नेपाल में इन दिनों राजतंत्र की बहाली की मांग तेज है. प्रदर्शन कर रहे लोगों के हाथों में तख्ती है और वे आखिरी राजा ज्ञानेंद्र (Gyanendra of Nepal) की तस्वीर वाली टी-शर्ट पहने हुए हैं. साल 2008 में देश से राजशाही आधिकारिक तौर पर खत्म हुई, तब से राजा ज्ञानेंद्र काफी ऐशोआराम से भरी लेकिन गुमनाम जिंदगी बिता रहे थे. अब राजशाही वापस लौटाने के मांग के साथ वे दोबारा सुर्खियों में हैं. वैसे कथित तौर पर नेपाल से राजाओं का शासन हटाने में भारत ने बड़ी भूमिका अदा की थी.
माना जाता है कि तत्कालीन राजशाही के जरिए चीन की घुसपैठ रोकने के लिए भारत की खुफिया एजेंसी रॉ (RAW) ने काफी काम किया था. घटना 1989-90 के दौर की है. तब नेपाल की जनता के बीच लोकतंत्र की मांग धीरे-धीरे उठने लगी थी.
पड़ोसी देश और खुद लोकतांत्रिक देश होने के नाते भारत भी यही चाहता था कि नेपाल में भी लोकतंत्र आ जाए. हालांकि नेपाल का आंतरिक मामला होने के कारण हमारा देश तब किसी चीज में सीधे दखल नहीं दे रहा था लेकिन कूटनीतिक स्तर पर इस तरह के संकेत देने लगा था कि नेपाल में राजशाही का अंत होना चाहिए. राजीव गांधी सरकार भी उस दौरान जन-आंदोलन का अप्रत्यक्ष तौर पर समर्थन कर रही थी.

नेपाल के आखिरी राजा ज्ञानेंद्र
राजशाही के खात्मे की बात उठती देख नेपाल का राजपरिवार परेशान हो उठा. उसने चीन की मदद मांगी ताकि राजसी परिवार का शासन बना रहे. ये बात खुफिया तरीके से भारत को पता लगी. नेपाल में चीन का दखल भारत के लिए कई मामलों में और यहां तक सुरक्षा के लिए भी खतरा है.
इस बात को समझते हुए भारत ने कूटनीतिक तरीके के साथ दूसरे कई तरीके भी आजमाने शुरू किए ताकि नेपाल के राजपरिवार पर दबाव बने. जैसे नेपाल में भारत की ओर से फूड सप्लाई को डिस्टर्ब कर दिया गया. ये सब काफी गुप्त तरीके से हुआ ताकि राजतंत्र को संकेत भी चला जाए और देश के बीच रिश्ते भी खराब न हों.
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इस तरीके से भी बात नहीं बनी. इधर नेपाल में चीन का दखल बढ़ता दिख रहा था. अब मामला ज्यादा गंभीर हो चुका था. यही वो वक्त था जब मामले में रॉ ने दखल दिया. तब इस खुफिया एजेंसी के तत्कालीन चीफ ने इस काम के लिए अपने सबसे अच्छे अफसर को चुना. जीवनाथन नाम के इस रॉ एजेंट ने वो काम शुरू किया जो देश की डिप्लोमेटिक लॉबी नहीं कर पाई थी.

राजशाही के खात्मे की बात उठती देख नेपाल का राजपरिवार परेशान हो उठा- सांकेतिक फोटो
राजतंत्र के खात्मे और लोकतंत्र की बहाली के लिए रॉ एजेंट ने नेपाल के तत्कालीन माओवादी नेता पुष्पकमल दहल की मदद ली. ये वही नेता थे, जो आगे चलकर दो बार नेपाल के पीएम बने. अब हाल में नेपाल में चल रही राजनैतिक उठापटक में भी दहल की बड़ी भूमिका है. वे कथित तौर पर नेपाल के पीएम ओपी शर्मा ओली और चीन की मिलीभगत को खत्म करना चाहते हैं.
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उस वक्त भी रॉ के साथ मिलकर पुष्पकमल दहल ने काम किया. रणनीति के तहत ये माओ नेता दूसरी पार्टियों के साथ मिल गया ताकि राजतंत्र का पलड़ा हल्का हो सके.
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चीन के मंसूबे नाकामयाब करने में रॉ की कोशिश रंग लाई. साल 2008 में भारत के इस पड़ोसी देश ने राजशाही खत्म करके खुद को लोकतांत्रिक देश घोषित कर दिया. रॉ के जरिए भारत की मदद करने वाले प्रचंड लोकतांत्रिक नेपाल के पहले पीएम बने. इन सारी बातों का जिक्र खुद रॉ के फॉर्मल स्पेशल डायरेक्टर अमर भूषण ने अपनी किताब Inside Nepal में किया है.

नेपाल में राजनैतिक पार्टियों की आपसी तनातनी के बीच आम लोगों को कोई फायदा नहीं हुआ- सांकेतिक फोटो
राजशाही खत्म होकर लोकतंत्र तो आ गया लेकिन नेपाल में सही मायने में वैसी उन्नति नहीं हो सकी. बता दें कि प्राकृतिक संपदा के लिहाज से ये देश काफी संपन्न है और साथ ही यहां पर्यटन भी काफी बड़ा उद्योग हो सकता है. लेकिन राजनैतिक पार्टियों की आपसी तनातनी के बीच आम लोगों को कोई फायदा नहीं हुआ. अब लगभग 12 सालों में नेपाल में सारी पार्टियां आजमाई जा चुकीं. और जनता एक बार फिर से राजतंत्र लौटाने की मंशा में दिखती है.
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ओली सरकार के दौर में चीन के बढ़े हुए दखल के कारण भी नेपाली जनता परेशान है. बता दें कि काठमांडू के मुख्य बाजार में भी जगह-जगह चीनी तख्ते लिखे दिखते हैं. ये वे दुकानें हैं, जो चीनी कारोबारियों ने 99 सालों के लिए लीज पर ले रखी हैं. साथ ही साथ नेपाल में चीनी भाषा का वर्चस्व भी बढ़ा. ऐसे में जनता को डर है कि कहीं चीन अपनी आक्रामकता के साथ उनपर भी कब्जा न कर ले. यही वजह है कि वे मौजूदा सरकार को हटा राजतंत्र लौटाने की मांग कर रहे हैं.
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FIRST PUBLISHED : December 13, 2020, 18:04 IST