ऊर्जा का संकट बढ़ता जा रहा है तो वहीं जीवाश्म ईंधनों पर निर्भरता कम भी नहीं हो रही है. (प्रतीकात्मक तस्वीर: Pixabay)
(अजय सिंह) कुछ दिनों पहले उत्तर प्रदेश में बिजली कर्मचारियों के हड़ताल से बिजली आपूर्ति कुछ घंटों के लिए बाधित हो गई थी जिससे जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया था. आज की इस तकनीकी दुनिया में हम ऊर्जा पर कितने आश्रित हो चुके हैं, क्योंकि किसी भी तरह की तकनीक को संचालित करने के लिए ऊर्जा की ज़रूरत तो पड़ेगी ही. हड़ताल से उपजी समस्याएं, आने वाले दशकों के उस ऊर्जा संकट को लेकर आगाह करती हैं, जिसके लिए दुनियाभर के देशों को तैयारियां शुरू कर देनी चाहिए. आने वाले एक दशक के भीतर ऊर्जा संकट पूरी दुनिया के लिए एक चुनौती बनने वाला है. उस वक्त जो देश ऊर्जा आपूर्ति के मामले में जितना आत्मनिर्भर होगा, वह नीतिगत मामलों में भी उतना ही स्वतंत्र होगा.
आत्मनिर्भरता का सवाल
सवाल यह उठता है कि कोई भी राष्ट्र ऊर्जा के मामले में आत्मनिर्भर कैसे होगा. क्योंकि शोध के अनुसार दुनियाभर में पारंपरिक तेल भंडार 50 और प्राकृतिक गैस भंडार 70 वर्षों के आसपास ही बचे हैं. जबकि कोयला दो सदी तक की खपत के लिए अवशेष है. हम इस बात का इंतज़ार नहीं कर सकते कि पारंपरिक ऊर्जा के स्रोत पूरी तरह से ख़त्म हों, तब हम अपने वैकल्पिक ऊर्जा के स्रोतों की तकनीकी को विकसित करें. उस लिहाज से दुनिया के पास तकनीकी विकसित करने के लिए समय बहुत कम बचा है.
पेरिस समझौते की दिशा में संतोषजनक प्रगति नहीं
2015 में दुनियाभर के देशों द्वारा सर्वसम्मति से किया गया पेरिस समझौता अपने लक्ष्य से दूर होता दिख रहा है. जिसमें सदी के अंत तक वैश्विक औसत तापमान वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस से कम रखना शामिल है. लेकिन यह लक्ष्य भी सिर्फ़ काग़ज़ी सहमति मात्र होता दिख रहा है. क्योंकि दुनिया के देशों के बीच एक तरफ तो कार्बन उत्सर्जन की कटौती को लेकर मतभेद बना हुआ है और दूसरी तरफ वैकल्पिक ऊर्जा के स्रोतों से व्यापक पैमाने पर ऊर्जा निर्मित करने की दिशा में उतनी तत्परता से तकनीकी निर्मित नहीं हो रही है.
विकासशील और विकसित देश
दरअसल वैकल्पिक तकनीकी विकसित करने के लिए देशों को भारी पूंजी निवेश की ज़रूरत है और हर देश इसके लिए तैयार नहीं है. विकासशील देशों का आरोप है कि विकसित देशों ने पिछली सदी में अपने औद्योगिक विकास और संपन्नता के लिए बेतहाशा कार्बन उत्सर्जन किए हैं अब पश्चिमी देश खुद तो संसाधन संपन्न हो गए लेकिन विकासशील देशों, जो अभी गरीबी से लड़ रहे हैं, उनके ऊपर वो अपने किए-धरे को संतुलित करने के लिए पर्यावरण की जिम्मेदारियां सौंप रहे हैं. यह तर्क बहुत हद तक सही भी है. और भारत इस तर्क से समर्थन में मजबूती से खड़ा रहा है.
शून्य कार्बन उत्सर्जन
गौर करने वाली बात यह है कि सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जन करने वाले चीन ने 2060 तक खुद को शून्य कार्बन उत्सर्जक बनाने की घोषणा है. शून्य कार्बन उत्सर्जन, यानी जितना भी कार्बन कोई देश उत्सर्जित करे, उस देश के पर्यावरण द्वारा वह पूरा का पूरा कार्बन सिंक कर लिया जाए, अवशोषित कर लिया जाए. ताकि वह पर्यावरण में ग्लोबल वार्मिंग की वज़ह न बने. लेकिन समस्या यह है कि पेरिस समझौते के बाद से अबतक दुनिया के देशों ने घोषणाएं तो खूब की हैं लेकिन ग्लोबल वार्मिंग पर नियंत्रण न पाना बताता है कि देशों की प्रतिबद्धता में कमी है.
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बढ़ रहा है महासागरों का तापमान
अब तक दुनिया का तापमान 1.1 डिग्री तक बढ़ चुका है. और अगर पेरिस समझौते पर खरा उतरना है तो 2030 तक वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में 45 प्रतिशत तक की कटौती करनी होगी. इसके साथ ही वैज्ञानिक बताते हैं कि समुद्र को तापमान गहराई तक बढ़ गया है. यह अपने आप में खतरे की घंटी है. समुद्र का जलस्तर बढ़ने का मतलब है तटवर्ती शहरों का डूबना, जो की अर्थव्यवस्था को सीधे तौर पर प्रभावित करेगा.
जीरो कार्बन की ओर
अन्य देशों की तरह न्यूज़ीलैंड ने पेरिस जलवायु समझौते के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को दर्शाते हुए वर्ष 2050 तक कार्बन उत्सर्जन को पूरी तरह से समाप्त करने के लिए एक “ज़ीरो कार्बन” बिल पारित किया है. वहीं दूसरी ओर चीन ने आगामी 40 वर्षों के भीतर (2060 तक) शून्य कार्बन उत्सर्जन लक्ष्य भले ही रखा है. लेकिन ये सारे लक्ष्य हासिल हो पाएंगे या नहीं, इसपर संदेह है. क्योंकि एक तरफ तो चीन अपने व्यापार मुनाफे को बढ़ाने के लिए लगातार औद्योगिक शीतयुद्ध लड़ रहा है.
एक बड़ी चुनौती
विकासशील होने के चलते ख़ासतौर से भारत और दक्षिण एशियाई देशों के समक्ष यह एक बड़ी चुनौती बन सकती है. भारत के पास वैकल्पिक ऊर्जा के पर्याप्त भंडार हैं और पर्यावरण के संरक्षण को लेकर लगातार प्रतिबद्ध भी रहा है. कई सालों से प्रत्येक वर्ष ग्रीन एनर्जी और इकोफ्रैंडली होने की दिशा में लगातार सार्वजनिक निवेश किये गये हैं.. लेकिन भारत भी अभी तक उस स्तर की तकनीकी विकसित नहीं कर पाया है कि वह जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता को खत्म कर सके.
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चूंकि पूरी दुनिया में दिन प्रतिदिन ऊर्जा की मांग व खपत बढ़ती ही जाएगी, इसलिए दुनिया के सभी देशों के लिए यह आवश्यक है कि वो जीवाश्म ईंधनों पर निर्भरता खत्म करके अक्षय ऊर्जा पर निर्भर हों. और पर्यावरण जैसे साझे विषयों पर हुई संधियां अपने लक्ष्य तक तभी पहुंच पाएंगी, जब न्यायपूर्ण तरीके से समझौते होंगे विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों को न सिर्फ कुछ रियायतें दी जाएं बल्कि उन्हें अक्षय ऊर्जा संबंधी उन्नत तकनीकी विकसित करने के लिए तकनीकी और वित्तीय मदद उपलब्ध कराई जाए.
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