मैकमोहन रेखा को ब्रिटिश इंडिया और तिब्बत ने स्वीकार किया, लेकिन चीन इस पर हमेशा विवाद खड़ा रहता है.
India-China Disputes: अमेरिकी सीनेट के दो सदस्यों, एक रिपब्लिकन और एक डेमोक्रेट ने कांग्रेस के उच्च सदन में एक दो-दलीय प्रस्ताव पेश कर दोहराया है कि अमेरिका मैकमाहन रेखा को अरुणाचल प्रदेश में भारत-चीन के बीच अंतरराष्ट्रीय सीमा के तौर पर मान्यता देता है. ये प्रस्ताव अरुणाचल प्रदेश में भारत की मौजूदा स्थिति की पुष्टि करता है. ये प्रस्ताव उस हिस्से की भारत के अभिन्न अंग के तौर पर पुष्टि करता है, जिसे चीन इसे दक्षिण तिब्बत कहता है. ओरेगॉन के डेमोक्रटिक जूनियर सीनेटर जेफ मर्कले के साथ संकल्प पेश करने वाले टेनेसी के रिपब्लिकन जूनियर सीनेटर बिल हैगर्टी ने कहा कि चीन खुले भारत-प्रशांत क्षेत्र के गंभीर खतरे पैदा कर रहा है.
हैगर्टी ने कहा, ‘चीन की ओर से पेश किए जा रहे खतरों के बीच अमेरिका के लिए जरूरी है कि क्षेत्र में अपने रणनीतिक भागीदारों और खासतौर पर भारत के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा हो. यह द्विदलीय प्रस्ताव भारत के अभिन्न अंग के तौर पर अरुणाचल प्रदेश राज्य को असमान रूप से मान्यता देने के लिए सीनेट के समर्थन को व्यक्त करता है. साथ ही वास्तविक नियंत्रण रेखा के साथ यथास्थिति को बदलने के लिए चीन की सैन्य आक्रामकता की निंदा करता है. इसके अलावा ये प्रस्ताव अमेरिका-भारत रणनीतिक साझेदारी को मजबूती से बढ़ाता है और मुक्त भारत-प्रशांत के समर्थन में है.
मैकमोहन रेखा क्या है?
मैकमोहन रेखा पूर्वी क्षेत्र में चीन और भारत के बीच वास्तविक सीमा के रूप में कार्य करती है. यह विशेष रूप से अरुणाचल प्रदेश और तिब्बत के बीच, पश्चिम में भूटान से लेकर पूर्व में म्यांमार तक की सीमा तय करती है. चीन ने हमेशा से सीमा पर विवाद खड़े करता रहा है. यही नहीं, चीन हमेशा से तिब्बती स्वायत्त क्षेत्र के हिस्से के तौर पर अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा करता रहा है. मैकमोहन रेखा 1914 के शिमला कंवेंशन के दौरान खींची गई थी, जिसे आधिकारिक तौर पर ग्रेट ब्रिटेन, चीन और तिब्बत के बीच सम्मेलन के तौर पर माना गया. इस सम्मेलन में चीन भी शामिल था. मैकमोहन रेखा ने पूर्वी हिमालय क्षेत्र में तिब्बत और ब्रिटिश भारत के प्रभाव वाले क्षेत्रों को आज के भारत के पूर्वोत्तर और उत्तरी म्यांमार में सीमांकित किया. सम्मेलन पर हस्ताक्षर करने से पहले इस क्षेत्र की सीमा अपरिभाषित थी.
प्रथम एंग्लो-बर्मा युद्ध (1824-26) के बाद अंग्रेजों ने असम घाटी पर लगभग पूर्ण नियंत्रण हासिल कर लिया था. अंग्रेजों ने पूर्वोत्तर में मुख्य रूप से जनजातीय भूमि में अपने प्रभाव का विस्तार किया. लंबे समय तक इस आदिवासी भूमि ने ब्रिटिश भारत और तिब्बत के बीच एक बफर का काम किया. तिब्बत पर चीन का प्रभाव 20वीं शताब्दी की शुरुआत तक काफी कम हो गया था. वहीं, ब्रिटेन रूसी क्षेत्र में पड़ने वाले तिब्बत को लेकर चिंतित था. रूसी प्रभाव को रोकने की कोशिश में ब्रिटेन के लोगों ने तिब्बत में एक अभियान चलाया. इसके बाद 1904 में ल्हासा सम्मेलन पर हस्ताक्षर किए. ब्रिटेन के बढ़ते प्रभाव से चिंतित चीन ने भी दक्षिणपूर्वी खाम क्षेत्र पर नियंत्रण के लिए आक्रमण किया. चीन ने असम घाटी के उत्तर में आदिवासी क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया. इसने ब्रिटिश अधिकारियों को जनजातीय क्षेत्र में ब्रिटिश अधिकार क्षेत्र का विस्तार करने की वकालत करने के लिए प्रेरित किया.
शिमला सम्मेलन में क्या हुआ?
शिमला सम्मेलन ने तिब्बत की संप्रभुता के सवाल को सुलझाने और क्षेत्र में भविष्य के विवादों से बचने का प्रयास किया गया. ल्हासा में तिब्बती सरकार का प्रतिनिधित्व पूर्णाधिकारी पल्जोर दोरजे शत्रा और ब्रिटेन का प्रतिनिधित्व दिल्ली में ब्रिटिश भारत के विदेश सचिव सर आर्थर हेनरी मैकमोहन ने किया. चीन की ओर से सम्मेलन में शामिल होने वालों में पूर्णाधिकारी इवान चेन थे. संधि ने बौद्ध क्षेत्र को ‘बाहरी तिब्बत’ और ‘आंतरिक तिब्बत’ में बांट दिया. तय हुआ कि ‘बाहरी तिब्बत’ चीनी आधिपत्य के तहत तिब्बती सरकार के हाथों में रहेगा. हालांकि, चीन को इसके मामलों में हस्तक्षेप की अनुमति नहीं होगी. वहीं, ‘आंतरिक तिब्बत’ चीन के नवगठित गणराज्य के सीधे अधिकार क्षेत्र में होगा.
सम्मेलन ने चीन और तिब्बत के साथ-साथ तिब्बत व ब्रिटिश भारत के बीच की सीमा भी निर्धारित की. इन नई सीमाओं को मुख्य ब्रिटिश वार्ताकार मैकमोहन के नाम पर मैकमोहन रेखा कहा गया. तीनों देशों की ओर से 27 अप्रैल, 1914 को एक मसौदा पर सहमति जताई गई, जिसे चीन ने अस्वीकार कर दिया. अंतिम सम्मेलन पर मैकमोहन और शत्रा ने हस्ताक्षर किए. चीन की ओर से सम्मेलन में शामिल हुए इवान चेन ने मसौदा के लिए सहमति नहीं दी. उन्होंने तर्क दिया कि तिब्बत के पास अंतरराष्ट्रीय समझौतों में प्रवेश करने का कोई स्वतंत्र अधिकार नहीं था.
ये भी पढ़ें – New Zealand में हर साल आते हैं 20 हजार भूकंप के झटके, क्या है इसकी वजह?
कैसे तय हुई भारत-चीन सीमा?
भूटान के एक कोने से लेकर बर्मा सीमा पर इसु रज़ी दर्रे तक की 890 किलोमीटर की सीमा बड़े पैमाने पर हिमालय के शिखर के साथ ‘उच्चतम वाटरशेड सिद्धांत’ का पालन करते हुए तय की गई थी. अंग्रेजों ने पर्वतीय क्षेत्रों में सीमाओं को चित्रित करने का सबसे तार्किक तरीका माने जाने वाले इस सिद्धांत के आधार पर दो नदी मैदानों के बीच उच्चतम शिखर के साथ सीमा रेखा खींची. हालांकि, इसमें कुछ अपवाद भी रखे गए थे. अगर इस सिद्धांत को पूरी तरह से लागू किया जाता तो तवांग तिब्बत का हिस्सा होता, जो असम घाटी से नजदीकी के कारण ब्रिटिश भारत में शामिल किया गया था. साल 1962 के युद्ध से साफ हुआ कि अगर तवांग पर चीन का कब्जा होता तो दक्षिण में घाटी तक उसकी सेना को आसानी से पहुंच मिल जाती.
मैकमोहन रेखा की क्या स्थिति रही?
मैकमोहन रेखा को लेकर शुरू से ही विवाद खड़े हो गए थे. कम्युनिस्टों ने 1949 में सत्ता में आने के बाद चीन को सभी अंतरराष्ट्रीय समझौतों और तथाकथित असमान संधियों से बाहर कर दिया. कम्युनिस्ट शासन का मानना था कि ये समझौते चीन पर ‘अपमान की सदीत्र के दौरान लगाए गए थे. अंतरराष्ट्रीय समझौतों और संधियों से बाहर आने के बाद चीन ने अपनी सभी सीमाओं पर फिर से बातचीत करने की मांग की. चीन भारत के साथ 1962 के युद्ध के दौरान भारत पर जल्दी हावी होने और मैकमोहन रेखा के पार भारतीय क्षेत्र में गहरी पैठ बनाने में सक्षम था. हालांकि, 21 नवंबर को एकतरफा युद्धविराम की घोषणा के बाद इसकी सेनाएं युद्ध के पहले की स्थिति में वापस लौट गईं. कुल मिलाकर मैकमोहन रेखा को लेकर लगातार विवाद बना हुआ है.
ब्रेकिंग न्यूज़ हिंदी में सबसे पहले पढ़ें News18 हिंदी| आज की ताजा खबर, लाइव न्यूज अपडेट, पढ़ें सबसे विश्वसनीय हिंदी न्यूज़ वेबसाइट News18 हिंदी|
Tags: America, Arunachal pradesh, Britain, India china border dispute, India China Border Tension, India china dispute, Tibet