JNU पर समाजवादी नेता बोले थे-क्या आप नेहरू के नाम पर चर्च बनाना चाहते हैं? जानें पूरी कहानी
News18Hindi Updated: November 20, 2019, 10:18 AM IST

जवाहर लाल नेहरू के नाम पर यूनिवर्सिटी खोले जाने को लेकर हुआ था तीखा विरोध.
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) को लेकर बनी ज्वाइंट कमेटी (Joint Committee) में हुई बैठक के दौरान समाजवादी नेता (Socialist Leaders) जवाहर लाल नेहरू के नाम पर भड़क उठे थे. उन्होंने इसे लेकर तीखी प्रतिक्रिया दी थी.
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नई दिल्ली. देश के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री (Lal Bahadur Shastri) के जून 1964 में पदग्रहण के कुछ ही समय बाद पाकिस्तान के साथ भारत के युद्ध जैसे हालात बन गए थे. विपक्षी भी कांग्रेस पर हमलावर थे. वाराणसी की बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) के नाम को लेकर समाजवादी नेता अपना विरोध दर्ज करा ही रहे थे. उनका कहना था कि बीएचयू के नाम से हिंदू शब्द निकाला जाए और इसका नाम फिर से काशी विश्वविद्यालय ही कर दिया जाए. ऐसी स्थितियों के बीच ही शिक्षा मंत्री मोहम्मद अली करीम चागला (Mohammadali Carim Chagla) ने एक नया विश्वविद्यालय बनाने के लिए बिल पेश किया.
हालांकि उसी समय विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने एक नियम लाया था जिसके मुताबिक शिक्षण संस्थाओं का नाम किसी व्यक्ति के नाम पर नहीं रखा जा सकता था. लेकिन चागला और कांग्रेस के अन्य सदस्यों ने सोचा कि जवाहरलाल नेहरू की राजनीतिक वकत को देखते हुए इस विश्वविद्यालय का नाम उनके नाम पर रखा जा सकता है और इसका बहुत ज्यादा विरोध भी नहीं होगा. लेकिन उन्हें मालूम नहीं था कि इसे लेकर काफी विरोध होने वाला है.
इससे पहले आजादी के बाद भारत में जो विश्वविद्यालय बने थे उनके पीछे मजबूत क्षेत्रीय वजहें थीं लेकिन जेएनयू के पीछे ऐसी कोई मजबूत वजह नहीं थी. इस बिल पर राज्यसभा में जमकर चर्चा हुई और चागला ने एक उच्च स्तरीय विश्वविद्यालय के अपने विचार से सबको समझाने की कोशिश की. चागला ने सदन में कहा- 'जब तक हम विज्ञान को महत्व नहीं देंगे हमारा देश आगे नहीं बढ़ेगा. हम बेहद पिछड़े हुए देश हैं.'
राज्यसभा में बिलचागला ने अगस्त 1965 में विश्वविद्यालय का बिल राज्यसभा में पेश कर दिया. कम्यूनिस्ट नेता भूपेश गुप्ता ने विश्वविद्यालय के विचार को और मजबूती प्रदान की. उन्होंने कहा कि विदेश के बड़े विश्वविद्यालयों की तरफ देखने की बजाए हमें इस विश्वविद्यालय को अपने देश के हिसाब से बनाना होगा. हमें ये ध्यान होगा कि गरीबों के बच्चें इसमें कैसे पढ़ पाएंगे? उनका इशारा कॉलेज में पढ़ाई के लिए जरूरी स्कॉलरशिप और दूसरी वित्तीय मददों की तरफ था. उनकी तरफ से यूनिवर्सिटी के नाम को लेकर भी ज्यादा आपत्ति नहीं दर्ज हुई.

हालांकि इसे लेकर समाजवादी नेताओं की तरफ से उंगलियां उठाई गई थीं. जब यूनिवर्सिटी बनाने की ग्रांट को लेकर प्लानिंग कमीशन के पास जानकारी पहुंची तो तब के प्लानिंग कमीशन के डिप्टी चेयरमैन और समाजवादी नेता अशोक मेहता ने शिक्षा मंत्री को लिखा कि हमें पहले इसकी जानकारी नहीं दी गई थी. उनका कहना था कि राज्य भी ऐसे कई विश्वविद्यालय खोलना चाहते हैं लेकिन हम उन्हें आर्थिक दिक्कतों की वजह से मना कर रहे है. चागला ने जवाब दिया कि ऐसा नहीं कि इस यूनिवर्सिटी के बारे जल्दबाजी निर्णय लिया गया. इन विश्वविद्यालय को लेकर 1959 से बातचीत हो रही है. उन्होंने यह भी बताया कि इस यूनिवर्सिटी को लेकर राज्यसभा में बहस जारी है.रविशंकर शुक्ला यूनिवर्सिटी का हुआ जिक्र
इसके बाद सितंबर 1965 में बिल लोकसभा में भी पेश कर दिया गया. बिल डिप्टी एजुकेशन मिनिस्टर भक्त दर्शन ने पेश किया था. साथ ही उन्होंने विश्वविद्यालय पर बहस के लिए 20 संसद सदस्यों के नाम की लिस्ट का भी उल्लेख किया. लोकसभा में अन्य बातों के अलावा यूनिवर्सिटी के नाम को लेकर काफी बहस हुई. नामी वकील और संसद सदस्य एलएम सिंघवी ने कहा कि जब मध्य प्रदेश में रविशंकर शुक्ला विश्वविद्यालय को यूजीसी ने कोई ग्रांट देने से 'नाम' को लेकर ही रोक लगाई है तो वो जवाहरलाल नेहरू के नाम पर विश्वविद्यालय कैसे शुरू कर सकते हैं. उड़ीसा के समाजवादी नेता किशन पटनायक ने इसका जमकर विरोध किया. उन्होंने कहा कि इसकी वजह से आगे चलन शुरू हो जाएगा कि अगर किसी के पास बहुत पैसा है तो वो यूनिवर्सिटी खोल ले. बाद में अपने रसूख और संबंधों के आधार पर इसे मान्यता भी दिलवा ले.

विश्वविद्यालय को संपूर्ण स्वायत्तता देने के प्रावधान पर भी तीखी बहस हुई थी. सांसद डी. सी. शर्मा ने आपत्ति जताते हुए कहा था कि संस्थानों को अपने हिसाब से चलने की पूर्ण छूट नहीं होनी चाहिए. उन पर कोई केंद्रीय दबाव होना आवश्यक है. हालांकि ढेर सारी बहस के बाद इस बिल को 21 सितंबर 1965 लोकसभा में स्वीकार कर ज्वाइंट कमेटी के पास भेज दिया गया जिससे इसका स्वरूप तय किया जा सके और वो बातें जोड़ी जा सकें जिन पर सदन में बहस हुई.
ज्वाइंट कमेटी के सदस्य
यूनिवर्सिटी के लिए बनाई गई ज्वाइंट कमेटी में सदन के सबसे काबिल और पढ़े-लिखे सांसदों का चयन किया गया था. इस कमेटी के चेयरमैन थे न्यायविद गोपालस्वरूप पाठक जो बाद देश के उपराष्ट्रपति भी बने. सोशलिस्ट पार्टी के हेम बरुआ और मुकुट बिहारी लाल शामिल थे. वहीं कम्यूनिस्ट पार्टी के पी.के. कुमारन और एच. एन मुकर्जी थे. इसके अलावा कई शिक्षविदों को भी शामिल किया गया था.
इस कमेटी में भी यूनिवर्सिटी का नाम जवाहरलाल नेहरू के नाम पर रखे जाने को लेकर सबसे तीखी बहस हुई. समाजवादी तो इसके विरोध में शुरुआत से ही थी. कुछ विरोध जनसंघ की तरफ से भी था. इन लोगों का मानना था कि नेहरू का योगदान बेहद महत्वपूर्ण है लेकिन इस यूनिवर्सिटी का नामकरण नेहरू के नाम पर किए जाने का कोई औचित्य नहीं है.
नया शेड्यूल जोड़ने पर तीखी बहस
ज्यादा बवाल तब खड़ा हुआ जब कमेटी की तरफ से एक नया शेड्यूल जोड़ने की बात हुई. इस शेड्यूल के मुताबित यूनिवर्सिटी का नाम जवाहरलाल नेहरू के नाम पर रखा जाना था. इस विश्वविद्यालय का उद्देश्य जवाहरलाल नेहरू के उन उद्देश्यों के लिए काम करना है जिनके लिए वो जिंदगीभर लड़ते रहे. इन उद्देश्यों में राष्ट्रीय एकीकरण, सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र, अंतरराष्ट्रीय संबंधों को समझने के लिए वैज्ञानिक अप्रोच शामिल थे.
समाजवादियों का फूटा गुस्सा
मीटिंग के दौरान नेहरू के सिद्धांतों तक बात ठीक थी लेकिन जैसे ही ये जिक्र हुआ इस यूनिवर्सिटी का नाम उन्हीं के नाम पर रखा जाएगा तो समाजवादी नेता बिफर पड़े. मुकुट बिहारी लाल और हेम बरुआ ने इस पूरे शेड्यूल को ही खारिज कर दिया. उनका तर्क था कि ये तो जिन सिद्धांतों की बात की जा रही है वो तो पूरे देश के हैं उन्हें सिर्फ एक आदमी को समर्पित क्यों करना. समाजवादी नेताओं ने कहा था कि इस तरह तो ये यूनिवर्सिटी चर्च में तब्दील हो जाएगी और एक व्यक्ति की पूजा तक सीमित रह जाएगी. उन्होंने पूछा कि क्या आप नेहरू के नाम पर चर्च खोलना चाहते हैं? अगर नेहरू खुद भी जीवित होते तो खुद को कल्ट के रूप में प्रदर्शित करने से परहेज करते. हालांकि बाद काफी बहस के बाद जवाहरलाल नेहरू के नाम पर सहमति बनी और यूनिवर्सिटी का नामकरण उनके नाम पर ही किया गया. लेकिन ये पूरा प्रयास देश के तत्कालीन शिक्षा मंत्री एमसी चागला का ही था जिनकी वजह से यूनिवर्सिटी का नामकरण नेहरू के नाम पर किया जा सका.
(इस स्टोरी में कई उद्धरण जेएनयू के प्रोफेसर राकेश बाताब्याल की किताब से लिए गए हैं. इस किताब का नाम है JNU: The Making of a University. )
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हालांकि उसी समय विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने एक नियम लाया था जिसके मुताबिक शिक्षण संस्थाओं का नाम किसी व्यक्ति के नाम पर नहीं रखा जा सकता था. लेकिन चागला और कांग्रेस के अन्य सदस्यों ने सोचा कि जवाहरलाल नेहरू की राजनीतिक वकत को देखते हुए इस विश्वविद्यालय का नाम उनके नाम पर रखा जा सकता है और इसका बहुत ज्यादा विरोध भी नहीं होगा. लेकिन उन्हें मालूम नहीं था कि इसे लेकर काफी विरोध होने वाला है.
इससे पहले आजादी के बाद भारत में जो विश्वविद्यालय बने थे उनके पीछे मजबूत क्षेत्रीय वजहें थीं लेकिन जेएनयू के पीछे ऐसी कोई मजबूत वजह नहीं थी. इस बिल पर राज्यसभा में जमकर चर्चा हुई और चागला ने एक उच्च स्तरीय विश्वविद्यालय के अपने विचार से सबको समझाने की कोशिश की. चागला ने सदन में कहा- 'जब तक हम विज्ञान को महत्व नहीं देंगे हमारा देश आगे नहीं बढ़ेगा. हम बेहद पिछड़े हुए देश हैं.'
राज्यसभा में बिलचागला ने अगस्त 1965 में विश्वविद्यालय का बिल राज्यसभा में पेश कर दिया. कम्यूनिस्ट नेता भूपेश गुप्ता ने विश्वविद्यालय के विचार को और मजबूती प्रदान की. उन्होंने कहा कि विदेश के बड़े विश्वविद्यालयों की तरफ देखने की बजाए हमें इस विश्वविद्यालय को अपने देश के हिसाब से बनाना होगा. हमें ये ध्यान होगा कि गरीबों के बच्चें इसमें कैसे पढ़ पाएंगे? उनका इशारा कॉलेज में पढ़ाई के लिए जरूरी स्कॉलरशिप और दूसरी वित्तीय मददों की तरफ था. उनकी तरफ से यूनिवर्सिटी के नाम को लेकर भी ज्यादा आपत्ति नहीं दर्ज हुई.

तत्कालीन शिक्षा मंत्री मोहम्मद करीम चागला को बड़े न्यायविदों में शुमार किया जाता है. उन्हें पहली बार जवाहरलाल नेहरू ने शिक्षा मंत्री बनाया था. बाद में लाल बहादुर शास्त्री ने भी उन्हें शिक्षा मंत्रालय का जिम्मा सौंपा.
हालांकि इसे लेकर समाजवादी नेताओं की तरफ से उंगलियां उठाई गई थीं. जब यूनिवर्सिटी बनाने की ग्रांट को लेकर प्लानिंग कमीशन के पास जानकारी पहुंची तो तब के प्लानिंग कमीशन के डिप्टी चेयरमैन और समाजवादी नेता अशोक मेहता ने शिक्षा मंत्री को लिखा कि हमें पहले इसकी जानकारी नहीं दी गई थी. उनका कहना था कि राज्य भी ऐसे कई विश्वविद्यालय खोलना चाहते हैं लेकिन हम उन्हें आर्थिक दिक्कतों की वजह से मना कर रहे है. चागला ने जवाब दिया कि ऐसा नहीं कि इस यूनिवर्सिटी के बारे जल्दबाजी निर्णय लिया गया. इन विश्वविद्यालय को लेकर 1959 से बातचीत हो रही है. उन्होंने यह भी बताया कि इस यूनिवर्सिटी को लेकर राज्यसभा में बहस जारी है.
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इसके बाद सितंबर 1965 में बिल लोकसभा में भी पेश कर दिया गया. बिल डिप्टी एजुकेशन मिनिस्टर भक्त दर्शन ने पेश किया था. साथ ही उन्होंने विश्वविद्यालय पर बहस के लिए 20 संसद सदस्यों के नाम की लिस्ट का भी उल्लेख किया. लोकसभा में अन्य बातों के अलावा यूनिवर्सिटी के नाम को लेकर काफी बहस हुई. नामी वकील और संसद सदस्य एलएम सिंघवी ने कहा कि जब मध्य प्रदेश में रविशंकर शुक्ला विश्वविद्यालय को यूजीसी ने कोई ग्रांट देने से 'नाम' को लेकर ही रोक लगाई है तो वो जवाहरलाल नेहरू के नाम पर विश्वविद्यालय कैसे शुरू कर सकते हैं. उड़ीसा के समाजवादी नेता किशन पटनायक ने इसका जमकर विरोध किया. उन्होंने कहा कि इसकी वजह से आगे चलन शुरू हो जाएगा कि अगर किसी के पास बहुत पैसा है तो वो यूनिवर्सिटी खोल ले. बाद में अपने रसूख और संबंधों के आधार पर इसे मान्यता भी दिलवा ले.

विश्वविद्यालय को संपूर्ण स्वायत्तता देने के प्रावधान पर भी तीखी बहस हुई थी. सांसद डी. सी. शर्मा ने आपत्ति जताते हुए कहा था कि संस्थानों को अपने हिसाब से चलने की पूर्ण छूट नहीं होनी चाहिए. उन पर कोई केंद्रीय दबाव होना आवश्यक है. हालांकि ढेर सारी बहस के बाद इस बिल को 21 सितंबर 1965 लोकसभा में स्वीकार कर ज्वाइंट कमेटी के पास भेज दिया गया जिससे इसका स्वरूप तय किया जा सके और वो बातें जोड़ी जा सकें जिन पर सदन में बहस हुई.
ज्वाइंट कमेटी के सदस्य
यूनिवर्सिटी के लिए बनाई गई ज्वाइंट कमेटी में सदन के सबसे काबिल और पढ़े-लिखे सांसदों का चयन किया गया था. इस कमेटी के चेयरमैन थे न्यायविद गोपालस्वरूप पाठक जो बाद देश के उपराष्ट्रपति भी बने. सोशलिस्ट पार्टी के हेम बरुआ और मुकुट बिहारी लाल शामिल थे. वहीं कम्यूनिस्ट पार्टी के पी.के. कुमारन और एच. एन मुकर्जी थे. इसके अलावा कई शिक्षविदों को भी शामिल किया गया था.
इस कमेटी में भी यूनिवर्सिटी का नाम जवाहरलाल नेहरू के नाम पर रखे जाने को लेकर सबसे तीखी बहस हुई. समाजवादी तो इसके विरोध में शुरुआत से ही थी. कुछ विरोध जनसंघ की तरफ से भी था. इन लोगों का मानना था कि नेहरू का योगदान बेहद महत्वपूर्ण है लेकिन इस यूनिवर्सिटी का नामकरण नेहरू के नाम पर किए जाने का कोई औचित्य नहीं है.
नया शेड्यूल जोड़ने पर तीखी बहस
ज्यादा बवाल तब खड़ा हुआ जब कमेटी की तरफ से एक नया शेड्यूल जोड़ने की बात हुई. इस शेड्यूल के मुताबित यूनिवर्सिटी का नाम जवाहरलाल नेहरू के नाम पर रखा जाना था. इस विश्वविद्यालय का उद्देश्य जवाहरलाल नेहरू के उन उद्देश्यों के लिए काम करना है जिनके लिए वो जिंदगीभर लड़ते रहे. इन उद्देश्यों में राष्ट्रीय एकीकरण, सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र, अंतरराष्ट्रीय संबंधों को समझने के लिए वैज्ञानिक अप्रोच शामिल थे.
समाजवादियों का फूटा गुस्सा
मीटिंग के दौरान नेहरू के सिद्धांतों तक बात ठीक थी लेकिन जैसे ही ये जिक्र हुआ इस यूनिवर्सिटी का नाम उन्हीं के नाम पर रखा जाएगा तो समाजवादी नेता बिफर पड़े. मुकुट बिहारी लाल और हेम बरुआ ने इस पूरे शेड्यूल को ही खारिज कर दिया. उनका तर्क था कि ये तो जिन सिद्धांतों की बात की जा रही है वो तो पूरे देश के हैं उन्हें सिर्फ एक आदमी को समर्पित क्यों करना. समाजवादी नेताओं ने कहा था कि इस तरह तो ये यूनिवर्सिटी चर्च में तब्दील हो जाएगी और एक व्यक्ति की पूजा तक सीमित रह जाएगी. उन्होंने पूछा कि क्या आप नेहरू के नाम पर चर्च खोलना चाहते हैं? अगर नेहरू खुद भी जीवित होते तो खुद को कल्ट के रूप में प्रदर्शित करने से परहेज करते. हालांकि बाद काफी बहस के बाद जवाहरलाल नेहरू के नाम पर सहमति बनी और यूनिवर्सिटी का नामकरण उनके नाम पर ही किया गया. लेकिन ये पूरा प्रयास देश के तत्कालीन शिक्षा मंत्री एमसी चागला का ही था जिनकी वजह से यूनिवर्सिटी का नामकरण नेहरू के नाम पर किया जा सका.
(इस स्टोरी में कई उद्धरण जेएनयू के प्रोफेसर राकेश बाताब्याल की किताब से लिए गए हैं. इस किताब का नाम है JNU: The Making of a University. )
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First published: November 20, 2019, 9:56 AM IST
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