नई दिल्ली. सही मायनों में देखा जाए तो 14 अगस्त 1947 को भारत दो नहीं, बल्कि तीन हिस्सों में बंटा था. पहला-भारत, दूसरा- पश्चिमी पाकिस्तान और तीसरा – पूर्वी पाकिस्तान. पूर्वी पाकिस्तान कहने के लिए तो पश्चिमी पाकिस्तान का ही हिस्सा था, लेकिन सामाजिक, बौद्धिक और सांस्कृतिक दृष्टि से इन दोनों हिस्सों का कोई मेल नहीं था. शायद यही वजह है कि बंटवारे के बाद से लेकर बांग्लादेश के गठन तक पूर्वी पाकिस्तान और वहां रहने वाले बांग्लाभाषी वाशिंदों को लगातार सौतेला व्यवहार झेलना पड़ा.
और, इसी सौतेले व्यवहार से पनपी टीस ने देखते ही देखते मुक्ति वाहिनी की शक्ल ले ली. मुक्ति वाहिनी को भारतीय सेना का पूरा समर्थन था. बस यही बात पाक को बर्दाश्त नहीं हुई. पाक के तत्कालीन सैन्य शासकों का यह मानना था कि बांग्लादेश मुक्ति संग्राम की मदद के लिए भारतीय सेना पूर्वी पाकिस्तान के इर्द-गिर्द है. यही समय है कि भारत के खिलाफ कई मोर्चों से जंग का ऐलान कर दिया जाए. इससे पाक को दो फायदों की आस थी. पहला- कश्मीर पर उनका कब्जा और दूसरा– पूर्वी पाकिस्तान से भारतीय सेना का दबाव कम होगा.
बस, इसी गफलत में पाक सेना ने 3 दिसंबर 1971 की रात राजस्थान बार्डर (पश्चिमी मोर्चा) से भारतीय सीमा पर हमला बोल दिया. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान की इस हिमाकत का मुंह तोड़ जवाब देने का फैसला किया. गुस्ताख पाक सेना को सबक सिखाने में भारतीय सेना को महज 13 दिन का समय लगा. इन 13 दिनों में पाकिस्तानी सेना को पश्चिमी मोर्चे पर शिकस्त झेलनी ही पड़ी, साथ ही, पूर्वी पाकिस्तान भी उसके हाथ से निकल गया. इस तरह, पूर्वी पाकिस्तान में 24 साल से चल रहे जुल्मों सितम का अंत हो गया.
घुटनों पर आया पाकिस्तान का गुरूर
16 दिसंबर 1971 वही एतिहासिक तारीख है, जब पाक सेना के 93 हजार जवान भारतीय सेना के सामने घुटनों पर आ गए और पाकिस्तान का गुरूर खाक में मिल गया. दरअसल, पूर्वी पाकिस्तान में पाक सेना का नेतृत्व कर रहे लेफ्टिनेंट जनरल एएके नियाज़ी के सामने अब दो ही विकल्प बचे थे, पहला- शहादत और दूसरा – आत्मसमर्पण. नियाज़ी ने अपनी हार स्वीकार की और 93 हजार सैनिकों के साथ आत्मसमर्पण के लिए तैयार हो गए. इस तरह, 1947 में अंग्रेजों के साथ मिलकर भारत के खिलाफ रची गई एक और साजिश का अंत और नए बांग्लादेश का उदय हुआ.
दुनिया का सबसे बड़ा आत्मसमर्पण
दूसरे विश्व युद्ध के बाद किसी सेना का सबसे बड़ा समर्पण ढाका के रमणा रेसकोर्स पर हुआ. 1971 में वह तारीख थी 16 दिसंबर की. रमणा रेसकोर्स पर एक तरफ भारतीय सेना के भारतीय सेना के जनरल ऑफिसर कमांडिंग-इन-चीफ (पूर्वी कमान) लेफ्टिनेंट-जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा थे और दूसरी तरफ अपने 93 हजार सैनिकों के साथ पाकिस्तानी सेना के पूर्वी कमान के कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल एएके नियाजी थे. शाम करीब 4 बजकर 31 मिनट पर लेफ्टिनेंट-जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के सामने पाक सैनिकों ने हथियार डाल दिए और लेफ्टिनेंट जनरल एएके नियाजी ने बिना शर्त आत्मसर्पण के दस्तावेजों पर दस्तखत कर दिए.
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