रूस का कहना है की भारत और चीन (India and China) बहु ध्रुवीय दुनिया बनने की प्रक्रिया का प्रमाण हैं. (प्रतीकात्मक तस्वीर: Pixabay)
क्या दुनिया किसी बहु ध्रवीय तंत्र (Multipolar world order) की ओर बढ़ रही है या फिर संसार अब भी एकल ध्रवीय तंत्र बना हुआ है.1990 के दशक में सोवियतसंघ के विघटन के बाद से दो ध्रुवीय दुनिया का अंत हो गया था और उसके बाद अमेरिका (USA) ने खुद को सबसे शक्तिशाली राजनैतिक और आर्थिक शक्ति के रूप में स्थापित भी कर लिया था. लेकिन आज हालात बहुत बदल गए हैं और इन्हीं का हवाला देते हुए रूस के विदेशमंत्री सर्गेई लावरोव (Russian Foreign Minister Sergei Lavrov) का कहना है कि भारत और चीन का अमेरिका और यूरोप से कहीं ज्यादा आगे निकलना दुनिया के बहु ध्रुवीय तंत्र की ओर जाने प्रक्रिया को दर्शाता है.
बहु ध्रुवीय प्रक्रिया तो रोकने की कोशिश
यह समझना बहुत जरूरी है कि लावरोव ने यह बयान किस संदर्भ में दिया है. लावरोव ने एरीट्रिया में एक संयुक्त संबोधन में कहा है कि बहु ध्रवीय संसार की स्थापना एक उद्देश्यात्मक और ना रुकने वाली प्रक्रिया है और अब अमेरिका द्वारा नियंत्रित पश्चिम, जिसमें नाटो और यूरोपीय यूनियन भी शामिल हैं, इस प्रक्रिया को पलटने का प्रयास कर रहे हैं.
कहीं विक्टिम कार्ड तो नहीं
लावरोव का यह बयान ऐसे प्रयास के रूप में देखा जा रहा है जिसमें वे अमेरिका और यूरोप के वैश्विक प्रभाव की सीमितता को रेखांकित करने का प्रयास कर रहे हैं. इस बयान से वे यह भी जताना चाहते हैं कि नाटो और यूरोपीय संघ विस्तारवादी नीति अपना रहे हैं. इस बयान को लावरोव रूस को नाटो और यूरोपीय संघ की इसी नीति का शिकार बताने का प्रयास कर रहे हैं.
सफल नहीं होंगे प्रयास
लेकिन लावरोव का कहना है कि बहु ध्रुवीय तंत्र की प्रक्रिया को उलटने के प्रयास सफल नहीं हो सकेंगे. वे केवल इतना ही कर सकते हैं कि इस प्रक्रिया को थोड़ी सी धीमी कर सकते हैं. उन्होंने कहा कि भारत और चीन अमेरिका और यूरोपीय संघ के सदस्यों से कहीं आगे हैं. ऐसा आर्थिक शक्ति के साथ वित्तीय और राजनैतिक प्रभाव के रूप मे तो बिलकुल सही दिखाई भी दे रहा है.
रूस और पश्चिम
जब से रूस यूक्रेन युद्ध शुरू हुआ है तभी से रूस अकेला ही अमेरिका की अगुआई में नाटो और यूरोपीय संघ के देशों से जूझ रहा है. हालाकि पश्चिम का प्रतिनिधित्व करने वाले ये देश सीधे तौर पर इस यद्ध काहिस्सा बनने से बचने का प्रयास कर रहे हैं. लेकिन यह बात छिपी नहीं कि वास्तव में विवाद रूस और नाटो के बीच ही का ही है जिसका मैदान यूक्रेन बन चुका है.
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क्या पश्चिम है निशाना
ऐसे हालात में साफ लग सकता है कि लावरोव पश्चिम को निशाना बना रहे हैं. लेकिन क्या वाकई लावरोव के बयान में दम नहीं है. तो ऐसा भी नहीं है. वास्वत में लावरोव का तर्क में काफी दम भी नजर आता है, लेकिन बयान का समय उनकी मंशा को जाहिर करता है. वे पश्चिम की विस्तारवादी की नीति की ही आलोचना कर रहे हैं.
कई नए केंद्र उभर रहे हैं
उन्होंने अपने इस बयान में यह भी कहा कि पश्चिमी की किसी मेंटॉर के रूप में सलाह के लिए की गई कोई यात्रा या फिर हाइब्रिड युद्ध (यूक्रेन जिसकी मिसाल है) के जरिए पश्चिम नए आर्थिक केंद्रों और वित्तीय एवं राजनैतिक प्रभावों को उभरने से नहीं रोक सकता है. चीन और भारत जैसे देश पहले से ही अमेरिका और यूरोपीय संघ के सदस्यों से कई लिहाज से आगे हो गए हैं.
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रूस यूक्रेन युद्ध ऐसा युद्ध है, और शायद शीत युद्ध के बाद पहला भी, जिसमें अमेरिका की खुली दखलंदाजी तो है, लेकिन वह इसमें खुल कर सामने से भागीदारी नहीं कर पा रहा है. पिछले करीब एक साल से अमेरिका और रूस दोनों ही अपने पक्ष को दुनिया के सामने बेहतर तरह से रखने की कोशिश में हैं और युद्ध के लिए विरोधी पक्ष को जिम्मेदार बताने का प्रयास कर रहे हैं. यह पिछले हुए युद्धों से अलग होने के बहुत सारे कारणों में से एक है.
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