निराशा के बाद आशा का समय होता है. जीवन की गति यही है कि मृत्यु के बाद फिर सृजन है. पहले विश्व युद्ध के उतार के समय स्पैनिश फ्लू (Spanish Flu 1918) ने दुनिया भर में मौत का तांडव किया. भारत में ही एक अनुमान के हिसाब से 1 करोड़ 80 लाख लोग मारे गए. इतिहास की सबसे घातक महामारी (Most Lethal Pandemic) ने दुनिया भर में 5 करोड़ जानें ली थीं, जिनमें भारत ही सबसे बड़ा शिकार था. काल के चंंगुल में फंसे एक युवा का पूरा कुनबा तबाह हुआ, जो तब एक मुलाज़िम था, लेकिन समय की गति ने उसे हिन्दी के सबसे बड़े कवियों (Best Poets of Hindi) की पंक्ति में खड़ा किया.
सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला. निराला की छवि आपने देखी है, जो रबींद्रनाथ ठाकुर (Rabindranath Thakur) से मेल खाती दाढ़ी वाले कोई पहुंचे हुए साधु की भांति दिखते हैं. आंखों का तेज और चेहरे की गंभीरता भरपूर संकेत देती है कि आप किसी महाप्राण के दर्शन कर रहे हैं. लेकिन, महाप्राण होना सबके बस की बात नहीं. अपने हाथों से अपने दर्जन भर प्राण प्यारों को आग और मिट्टी देने के बाद जो उखड़ता नहीं, दुख उसे महाप्राण कहने की माया रचता है.
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21 फरवरी 1899 को जन्मे निराला महामारी शुरू होने के वक्त उम्र के 20वें साल में प्रवेश कर रहे थे. 21 से 22 साल की उम्र में महामारी का मार्मिक बयान पेश करते हुए निराला ने कलेजा चीरकर रखा, लेकिन उन शब्दों में एक ग़ज़ब की दृढ़ता भी साफ दिखती है कि कैसे मुसीबत का सामना किया जा सकता है.
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बंगाल को हमेशा अपनी जन्मभूमि कहकर उस पर जान छिड़कने वाले निराला वहीं उन दिनों एक एस्टेट में मामूली नौकर हुए थे. साल भर पहले पिता के गुज़र जाने के बाद नौकरी मजबूरी थी. उन्हें भाषा और कलाओं से तब भी प्यार था, लेकिन काम उस वक्त हिसाब किताब और चिट्ठी पत्री का करना पड़ा. राजा साहब के शौकिया थिएटर से निराला की लोकप्रियता जब बढ़ना शुरू हुई थी, तभी इन्फ्लुएंज़ा का प्रकोप अखबारों के काले अक्षरों से गाढ़ा धुआं छोड़ने लगा.
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निराला लिखते हैं, ‘तार आया – तुम्हारी स्त्री सख्त बीमार है, अंतिम मुलाकात के लिए चले आओ.’ अखबार बता चुके थे कि महामारी कितनी जानलेवा थी. तार से पहले निराला को भयंकरता का पता तो था, लेकिन यह नहीं कि यह कहर उन पर किस तरह टूटने वाला था. ससुराल पहुंचे तो पता चला कि पत्नी गुज़र चुकी. यही नहीं, जाते हुए रास्ते में निराला ने अपने दादाज़ाद भाईसाहब की लाश जाती हुई भी देखी.
कुछ ही दिनों के भीतर काल की घात का अभूतपूर्व अनुभव ऐसा हुआ कि किसी को भी जीवन भर के लिए तोड़ दे. जब परिवार के लोग मर रहे थे, तब निराला के पहुंचने पर चाचाजी ने कहा ‘तू यहां क्यों आया?’ एक ही वाक्य में प्रेम और भय महसूस करने की बात है. निराला आगे लिखते हैं :
यह डलमऊ का अवधूत टीला था, जिसे निराला के दुख ने हिन्दी जगत में स्मारक बनाया. यहां निराला गंगा में बहती, किनारे आतीं लाशें देखा करते थे. कभी अवधूत को याद करते तो कभी संसार की नश्वरता को. इतनी लाशें निराला के मन में इस तरह उतर गईं कि उन्हें महाप्राण होना ही पड़ा. जीवनीनुमा किताब ‘कुल्ली भाट’ में निराला को यहां कुल्ली के शब्दों में एक शांति मिली :
यहां से निराला मठ में चले जाते हैं और अध्यात्म के साथ ही साहित्य उन्हें अपना लेता है. निराला पर सबसे प्रामाणिक लेखन करने वाले डॉ. रामविलास शर्मा कहते हैं कि ‘जुही की कली’ को अगर निराला की पहली रचना मान भी लिया जाए, तो भी साफ दिखता है कि यह कविता इसी वेदना के अनुभवों से उपजी. शर्मा के मुताबिक इस रचना का समय 1921 से 1922 के आसपास माना जाना चाहिए.
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इस कविता ने कवि को स्थापित करने वाली रचना का गौरव हासिल किया, जो मृत्यु के तांडव देखने के बाद भी सृजन का राग सुनाती है. इसके बाद तो निराला की साहित्यिक यात्रा यशस्वी व कालजयी पड़ावों से गुज़रती है और मूर्त अमूर्त से होती हुई मुक्ति पा लेती है.
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