है.
विपरीत हालातों में पढ़ाई
हरगोविंद खुराना का जन्म ब्रिटिश भारत के रायपुर गांव के पंजाब (अब पाकिस्तान में) प्रांत में हुआ था. वे अपने गांव के इकलौते पढ़े लिखे परिवार से थे. उनके पिता गणपत राय ब्रिटिश प्रशासन में क्लर्क थे. पिता अपने बच्चों को आर्थिक कमजोरी के बाद भी शिक्षा दिलवाते रहे. पांच भाई बहनों में हरगोविंद सबसे छोटे था. 12 साल की उम्र में उनके सिर से पिता का साया उठ गया. ऐसे में बड़े भाई ने हरगोविंद की पढ़ाई का जिम्मा लिया.
विदेश में उच्च शिक्षा
कॉलेज की पढ़ाई के दौरान हरगोविंद को छात्रवृत्ति मिली और उन्होंने 1945 में पंजाब विश्विद्यालय से एमएससी की डिग्री हासिल की. इसके बाद वे पढ़ाई करने इंग्लैंड चले गए. इंग्लैंड में डॉक्टरेट की उपाधि पाने के बाद में ज्यूरिख में शोधकार्य किया जिसके बाद 1951 में कैम्ब्रिज विश्विद्यालय चले गए जां उन्होंने न्यूक्लिक एसिड पर शोध करना शुरू कर दिया. 1952 में उन्होंने एस्तेर एलिजाबेथ सिब्लर से शादी कर ली.
अमेरिका में जाकर बसे
इसके बाद ब्रिटिश कोलंबिया यूनिवर्सिटी में उन्हें शोध करने के लिए खुली छूट मिली जहां उन्होंने “न्यूक्लिक एसिड और सिंथेसिस ऑफ मैनी इम्पॉर्टेंट बायोमॉलीक्यूल्स” पर प्रमुख तौर पर काम किया. 1960 में डॉ. खुराना अमेरिका के विस्कान्सिन यूनिवर्सिटी के इंस्टिट्यूट ऑफ एन्जाइम रिसर्च में प्रोफेसर पद पर नियुक्त हुए. यहां उन्होंने आरएनए प्रोटीन संश्लेषण के लिए कूट बनाने की प्रणाली का खुलासा किया और क्रियात्मक जीन के संश्लेषण पर काम करना शुरू किया. 1966 में उन्होंने अमेरिकी नागरिकता ले ली.
नोबेल पुरस्कार में खुराना का योगदान
खुराना को विस्कान्सिन यूनिवर्सिटी में काम करते हुए ही वह काम किया जिससे उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला. नोबेल वेबसाइट के मुताबिक उन्होंने प्रोटीन सिंथेसिस में जेनेटिक कोड का कार्य उनके विवेचन के लिए नेबोल पुरस्कार से सम्मानित किया गया. इस कार्य में उनकी भूमिका के बारे में नोबेल पुरस्कार की वेबसाइट में बताया गया कि उन्होंने “एंजाइम के जरिए अलग अलग आरएनए कड़ियां बना कर अनुवांशिकी में अहम योगदान दिया.
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चिकित्सा के क्षेत्र में वह नोबेल पुरस्कार
इन एंजाइम के जरिए वे प्रोटीन पैदा करने कर सके थे. इसके बाद की पहेली को सुलझाने का काम इन प्रोटीन के अमीनो एसिड की सीक्वेंस हो सका. खुराना की खोज से पता चला कि एंटी बायोटिक खाने पर शरीर के किसी तरह का व्यापक असर होता है. इसी पर उन्हें 1968 में ही डॉ. निरेनबर्ग और लूशिया ग्रौट्ज हॉर्विट्ज के साथ नोबेल पुरस्कार संयुक्त रूप से जिसमें खुराना की भूमिका बहुत दूरगामी साबित हुई.
अनुवांशिकी और खुराना
खुराना के ही शोध से पता लगा कि इंसान डीएनए में मौजूद न्युक्लियोटाइड्स की अवस्थाओं से तय होता है कि किस तरह के अमिनो एसिड का निर्माण होगा. इन्हीअमिनो एसिड से प्रोटीन बनते हैं जो कोशिकाओं की कार्यशैली से जुड़ीं सूचनाओं को आगे ले जाने का काम करते हैं. इसी जानकारी पर आज की अनुवांशिकी की दुनिया आधारित है.
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आधुनिक अनुवांशिकी की नींव भी
खुराना पहले ऐसे वैज्ञानिक थे जिन्होंने खास तरह के न्यूक्लियोटाइड्स का रासायनिक संश्लेषण किया जिसके आधार पर उन्होंने दुनिया की पहली कृत्रिम जीन का निर्माण किया. बाद में उनकी यह प्रक्रिया बहुत लोकप्रिय हुई और बाद के वैज्ञानिकों ने उनके उसी शोध के आधार पर जीनोम एडिटिंग जैसे क्षेत्र में उपलब्धियां हासिल की. खुराना का ही शोधकार्य था जिसने आगे चलकर बायोटेक्नोलॉजी में क्रांति ला कर उसे नई ऊंचाइयों तक पहुंचा दिया था.
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