महात्मा गांधी को नोबेल न मिलने की वजह वो थी, जो कमेटी ने बताई या कुछ और?

#GANDHI@150 : अपनी ज़िंदगी में ही किंवदंती बन चुके महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) को एक नहीं पांच बार नामांकन के बावजूद नोबेल अवॉर्ड (Nobel Prize) न दिए जाने की पूरी कहानी.
#GANDHI@150 : अपनी ज़िंदगी में ही किंवदंती बन चुके महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) को एक नहीं पांच बार नामांकन के बावजूद नोबेल अवॉर्ड (Nobel Prize) न दिए जाने की पूरी कहानी.
- News18Hindi
- Last Updated: October 3, 2019, 9:35 AM IST
'नोबेल शांति पुरस्कार (Nobel Peace Prize) के सौ साल से ज़्यादा के इतिहास में सबसे बड़ी चूक यह रही कि महात्मा गांधी को इससे नहीं नवाज़ा गया. बगैर नोबेल पुरस्कार के गांधी बरकरार हैं लेकिन बगैर गांधी के नोबेल कमेटी (Nobel Prize Committee) पर सवालिया निशान ज़रूर है.' नॉर्वे (Norway) की नोबेल कमेटी के सचिव गीर ल्यूंडेस्टैड ने 2006 में ये बयान देकर नोबेल शांति पुरस्कार की प्रतिष्ठा को लेकर चर्चा छेड़ दी थी. लेकिन अब भी बहुत कम लोग जानते हैं कि एक या दो नहीं, 5 बार इस पुरस्कार के लिए नॉमिनेट (Nobel Nomination) होने के बावजूद कौन से तर्क गांधीजी (M. K. Gandhi) और नोबेल पुरस्कार के बीच रुकावट रहे. इस पूरी कहानी में ये भी जानें कि गांधी को ये प्रतिष्ठि अवॉर्ड न मिलने का मतलब क्या है.
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1937 : जब पहली बार शॉर्टलिस्ट हुए बापू
पहला मौका था जब गांधीजी नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नॉमिनेट हुए लेकिन पुरस्कार न देने का एक तरह से कारण बताते हुए नोबेल कमेटी के सलाहकार प्रोफेसर जैकब वॉर्म म्यूलर ने कहा था :
वो बेशक एक बेहतरीन और आदर्श व्यक्ति हैं और लोग उन्हें पर्याप्त प्यार और सम्मान देते हैं, जिसके वो हक़दार भी हैं. लेकिन, उनकी नीतियों में कई उलट मोड़ दिखते हैं जो संतोषजनक नहीं कहे जा सकते. वो एक ही समय में स्वतंत्रता सेनानी भी हैं और तानाशाह भी, आदर्शवादी भी हैं और राष्ट्रवादी भी. कहीं वो ईसा जैसे मसीहा दिखते हैं तो कहीं एक सामान्य राजनीतिज्ञ.

1938 और 1939 : किस्सा कुछ और था
ये वो समय था, जब गांधीवादी आंदोलन अपने चरम पर थे और दुनिया भर में इसके समर्थक बन रहे थे. 1930 के दशक में यूरोप और अमेरिका में एक संस्था बनी थी फ्रेंड्स ऑफ इंडिया एसोसिएशन. नॉर्वे की लेबर पार्टी के एक नेता ओले कॉर्बजॉर्नसन ने लगातार इन दो सालों में गांधीजी का नाम नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नॉमिनेट किया था, जिसे एसोसिएशन का समर्थन भी हासिल था, लेकिन इन दो सालों में नोबेल कमेटी ने इस नाम को तरजीह नहीं दी.
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1947 : दस साल बाद फिर शॉर्टलिस्ट
भारत को ब्रिटिश राज से आज़ादी मिली और गांधीजी का नाम दस साल बाद फिर नोबेल कमेटी में शॉर्टलिस्ट किया गया. इस बार गोविंद वल्लभ पंत, जीवी मालवणकर और जीबी खेर की तरफ से नामांकन हुआ था और इस बार के सलाहकार एरप सीप ने म्यूलर की तरह कठोर रिपोर्ट भी नहीं दी थी लेकिन पैनल के प्रमुख गुन्नार जैन ने कहा :
ये सही है कि जितने लोग नॉमिनेट हुए हैं, उनमें गांधी सबसे महान हैं. लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि वो सिर्फ शांतिदूत नहीं हैं, बल्कि पहले और बड़े अर्थों में देशभक्त हैं. साथ ही, गांधी कोई दूध के धुले नहीं हैं, वो एक कामयाब वकील भी रह चुके हैं.
1948 : क्या मरणोपरांत दिया जा सकता था नोबेल?
उस समय तक ऐसी कोई व्यवस्था नहीं थी कि नोबेल पुरस्कार किसी व्यक्ति को मरणोपरांत दिया जा सके. हालांकि हुआ ये था कि 1948 में हत्या से पहले ही गांधीजी फिर नामांकित किए गए थे और हत्या के बाद नोबेल कमेटी ने गंभीरता से उन्हें शांति पुरस्कार देने का मन भी बनाया था. इस बार गांधीजी के जीवन के आखिरी 5 महीनों के जीवन को लेकर सीप ने कहा था :
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गांधी ने बेशक वो जीवन जिया जिसमें राजनीतिक और नैतिक एटिट्यूड के वो आयाम रहे, जो लंबे समय तक भारत और दुनिया के लिए आदर्श बने रहेंगे. उनके इस जीवन के मद्देनज़र कहा जा सकता है कि उनकी हैसियत किसी धर्म के प्रवर्तक से कम नहीं थी.
इसके बावजूद इस साल भी गांधीजी को नोबेल शांति पुरस्कार नहीं मिल सका क्योंकि गांधी का किसी संस्था विशेष के साथ संबंध नहीं पाया गया. उनकी कोई वसीयत और उपयुक्त वारिस नहीं पाया गया, जिसे पुरस्कार की राशि सौंपी जा सके. एक पेंच ये भी था कि नोबेल मरणोपरांत तब दिया जा सकता था, जब कमेटी के फैसले के बाद नॉमिनेट हुए व्यक्ति की मौत हुई हो.
अब जानें कि हकीकत क्या थी
ये तो नोबेल कमेटी के तर्कों और बयानों की बात लेकिन क्या यही हकीकत भी थी कि गांधीजी को नोबेल पुरस्कार नहीं दिया गया. देखा जाए तो 1960 तक नोबेल पुरस्कार यूरोप और अमेरिका के लोगों को ही ज़्यादातर बांटे गए. दूसरी बात ये थी कि नोबेल पुरस्कार के लिए जो दायरे बने थे, गांधीजी उन दायरों से बाहर की हस्ती थी. वो एक पैटर्न वाली हस्ती नहीं थे. मसलन, न तो वो पूरी तरह राजनेता थे, न अंतर्राष्ट्रीय कानूनों से जुड़े कार्यकर्ता, न ही मानवतावादी संस्था के कार्यकर्ता और न ही ऐसी किसी संस्था के तहत किसी किस्म के शांति आंदोलन के प्रणेता. उन्हें समझने के लिए नोबेल कमेटी को अपनी परिभाषाओं के दायरे से निकलना था.
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दूसरी बात, कहा जाता है कि नॉर्वे की नोबेल कमेटी ब्रिटिश हुकूमत से किसी किस्म का दुराव नहीं चाहती थी इसलिए भी भारत के उस व्यक्ति को नोबेल नहीं दिया गया जो ब्रिटिश राज के खिलाफ खड़ा था. इसका सबूत ये माना जाता है कि 1961 में दिए गए शांति पुरस्कार के बाद एक बयान सामने आया था कि 'आखिरकार नोबेल कमेटी को पश्चिमी सभ्यता से बाहर भी कोई दिखा'. तीसरी बात, महात्मा गांधी के जीवित रहते ही भारत पाकिस्तान के बंटवारे को लेकर उनके खिलाफ काफी कुछ छपा जिसमें उनके नज़रिए को 'मिसकोट' करते हुए भी छापा गया, जिससे दुनिया भर में गांधीजी की छवि को लेकर भी सवाल खड़े भी हुए.
नोबेल शांति पुरस्कार को लेकर विवाद
1948 में जब गांधीजी को पुरस्कार नहीं दिया गया तब उस साल किसी और को ये अवॉर्ड न देने का फैसला करते हुए कमेटी ने कहा था कि कोई उपयुक्त व्यक्ति नहीं था. इससे पहले भी 1933 में किसी को इस अवॉर्ड के योग्य नहीं माना गया था और ये नोबेल शांति पुरस्कार के शुरूआती 35 सालों में सातवीं बार हुआ था जब पुरस्कार को रिज़र्व रख लिया गया था. इसके अलावा मिखाइल गोर्बाचोव और बराक ओबामा जैसी हस्तियों को शांति पुरस्कार देकर और गांधी के साथ ही एलेनॉर रूज़वेल्ट और फज़्ले हसन आबेद जैसी हस्तियों को अनेदखा करने की वजह से भी नोबेल शांति पुरस्कार और कमेटी विवादों में घिरती रही.
गांधी को नोबेल न मिलने के मायने
जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि गांधीजी को नोबेल न देकर नोबेल पुरस्कार की प्रतिष्ठा पर प्रश्नचिह्न लगता है, न कि गांधीजी के कद पर. रिटायर्ड आईएएस अमिताभ भट्टाचार्य ने एक लेख में लिखा था 'आधुनिक इतिहास में ऐसा कोई और शख़्स नहीं है जो अपने ज़िंदा रहते इस कदर पूज्यनीय भी रहा हो और इस कदर गलत समझा गया हो'. नोबेल के दुर्भाग्य को आप ऐसे भी समझ सकते हैं कि गांधीवाद अपनाने वाले कई लोगों को इस पुरस्कार से नवाज़ा गया और 1989 में जब दलाई लामा को यह पुरस्कार दिया गया, तब खुद नोबेल कमेटी ने कहा था कि 'यह महात्मा गांधी को श्रद्धांजलि है'.

वैसे भी, डायनामाइट और हथियारों के आविष्कारक व प्रचारक अल्फ्रेड नोबेल के नाम पर स्थापित एक पुरस्कार अगर गांधीजी दिया भी जाता, तो क्या गांधीजी इस पुरस्कार को स्वीकार करते? इस प्रश्न पर भी विचार किया जाना चाहिए लेकिन अब तक ऐसा कोई दस्तावेज़ नहीं मिलता है जिससे पता चले कि नोबेल पुरस्कार को लेकर गांधीजी के खुद के विचार क्या रहे थे.
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1937 : जब पहली बार शॉर्टलिस्ट हुए बापू
पहला मौका था जब गांधीजी नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नॉमिनेट हुए लेकिन पुरस्कार न देने का एक तरह से कारण बताते हुए नोबेल कमेटी के सलाहकार प्रोफेसर जैकब वॉर्म म्यूलर ने कहा था :


1938 और 1939 : किस्सा कुछ और था
ये वो समय था, जब गांधीवादी आंदोलन अपने चरम पर थे और दुनिया भर में इसके समर्थक बन रहे थे. 1930 के दशक में यूरोप और अमेरिका में एक संस्था बनी थी फ्रेंड्स ऑफ इंडिया एसोसिएशन. नॉर्वे की लेबर पार्टी के एक नेता ओले कॉर्बजॉर्नसन ने लगातार इन दो सालों में गांधीजी का नाम नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नॉमिनेट किया था, जिसे एसोसिएशन का समर्थन भी हासिल था, लेकिन इन दो सालों में नोबेल कमेटी ने इस नाम को तरजीह नहीं दी.
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1947 : दस साल बाद फिर शॉर्टलिस्ट
भारत को ब्रिटिश राज से आज़ादी मिली और गांधीजी का नाम दस साल बाद फिर नोबेल कमेटी में शॉर्टलिस्ट किया गया. इस बार गोविंद वल्लभ पंत, जीवी मालवणकर और जीबी खेर की तरफ से नामांकन हुआ था और इस बार के सलाहकार एरप सीप ने म्यूलर की तरह कठोर रिपोर्ट भी नहीं दी थी लेकिन पैनल के प्रमुख गुन्नार जैन ने कहा :

1948 : क्या मरणोपरांत दिया जा सकता था नोबेल?
उस समय तक ऐसी कोई व्यवस्था नहीं थी कि नोबेल पुरस्कार किसी व्यक्ति को मरणोपरांत दिया जा सके. हालांकि हुआ ये था कि 1948 में हत्या से पहले ही गांधीजी फिर नामांकित किए गए थे और हत्या के बाद नोबेल कमेटी ने गंभीरता से उन्हें शांति पुरस्कार देने का मन भी बनाया था. इस बार गांधीजी के जीवन के आखिरी 5 महीनों के जीवन को लेकर सीप ने कहा था :
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महात्मा गांधी को एक यात्रा के दौरान देश के नामी गिरामी लोगों ने आंदोलन के लिए चंदा दिया था. न्यूज़18 आर्काइव.

इसके बावजूद इस साल भी गांधीजी को नोबेल शांति पुरस्कार नहीं मिल सका क्योंकि गांधी का किसी संस्था विशेष के साथ संबंध नहीं पाया गया. उनकी कोई वसीयत और उपयुक्त वारिस नहीं पाया गया, जिसे पुरस्कार की राशि सौंपी जा सके. एक पेंच ये भी था कि नोबेल मरणोपरांत तब दिया जा सकता था, जब कमेटी के फैसले के बाद नॉमिनेट हुए व्यक्ति की मौत हुई हो.
अब जानें कि हकीकत क्या थी
ये तो नोबेल कमेटी के तर्कों और बयानों की बात लेकिन क्या यही हकीकत भी थी कि गांधीजी को नोबेल पुरस्कार नहीं दिया गया. देखा जाए तो 1960 तक नोबेल पुरस्कार यूरोप और अमेरिका के लोगों को ही ज़्यादातर बांटे गए. दूसरी बात ये थी कि नोबेल पुरस्कार के लिए जो दायरे बने थे, गांधीजी उन दायरों से बाहर की हस्ती थी. वो एक पैटर्न वाली हस्ती नहीं थे. मसलन, न तो वो पूरी तरह राजनेता थे, न अंतर्राष्ट्रीय कानूनों से जुड़े कार्यकर्ता, न ही मानवतावादी संस्था के कार्यकर्ता और न ही ऐसी किसी संस्था के तहत किसी किस्म के शांति आंदोलन के प्रणेता. उन्हें समझने के लिए नोबेल कमेटी को अपनी परिभाषाओं के दायरे से निकलना था.
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दूसरी बात, कहा जाता है कि नॉर्वे की नोबेल कमेटी ब्रिटिश हुकूमत से किसी किस्म का दुराव नहीं चाहती थी इसलिए भी भारत के उस व्यक्ति को नोबेल नहीं दिया गया जो ब्रिटिश राज के खिलाफ खड़ा था. इसका सबूत ये माना जाता है कि 1961 में दिए गए शांति पुरस्कार के बाद एक बयान सामने आया था कि 'आखिरकार नोबेल कमेटी को पश्चिमी सभ्यता से बाहर भी कोई दिखा'. तीसरी बात, महात्मा गांधी के जीवित रहते ही भारत पाकिस्तान के बंटवारे को लेकर उनके खिलाफ काफी कुछ छपा जिसमें उनके नज़रिए को 'मिसकोट' करते हुए भी छापा गया, जिससे दुनिया भर में गांधीजी की छवि को लेकर भी सवाल खड़े भी हुए.
नोबेल शांति पुरस्कार को लेकर विवाद
1948 में जब गांधीजी को पुरस्कार नहीं दिया गया तब उस साल किसी और को ये अवॉर्ड न देने का फैसला करते हुए कमेटी ने कहा था कि कोई उपयुक्त व्यक्ति नहीं था. इससे पहले भी 1933 में किसी को इस अवॉर्ड के योग्य नहीं माना गया था और ये नोबेल शांति पुरस्कार के शुरूआती 35 सालों में सातवीं बार हुआ था जब पुरस्कार को रिज़र्व रख लिया गया था. इसके अलावा मिखाइल गोर्बाचोव और बराक ओबामा जैसी हस्तियों को शांति पुरस्कार देकर और गांधी के साथ ही एलेनॉर रूज़वेल्ट और फज़्ले हसन आबेद जैसी हस्तियों को अनेदखा करने की वजह से भी नोबेल शांति पुरस्कार और कमेटी विवादों में घिरती रही.
गांधी को नोबेल न मिलने के मायने
जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि गांधीजी को नोबेल न देकर नोबेल पुरस्कार की प्रतिष्ठा पर प्रश्नचिह्न लगता है, न कि गांधीजी के कद पर. रिटायर्ड आईएएस अमिताभ भट्टाचार्य ने एक लेख में लिखा था 'आधुनिक इतिहास में ऐसा कोई और शख़्स नहीं है जो अपने ज़िंदा रहते इस कदर पूज्यनीय भी रहा हो और इस कदर गलत समझा गया हो'. नोबेल के दुर्भाग्य को आप ऐसे भी समझ सकते हैं कि गांधीवाद अपनाने वाले कई लोगों को इस पुरस्कार से नवाज़ा गया और 1989 में जब दलाई लामा को यह पुरस्कार दिया गया, तब खुद नोबेल कमेटी ने कहा था कि 'यह महात्मा गांधी को श्रद्धांजलि है'.

1989 में दलाई लामा को नोबेल शांति पुरस्कार से नवाज़ा गया.
वैसे भी, डायनामाइट और हथियारों के आविष्कारक व प्रचारक अल्फ्रेड नोबेल के नाम पर स्थापित एक पुरस्कार अगर गांधीजी दिया भी जाता, तो क्या गांधीजी इस पुरस्कार को स्वीकार करते? इस प्रश्न पर भी विचार किया जाना चाहिए लेकिन अब तक ऐसा कोई दस्तावेज़ नहीं मिलता है जिससे पता चले कि नोबेल पुरस्कार को लेकर गांधीजी के खुद के विचार क्या रहे थे.
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