पर्यावरण कार्यकर्ताओं का कहना है कि हिमालय के पहाड़ सबसे नए हैं. इसलिए ये कच्चे हैं. इन पर ज्यादा दबाव खतरनाक है.
JoshiMath Sinking – जोशीमठ में मकानों में दरारें और जमीन के धसान ने हालात बिगाड़कर रख दिए हैं. भारत ही नहीं, सारी दुनिया की नजरें इस समय जोशीमठ पर टिकी हुई हैं. हालात इतने खराब हैं कि पूरे के पूरे जोशीमठ को किसी दूसरी जगह शिफ्ट करने की नौबत आ गई है. हालात को देखते हुए सभी तरह के निर्माण कार्यों पर रोक लगा दी गई है. लेकिन, ऐसे में ये देखना भी जरूरी है कि जोशीमठ जैसे हालात और कौन से हिल स्टेशनों पर बन रहे हैं. जोशीमठ जैसे हालात मसूरी (Mussoorie) में भी बन रहे हैं. यही नहीं, गंगटोक (Gangtok) में भी पिछले कई साल जमीन लगातार धंस रही है.
सबसे पहले बात करते हैं मसूरी की. अंग्रेजों ने पानी की सप्लाई के लिए मसूरी के ठीक ऊपर गनहिल पर एक जलाशय बनाया. इसे मसूरी की पानी की टंकी कहा जाता है. अंग्रेजों ने इसे 1902 में बनाना शुरू किया था और 1920 में ये तैयार हो गया था. इसे बने हुए 100 साल से ज्यादा हो गए हैं. अब इसमें दरारें पड़ने लगी हैं, लेकिन इन पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है. पर्यावरण कार्यकर्ता और टेक इनसाइट के संस्थापक पंकज भंडारी का कहना है कि ये टंकी कभी भी फट सकती है. इससे मसूरी को बड़ा नुकसान पहुंचा सकती है.
पानी की टंकी फटी तो होगा बड़ा नुकसान
पंकज भंडारी ने बताया कि मसूरी नगरपालिका ने साल 1975 में इसे उत्तर प्रदेश सरकार (तब उत्तराखंड नहीं बना था और मसूरी उत्तर प्रदेश में आता था.) को सौंप दिया था. इसके बाद जब इसमें दरारें पड़ने लगीं तो 1992 में एक निजी कंपनी ने इसकी मरम्मत की थी. इसके बाद से इसमें कभी मरम्मत नहीं की गई. इसके आसपास दुकानें खोल दी गईं. काफी लोग भी इसके आसपास रहते हैं. अगर ये पानी की टंकी फटी तो आसपास बनी दुकानों और मकानों ही नहीं, मसूरी की कचहरी और थाने को भी बड़ा नुकसान होगा.
पर्यटकों के आराम के लिए बना डाला रोपवे
पर्यावरण कार्यकर्ता भंडारी ने ने कहा कि अब गनहिल के लिए रोपवे भी चल रही है. इससे पर्यटकों की आवाजाही भी बहुत बढ़ गई है. वहीं, सबसे मजेदार ये है कि पहले गनहिल पर बने इसे जलाशय के नीचे एक बोर्ड लगा था, जिस पर लिखा था, ‘यहां पर्यटकों का आना प्रतिबंधित है.’ अब राज्य सरकार ने इस बोर्ड को भी यहां से हटाकर ऊपर की तरफ लगा दिया है, जिसका कोई औचित्य ही नहीं रह गया है. उन्होंने कहा कि मसूरी शहर को इसके अलावा सामने की गगोली पावर हाउस स्टेशन हिल से भी बड़ा खतरा है.
सालों से दरक रही गलोगी पावर हाउस हिल
पंकज भंडारी ने बताया कि गलोगी पावर हाउस हिल पिछले 8-9 साल से लगातार दरक रही है, लेकिन उस पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है. उनका कहना है कि अगर ये पहाड़ी गिरी तो मसूरी का देहरादून से संपर्क पूरी तरह से कट जाएगा. इसके अलावा जोशीमठ की ही तरह मसूरी शहर की जमीन भी धंसने लगी है. मुख्य बाजार की सड़क चौड़ाई में काफी लंबाई तक आधी धंस चुकी है. वहीं, जिन जगहों पर जमीन धंस रही है, वहां मकानों के नीचे कई-कई इंच खाली जगह बन गई है. कभी भी इसकी वजह से मकानों में दरारे पड़ सकती है.
कचरे-मलबे का ढेर हैं हिमालय के पहाड़
पर्यावरण कार्यकर्ता राजीव नयन बहुगुणा ने जोशीमठ या मसूरी की जमीन के धंसने का कारण बताया. उन्होंने कहा कि हिमालय के पहाड़ अभी अपनी शैशव अवस्था में हैं. इन्हें कचरे और मलबे का ढेर भी कहा जा सकता है. सिर्फ जोशीमठ ही नहीं मसूरी, गंगटोक, जम्मू, नैनीताल, भीमताल जैसे तमाम हिमालयी हिल स्टेशंस में जमीन धंसने या दरकने की समस्या आम है. उन्होंने कहा कि धरासू से लेकर भैरव घाटी तक उत्तरकाशी की पूरी बेल्ट में आए दिन सड़कों के धंसने की घटनाएं होती रहती हैं. पिछले कुछ साल में ही गंगटोक की जमीन करीब 7 इंच तक धंस चुकी है.
पहाड़ों के स्पंज को काटना है खतरनाक
राजीव नयन बहुगुणा ने कहा कि पुरानी टिहरी को डुबोकर नई टिहरी बनाई गई. इसे बसाने के लिए जंगल काटकर सीमेंट कंक्रीट का कंस्ट्रक्शन किया गया. ये जंगल हिमालय के लिए स्पंज का काम करते थे. इन्हें काटना खतरनाक है. इन जंगलों की वजह से ही मैदान की गर्म हवाएं पहाड़ों तक नहीं पहुंच पाती थीं. उन्होंने कहा कि अंग्रेंजों के कंस्ट्रक्शन में कहीं भी आपको पक्की छत नहीं मिलेगी. वे कंस्ट्रक्शन में लकड़ी का इस्तेमाल करते थे, जिसकी छत टीन की होती थीं. इससे पहाड़ों पर भार नहीं पड़ता था.
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भारी कंस्ट्रक्शन पर तुरंत लगाएं रोक
आजाद भारत में पहाड़ों पर किए गए नए ज्यादातर निर्माण में सीमेंट कंक्रीट के भारी कंस्ट्रक्शन किए गए. अगर पहाड़ों को बचाना है तो भारी निर्माण कार्यों पर तत्काल प्रभाव से रोक लगाई जाए. पर्यटकों पर रोक तो नहीं लगाई जा सकती है, लेकिन उनको पहाड़ों पर जाते समय ये भी समझना होगा कि उन्हें कम से कम सुविधाओं में काम चलाना चाहिए. पर्यटकों की डिमांड को पूरा करने के लिए भारी निर्माण ना किया जाए तो काफी हद तक पहाड़ों पर दबाव को कम किया जा सकता है. पहाड़ों की तलहटी के तराई इलाकों में जंगलों को ना काटा जाए.
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