'इन द रोम, डू एज़ रोमन्स डू' जैसी कहावतें कई देशों की भाषा (Language) के हिसाब से भी समझी जा सकती हैं. जैसे इंग्लैंड (England) में आप इंग्लिश (English) में बातचीत करते हैं और जापान (Japan) में जापानी में. लेकिन हिंदोस्तान में हिंदी को लेकर यह समझ बनाना मुश्किल है क्योंकि दक्षिण भारत, खासकर तमिलनाडु में 'हिंदी विरोध' (Agitation Against Hindi) की कहानी काफी पुरानी है. भारत को आज़ादी (Pre-Independence) मिलने से पहले के वक्त से यह विरोध शुरू हुआ था, जो अब भी खत्म नहीं हुआ है.
पिछले ही दिनों तमिलनाडु से हिंदी विरोध के सुर तब गूंजे थे, जब नई शिक्षा नीति में 'तीन भाषा फॉर्मूले' को लेकर चर्चाएं थीं. डीएमके नेता और करुणानिधि की बेटी कनिमोई समेत कई दक्षिण भारतीय नेताओं ने खुलकर कहा था कि दक्षिण भारत में 'हिंदी को थोपने' की मनमानी स्वीकार नहीं की जाएगी. यह बहस शांत नहीं हुई थी कि अब एक और मौका मिल गया कि आईआसीटीसी ई टिकट बुकिंग प्रणाली से जुड़े अलर्ट के लिए दक्षिण भारत में भी हिंदी या अंग्रेज़ी का ही विकल्प है.
कारण बताया जा रहा है कि तमिलनाडु या दक्षिण भारत में ऐसे कई लोग हैं, जो हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों ही भाषाएं नहीं जानते, तो रेलवे को उन्हें उनकी भाषा में संदेश या अलर्ट देने चाहिए. चूंकि हिंदी विरोध की बहस और परंपरा चल रही है, तो इस मांग को भी इसी 'हिंदी विरोध' से जोड़कर चर्चाएं शुरू हो रही हैं. आइए जानें कि तमिलनाडु के हिंदी के खिलाफ होने की परंपरा क्या रही है और इसके कारण क्या हैं.
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ब्राह्मणवादी नेता माने जाने वाले पेरियार.
ब्रिटिश राज में शुरू हुई थी मुखालफत
हालांकि यह समस्या अंग्रेज़ों के कारण शुरू नहीं हुई थी, लेकिन मद्रास प्रेसिडेंसी में
1937 में स्थानीय कांग्रेस सरकार ने स्कूलों में जब हिंदी शिक्षा अनिवार्य कर दी, तबसे हिंदी विरोध का सिलसिला शुरू हुआ. इस तरह के फैसले के पीछे मकसद ये था कि देश भर में जो क्रांति फैल रही थी, उससे पूरा देश जुड़ सके और बंटे हुए भारत को एक सूत्र में पिरोया जा सके, लेकिन पेरियार जैसे कई नेताओं और लेागों ने इसे मातृभाषा पर हमले की तरह देखा.
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तमिल भाषा के समृद्ध इतिहास, परंपरा और साहित्य पर गर्व करने वाले तमिलों ने हिंदी को थोपा जाना समझा और अपने गौरव पर हमला. यहां से हिंदी विरोध का संघर्ष शुरू हुआ जो तब 1940 तक लगातार चलता रहा.
आज़ादी के बाद बनी रही लहर
भारत के आज़ाद होने के बाद संविधान निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुई और 1950 में जब हिंदी को राष्ट्रभाषा या देश की इकलौती राजभाषा के रूप में स्वीकार करने की चर्चा हुई, तब फिर दक्षिण भारत से इसका पुरज़ोर विरोध हुआ. इसी के चलते 'द्विभाषी' पद्धति देश में स्वीकार की गई, जो आज तक जारी है. देश की आपसी भाषाओं को लेकर झगड़े में अंग्रेज़ी को प्रमुखता मिली.
इसके बाद 1965 में जब अंग्रेज़ी से छुटकारा पाने के लिए कदम बढ़ाने की कोशिश की गई, तब फिर मुखालफत हुई. इस बार रास्ता यह निकला कि हिंदी और अंग्रेज़ी के अलावा राज्य अपनी औपचारिक भाषा के बारे में खुद फैसला करेंगे. संविधान में 22 प्रमुख भाषाओं को आधिकारिक तौर पर शामिल किया गया.
हालिया विवाद क्या रहे?
2014 के आम चुनाव के बाद फिर हिंदी को लेकर दक्षिण भारत में बहस छिड़ी. इस बार स्कूलों में हिंदी अनिवार्य किए जाने की स्थिति नहीं थी, बल्कि रेलवे स्टेशनों और हाईवे आदि स्थानों पर साइन बोर्ड और ट्रेन टिकट जैसे केंद्रीय स्तर के दस्तावेज़ों में हिंदी में सूचनाएं दिए जाने को लेकर विवाद खड़ा हुआ था. दक्षिण भारत में इस कदम को भी 'हिंदी थोपे जाने' की तरह देखा गया.
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यही नहीं, केंद्र सरकार ने यहां तक
निर्देश दिया था कि सरकार से जुड़ी सभी इकाइयां अपने आधिकारिक सोशल मीडिया अकाउंट हिंदी या अंग्रेज़ी में ही संचालित करें. इसे लेकर तत्कालीन मुख्यमंत्री जयललिता ने खासा विरोध दर्ज करवाया था.

दक्षिण भारत में मेट्रो स्टेशन पर लगे साइन बोर्ड पर हिंदी के प्रयोग का विरोध हुआ था.
हिंदी को लेकर विरोध के सुर विशेषकर तमिलनाडु से ही उठते रहे हैं, लेकिन कभी कभी केरल से भी इस तरह की स्थितियां दिखीं. पिछले कुछ समय में कर्नाटक में भी हिंदी विरोध का माहौल तब देखा गया था जब बेंगलूरु मेट्रो स्टेशन समेत राष्ट्रीयकृत बैंकों आदि के साइन बोर्ड पर हिंदी में सूचनाएं देखी गईं. इन तमाम हालात के बाद अब हिंदी विरोध के कुछ कारण भी देखिए.
आखिर इतना हिंदी विरोध क्यों?
यह बहस काफी लंबी है. इसकी शुरूआत पर हम चर्चा कर चुके हैं कि ब्रिटिश राज में कांग्रेस की हिंदी नीति को लेकर तमिलनाडु में एक अलग धारणा रही. इसके बाद
एक प्रमुख घटना रही समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया का 'अंग्रेज़ी हटाओ आंदोलन'. इस आंदोलन में स्वाभाविक तौर पर अंग्रेज़ी के विकल्प के तौर पर हिंदी की हिमायत हुई और इसका संदेश भी तमिलनाडु में हिंदी थोपने के अर्थ में ही गया.
लोहिया के साथी रहे प्रोफेसर
राजाराम ने कहा था कि लोहिया की भावनाओं को इस तरह समझा गया कि हिंदी को ही एकमात्र राष्ट्रभाषा के तौर पर प्रस्तावित किया गया और इसे दक्षिण भारत में अनिवार्य भाषा बनाने की चाल चली गई. इसके बाद भी, राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर हिंदी को लेकर गतिरोध बने ही रहे. प्रोफेसर राजाराम के शब्दों में यह राजनीतिक समस्या से ज़्यादा नज़रिये की समस्या यानी एटिट्यूड प्रॉब्लम रही है.
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Tags: British Raj, Hindi Language, History, Tamil nadu
FIRST PUBLISHED : October 05, 2020, 12:20 IST