फ्रेंच कंपनी दसॉ क्या राफेल की दुकान बंद करने जा रही है?

न्यूज़18 क्रिएटिव
भारत ने जिस राफेल के लिए फ्रांस की कंपनी के साथ अरबों डॉलर की डील (India's Rafale Deal) की और जिसकी शुरुआती खेप भी हासिल की, उस लड़ाकू विमान के सामने संकट खड़ा है. जानिए कि पूरी दुनिया ने कैसे रिजेक्ट कर दिए राफेल?
- News18India
- Last Updated: November 18, 2020, 11:52 AM IST
वायु सेनाओं (Air Force) के लिए बेहद उपयोगी और कारगर साबित हो चुके राफेल अपनी विविधता, अनुकूलता और काबिलियत साबित कर चुके हैं. फ्रांस की सेना (French Military) का हिस्सा रह चुके राफेल लड़ाकू विमान वायु सेना के साथ ही नेवी के लिए भी खासा रोल निभा चुके हैं और अफगानिस्तान (Afghanistan), लीबिया, माली, इराक और सीरिया (Syria) में झंडे गाड़ चुके हैं. इन उपलब्धियों और तमाम तकनीकी इनोवेशनों के बावजूद राफेल को अंतरराष्ट्रीय ग्राहक (No Customers for Rafale) नहीं मिल रहे हैं. इसके पीछे कई कारण भी हैं, लेकिन संकट यह है कि कंपनी सर्वाइव कैसे करे.
अमेरिका के F-35A जैसे लड़ाकू विमानों के साथ अगर तुलना की जाए तो राफेल आकार में छोटे हैं और तकनीकी तौर पर भी सीमित रह जाते हैं. दूसरी तरफ, राफेल महंगे भी काफी हैं. वर्तमान में, दुनिया में सबसे महंगे लड़ाकू विमानों में राफेल का नाम लेना भी गलत नहीं होगा. एक विमान 24 से 26 करोड़ डॉलर की कीमत रखता है. अब तक इसे केवल भारत, कतर और मिस्र ने खरीदा है और शुरुआती डील के बाद ये तमाम डील्स घटकर छोटी रह गईं.
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पहले भी घिरा था संकटसाल 2011 में भी ऐसा हुआ था कि फ्रेंच कंपनी दसॉ ने राफेल के उत्पादन और सौदों को बंद करने का मन बनाया था क्योंकि लाख कोशिशों के बावजूद इसके लिए बड़े सौदे या ग्राहक नहीं मिल रहे थे. उस वक्त फ्रांस के रक्षा मंत्री तक ने कह दिया था कि राफेल सिर्फ फ्रांस की सेना तक ही सीमित रह गया है, इसे कोई विदेशी ग्राहक नहीं मिल रहा. इस संकट की सबसे बड़ी वजह इसकी भारी कीमत रही, जो अमेरिकी फाइटरों से भी ज़्यादा थी और है.

हाथ से निकलते रहे सौदे
2015 में कतर ने 24 राफेल जेटों का सौदा किया था और उसके बाद 12 और विमान खरीदे जाने थे, लेकिन 2019 तक सौदा फाइनल हुआ और अतिरिक्त विमानों की खरीदी रद्द हो गई. इसी तरह, भारत ने भी डील को 36 राफेल की खरीदी तक सीमित कर दिया. दासॉ के सामने बड़ा झटका तब था, जब ब्राज़ील के साथ एक बड़ी डील होते होते रह गई थी.
दक्षिण कोरिया और सिंगापुर ने भी राफेल के बदले F-15 को तरजीह दी, तो ओमान, मोरक्को, यूएई और कुवैत ने भी राफेल को रिजेक्ट कर दिया. महंगे सौदे के कारण लीबिया ने भी राफेल को छोड़ दिया और रूस के सुखोई 30 जेट को किफायती होने के कारण चुना.
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यूरोप ने भी राफेल को दिखाया अंगूठा
साल 2018 में राफेल के सौदे को बड़ा झटका तब लगा था, जब बेल्जियम को दूसरे लड़ाकू विमानों के बजाय राफेल खरीदने पर 20 अरब यूरो के निवेश का लालच भी दिया गया था. 'रणनीतिक और आर्थिक समझौते' के साथ अगले 20 सालों में 100 फीसदी रिटर्न का प्रस्ताव भी राफेल सौदे पर दिया गया. और तो और कंपनी ने बेल्जियम को 5000 हाई टेक जॉब्स देने का भी वादा किया था, लेकिन बेल्जियम ने इसके बावजूद डील ठुकरा दी.
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बेल्जियम ने F-35A को चुना और राफेल सौदे की इस बड़ी नाकामी की पूरे यूरोप और फ्रांस के मीडिया में बड़ी किरकिरी हुई.
उम्मीद देने वाले सौदे
राफेल से जुड़े सौदों में एक अहम सौदा भारत के साथ हुआ. हालांकि शुरुआती बातचीत को देखा जाए तो भारत ने 126 राफेल जेट के लिए मन बनाया था, लेकिन डील सिर्फ 36 जेट पर रुक गई. दूसरी तरफ, यूपीए सरकार के समय राफेल के लिए जो डील हो रही थी, उसमें से कई तरह की सेवाएं और भी कम हो गईं, उस डील में जो एनडीए सरकार में फाइनल हुई.

अब फ्रांस के इस फाइटर जेट की उम्मीदें ग्रीस पर टिकी हैं, जिसने तुर्की के खिलाफ जंग के माहौल के बीच राफेल खरीदने की इच्छा जताई है. दसॉ के लिए उम्मीदें तो हैं, लेकिन संकट इससे ज़्यादा गहरा है क्योंकि इतने कम निवेश के बाद कंपनी के सर्वाइव करने की स्थिति में मुश्किल दिख रही है.
आखिर क्या कमी है राफेल में?
क्यों इतने देशों ने राफेल को ठुकरा दिया? खास तौर से बेल्जियम ने जिस तरह की लुभावनी डील को ठोकर मारी, उससे साफ संकेत मिलता है कि राफेल कहीं न कहीं कमज़ोर पड़ता है. एक तो सभी देशों ने यह साफ समझा कि ज़्यादातर आधुनिक जंगी विमान जिस तरह की काबिलियत रखते हैं, राफेल उनके मुकाबले कमतर है. साथ ही, इन विमानों की कीमत और मेंटेनेंस कॉस्ट भी कम है.
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फ्रांस अब भविष्य के कॉम्बैट एयर सिस्टम (FCAS) पर काम कर रहा है, जिसे एयरबस, थेल्स ग्रुप, इंद्रा सिस्टेमस और दसॉ एविएशन मिलकर विकसित करने जा रहे हैं. इस सिस्टम में अगली जनरेशन का वैपन सिस्टम होगा और ये ज़्यादा हाई तकनीक विमान होंगे. ये तमाम फैक्ट्स बताती यूरेशियन की रिपोर्ट का सार यह है कि राफेल की कहानी खत्म होने की संभावनाएं साफ दिख रही हैं.
अमेरिका के F-35A जैसे लड़ाकू विमानों के साथ अगर तुलना की जाए तो राफेल आकार में छोटे हैं और तकनीकी तौर पर भी सीमित रह जाते हैं. दूसरी तरफ, राफेल महंगे भी काफी हैं. वर्तमान में, दुनिया में सबसे महंगे लड़ाकू विमानों में राफेल का नाम लेना भी गलत नहीं होगा. एक विमान 24 से 26 करोड़ डॉलर की कीमत रखता है. अब तक इसे केवल भारत, कतर और मिस्र ने खरीदा है और शुरुआती डील के बाद ये तमाम डील्स घटकर छोटी रह गईं.
ये भी पढ़ें :- रामायण, बापू, बॉलीवुड: किस तरह बचपन से भारत के फैन रहे ओबामा?
पहले भी घिरा था संकटसाल 2011 में भी ऐसा हुआ था कि फ्रेंच कंपनी दसॉ ने राफेल के उत्पादन और सौदों को बंद करने का मन बनाया था क्योंकि लाख कोशिशों के बावजूद इसके लिए बड़े सौदे या ग्राहक नहीं मिल रहे थे. उस वक्त फ्रांस के रक्षा मंत्री तक ने कह दिया था कि राफेल सिर्फ फ्रांस की सेना तक ही सीमित रह गया है, इसे कोई विदेशी ग्राहक नहीं मिल रहा. इस संकट की सबसे बड़ी वजह इसकी भारी कीमत रही, जो अमेरिकी फाइटरों से भी ज़्यादा थी और है.

अन्य प्रतियोगी विमानों के मुकाबले राफेल को कमज़ोर और कमतर लड़ाकू विमान माना जा चुका है.
हाथ से निकलते रहे सौदे
2015 में कतर ने 24 राफेल जेटों का सौदा किया था और उसके बाद 12 और विमान खरीदे जाने थे, लेकिन 2019 तक सौदा फाइनल हुआ और अतिरिक्त विमानों की खरीदी रद्द हो गई. इसी तरह, भारत ने भी डील को 36 राफेल की खरीदी तक सीमित कर दिया. दासॉ के सामने बड़ा झटका तब था, जब ब्राज़ील के साथ एक बड़ी डील होते होते रह गई थी.
ब्राज़ील सरकार के साथ 4 अरब डॉलर की डील 2010 में दसॉ करने वाली थी, लेकिन स्वीडन की फाइटर जेट निर्माता कंपनी ने बाज़ी मार ली और डील हथिया ली. इसी तरह, फ्रांस से 24 राफेल का पहला बैच मिलने के बाद मिस्र ने भी डील स्विच कर दी और रूस के फाइटर सुखोई 35 की तरफ रुख कर लिया.
दक्षिण कोरिया और सिंगापुर ने भी राफेल के बदले F-15 को तरजीह दी, तो ओमान, मोरक्को, यूएई और कुवैत ने भी राफेल को रिजेक्ट कर दिया. महंगे सौदे के कारण लीबिया ने भी राफेल को छोड़ दिया और रूस के सुखोई 30 जेट को किफायती होने के कारण चुना.
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यूरोप ने भी राफेल को दिखाया अंगूठा
साल 2018 में राफेल के सौदे को बड़ा झटका तब लगा था, जब बेल्जियम को दूसरे लड़ाकू विमानों के बजाय राफेल खरीदने पर 20 अरब यूरो के निवेश का लालच भी दिया गया था. 'रणनीतिक और आर्थिक समझौते' के साथ अगले 20 सालों में 100 फीसदी रिटर्न का प्रस्ताव भी राफेल सौदे पर दिया गया. और तो और कंपनी ने बेल्जियम को 5000 हाई टेक जॉब्स देने का भी वादा किया था, लेकिन बेल्जियम ने इसके बावजूद डील ठुकरा दी.
ये भी पढ़ें :- ट्रंप जाएंगे, बाइडन सत्ता में आएंगे तो क्या होगा कश्मीर पर अमेरिका का रुख?
बेल्जियम ने F-35A को चुना और राफेल सौदे की इस बड़ी नाकामी की पूरे यूरोप और फ्रांस के मीडिया में बड़ी किरकिरी हुई.
उम्मीद देने वाले सौदे
राफेल से जुड़े सौदों में एक अहम सौदा भारत के साथ हुआ. हालांकि शुरुआती बातचीत को देखा जाए तो भारत ने 126 राफेल जेट के लिए मन बनाया था, लेकिन डील सिर्फ 36 जेट पर रुक गई. दूसरी तरफ, यूपीए सरकार के समय राफेल के लिए जो डील हो रही थी, उसमें से कई तरह की सेवाएं और भी कम हो गईं, उस डील में जो एनडीए सरकार में फाइनल हुई.

भारत के अलावा किसी प्रमुख देश ने राफेल खरीदने में दिलचस्पी नहीं दिखाई.
अब फ्रांस के इस फाइटर जेट की उम्मीदें ग्रीस पर टिकी हैं, जिसने तुर्की के खिलाफ जंग के माहौल के बीच राफेल खरीदने की इच्छा जताई है. दसॉ के लिए उम्मीदें तो हैं, लेकिन संकट इससे ज़्यादा गहरा है क्योंकि इतने कम निवेश के बाद कंपनी के सर्वाइव करने की स्थिति में मुश्किल दिख रही है.
आखिर क्या कमी है राफेल में?
क्यों इतने देशों ने राफेल को ठुकरा दिया? खास तौर से बेल्जियम ने जिस तरह की लुभावनी डील को ठोकर मारी, उससे साफ संकेत मिलता है कि राफेल कहीं न कहीं कमज़ोर पड़ता है. एक तो सभी देशों ने यह साफ समझा कि ज़्यादातर आधुनिक जंगी विमान जिस तरह की काबिलियत रखते हैं, राफेल उनके मुकाबले कमतर है. साथ ही, इन विमानों की कीमत और मेंटेनेंस कॉस्ट भी कम है.
ये भी पढ़ें :- कौन था अलकायदा का चीफ नंबर 2, जो ईरान में मारा गया!
फ्रांस अब भविष्य के कॉम्बैट एयर सिस्टम (FCAS) पर काम कर रहा है, जिसे एयरबस, थेल्स ग्रुप, इंद्रा सिस्टेमस और दसॉ एविएशन मिलकर विकसित करने जा रहे हैं. इस सिस्टम में अगली जनरेशन का वैपन सिस्टम होगा और ये ज़्यादा हाई तकनीक विमान होंगे. ये तमाम फैक्ट्स बताती यूरेशियन की रिपोर्ट का सार यह है कि राफेल की कहानी खत्म होने की संभावनाएं साफ दिख रही हैं.