सरेंडर करने के लिए पाक सेना के लेफ्टीनेंट जनरल एएके नियाजी को एक खत भेजा गया था.
नई दिल्ली. 1971 के भारत-पाक युद्ध का पहला बीज 1947 में भारत और पाकिस्तान के बंटवारे के साथ ही बो दिया गया था. दरअसल, आजादी से ठीक पहले भारत-पाकिस्तान के बंटवारे की साजिश रच ली गई थी. बंटवारे के बाद, उत्तर पश्चिम में पाकिस्तान बना और पूर्व में पूर्वी पाकिस्तान अस्तित्व में आया. उन दिनों, पूर्वी पाकिस्तान को अस्तित्व में लाने का मकसद सिर्फ और सिर्फ भारत की शांति व्यवस्था को अस्थिर रखना था. हालांकि यह बात दीगर है कि सामाजिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक विषमताओं के चलते पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान के बीच की वैचारिक खाई कभी पट नहीं पाई. वहीं, पूर्वी पाकिस्तान के प्रति पाकिस्तान का पक्षपात पूर्ण रवैया लोगों के अंदर विद्रोह की भावना को पैदा कर रहा था.
प्रभात प्रकाशन की पुस्तक ‘1971 भारत-पाक युद्ध’ में लेफ्टिनेंट जनरल केके नंदा ने लिखा है कि सामाजिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक रूप से पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान के लोग एक-दूसरे से बिल्कुल अलग थे. पूर्वी पाकिस्तान में बंगाली संस्कृति का प्रभाव था और वो पाकिस्तान की तुलना में अधिक उदार था. पाकिस्तान सरकार ने इन तमाम बातों को नजरअंदाज कर पूर्वी पाकिस्तान के लोगों पर उर्दू भाषा तथा पश्चिमी पाकिस्तान की अन्य बातों को थोपने की लगातार कोशिश की. पूर्वी पाकिस्तान को जानबूझ कर नजरअंदाज किया गया और अल्पसंख्यकों तथा कुछ मुस्लिम श्रेणियों को भारत में धकेला जा रहा था. पाकिस्तान की सैन्य तथा नागरिक नौकरशाही पश्चिमी भाग से थी और ज्यादातर आर्थिक एवं क्षेत्रों में होने वाला विकास पश्चिमी क्षेत्र में हुआ.
पाकिस्तान सरकार के पक्षपातपूर्ण रवैए और पाकिस्तानी सेना के अत्याचार ने पूर्वी पाकिस्तान के लोगों के भीतर पनप रहे विद्रोह को बेहद मजबूत कर दिया. 1965 के भारत-पाक युद्ध में पाकिस्तान की करारी हार के बाद पूर्वी पाकिस्तान का यह विद्रोह का खुलकर सामने आ गया. इस विद्रोह को अवामी लीग के नेता शेख मुजीबुर्रहमान का नेतृत्व मिला और देखते ही देखते पूर्वी पाकिस्तान में स्वायत्तता के लिए संग्राम शुरू हो गया. इस संग्राम को शेख मुजीबुर्रहमान के छह सूत्रीय कार्यक्रम ने नई दिशा दी. शेख मुजीबुर्रहमान के इस छह सूत्रीय कार्यक्रम को न केवल जनता से भारी समर्थन मिला, बल्कि पाकिस्तान के तत्कालीन सैन्य शासक अयूब खां को चिंता में डाल दिया. मार्च 1966 में अयूब खां ने पूर्वी पाकिस्तान का दौरा कर इस संग्राम को कड़ाई से कुचलने की जिम्मेदारी पाक सेना को दी.
1965 की जंग में भारत से करारी शिकस्त और पूर्वी पाकिस्तान के बिगड़ते हालात को आधार बनाकर पाकिस्तान सेना के तत्कालीन कमांडर इन चीफ जनरल याह्या खां ने तत्कालीन सैन्य शासक अयूब खां को राष्ट्रपति पद से इस्तीफा देने के लिए मजबूर कर दिया और खुद पाकिस्तान का राष्ट्रपति बन गया. याह्या खान ने पूर्वी पाकिस्तान के विद्रोह पर काबू पाने के लिए नई चाल चली. 28 नवंबर 1969 को राष्ट्र के नाम संबोधन में याह्या खान ने जल्द आम चुनाव करवाकर जनप्रतिनिधियों को सत्ता स्थानांतरित करने का वादा कर दिया. याह्या खां की सोच यहां गलत साबित हुई और पूर्वी पाकिस्तान में विद्रोह कम होने की जगह और मजबूत होता चला गया. जिसके बाद, याह्या खान ने पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के जुल्फिकार अली भुट्टो के साथ मिलकर सियासी साजिश रची और दिसंबर 1970 में चुनाव कराने का ऐलान कर दिया.
याह्या खां की उम्मीदों से विपरीत आए पाकिस्तान के चुनावी नतीजे
याह्या खां को पूरी उम्मीद थी कि आम चुनाव में अवामी पार्टी के शेख मुजीबुर्रहमान बहुमत हासिल नहीं कर सकेंगे. लेकिन नतीजे इसके उलट आए. अवामी लीग ने पाकिस्तान की 313 संसदीय सीटों में से 167 पर जीत हासिल कर ली. पूर्वी पाकिस्तान में शेख मुजीबुर्रहमान की अवामी लीग को 169 में से 167 सीटें मिली थीं. वहीं, जुल्फिकार अली भुट्टो की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी बमुश्किल 88 सीटों पर जीत हासिल कर सकी. चुनाव में अवामी लीग को बहुमत मिलने के बाद पूर्वी पाकिस्तान में जश्न का माहौल था. अब सभी यह तय मान रहे थे कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर शेख मुजीबुर्रहमान की ताजपोशी होगी और पूर्वी पाकिस्तान को उसका हक मिलेगा. लेकिन, ऐसा हुआ नहीं. पाकिस्तान का प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे भुट्टो और याह्या खां को यह किसी भी कीमत पर मंजूर नहीं था कि पूर्वी पाकिस्तान का कोई शख्स उनके ऊपर शासन करे. लिहाजा शेख मुजीबुर्रहमान को सत्ता से दूर रखने के लिए दोनों ने एक नई साजिश को अंजाम दिया.
याह्या खां और जल्फिकार अली भुट्टो की नई सियासी साजिश
पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति और सैन्य शासक याह्या खां और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के जुल्फिकार अली भुट्टो किसी भी कीमत पर अवामी लीग की सरकार पाकिस्तान में नहीं बनने देना चाहते थे. अपने इस मंसूबे को पूरा करने के लिए दोनों ने मिलकर एक नई साजिश को अंजाम दिया. साजिश के तहत, याह्या खां ने 3 मार्च 1971 को नेशनल एसेंबली का अधिवेशन बुलाने का ऐलान कर दिया. वहीं जुल्फिकार अली भुट्टो ने 15 फरवरी 1971 को नेशनल एसेंबली के अधिवेशन में भाग लेने से इनकार कर दिया. भुट्टो के इनकार करते ही याह्या खान ने पाकिस्तान नेशनल एसेंबली को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिया. उधर, इस घोषणा के साथ पूर्वी पाकिस्तान में भारी असंतोष व्याप्त हो गया. अब तक सबको समझ में आ गया था कि यह सब एक साजिश के तहत किया गया है.
आंदोलन को कुचलने के लिए टिक्का खां को बनाया नया गर्वनर
याह्या खां और भुट्टो की साजिश से नाराज शेख मुजीबुर्रहमान ने असहयोग का खुला ऐलान कर दिया, जिसके बाद पूर्वी पाकिस्तान में पूरी तरह से कामकाज ठप हो गया. स्वायत्तता के आंदोलन ने अब स्वतंत्रता के आंदोलन की शक्ल लेना शुरू कर दी थी. पूर्वी पाकिस्तान के इस आंदोलन ने याह्या खां को परेशानी में डाल दिया. याह्या खां ने इस आंदोलन को कुचलने के लिए लेफ्टिनेंट जनरल टिक्का खां को पूर्वी पाकिस्तान का गर्वनर नियुक्त कर दिया. ढाका पहुंचने पर पाया कि व्यवस्था हर तरह से चरमरा चुकी थी और इस आंदोलन से निपटने के लिए उनके पास पर्याप्त संख्या में फौज भी नहीं थी. फौज को इकट्ठा करने के लिए टिक्का खां को पर्याप्त समय की जरूरत थी. लिहाजा, एक साजिश के तहत, टिक्का खां ने 25 मार्च 1970 को नेशनल असेंबली बुलाने का ऐलान कर दिया.
अवामी लीग और राजनैतिक गतिविधियों को किया गया प्रतिबंधित
टिक्का खां को अब फौज के पुनर्गठन का समय मिल गया था. उसने समय सीमा के अंदर पैरामिलिट्री फोर्स के 25 हजार जवानों सहित विशाल सेना खड़ी कर ली थी. टिक्का खां की निगाह में उसकी यह सेना पूर्वी पाकिस्तान के किसी भी आंदोलन को कुचलने के लिए काफी थी. टिक्का खां ने अपने वादे के विपरीत जाकर 25 मार्च को नेशनल असेंबली का अधिवेशन नहीं बुलाया. 26 मार्च 1970 को टिक्का खां ने पूर्वी पाकिस्तान में राजनैतिक गतिविधियों के साथ साथ अवामी लीग पर प्रतिबंध लगा दिया. 25/26 मार्च की रात शेख मुजीबुर्रहमान को गिरफ्तार कर पाकिस्तान ले जाया गया और बगावत को कुचलने के लिए ऑपरेशन सर्चलाइट और ऑपरेशन बरीसल की कार्रवाई की गई, जिसमें लाखों निर्दोष लोगों की जान ले ली गई. टिक्का खां के इस कदम से पूर्वी पाकिस्तान का आक्रोश चरम पर पहुंच गया. इसी आक्रोश ने बांग्लादेश मुक्ति आंदोलन का रूप लिया.
आजादी के लिए मुक्ति वाहिनी का हुआ गठन
पूर्वी पाकिस्तान में जारी नरसंहार के खिलाफ सेना में बगावत हो गई. पूर्वी बंगाल रेजीमेंट के करीब 7 हजार सशस्त्र जवानों, पैरामिलिट्री फोर्स और पूर्वी पाकिस्तान पुलिस ने बगावत कर दी. इन्हीं बगावती जवानों ने मिलकर बांग्लादेश लिबरेशन फोर्स का गठन किया, जो बाद में मुक्ति वाहिनी के रूप में पहचानी गई. मुक्ति वाहिनी को भारतीय सेना ने न केवल सहारा दिया, बल्कि पाकिस्तानी सेना के अत्याचार के खिलाफ लड़ने का प्रशिक्षण भी दिया. भारतीय सेना के साथ ने मुक्ति वाहिनी को कई गुना ताकतवर बना दिया. भारतीय सेना के इस कदम से बौखलाए पाकिस्तान ने 3 दिसंबर 1971 को भारत के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी. 16 दिसंबर 1971 तक चले इस युद्ध में पाकिस्तान को उस वक्त बेहद शर्मनाक स्थिति का सामना करना पड़ा, जब पाक सेना के 93 हजार जवानों को भारतीय सेना के सामने आत्मसमपर्ण करना पड़ा.
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Tags: Bangladesh, Indian army, Indian Army Pride, Indo-Pak War 1971
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