राकेश बेदी
यूं उठे आह उस गली से हम
जैसे कोई जहां से उठता है
- मीर
जब शर्मा जी ने वर्माजी के साथ मिलकर हिंदी फिल्मों में संगीत देने का फैसला किया तो उन्हें इस बात का तनिक भी अंदाजा नहीं रहा होगा कि फिरंगियों का कोई मूढ़मति वकील भारत के नक्शे पर आनन-फानन में एक मामूली सी लकीर खींच देगा और अपनी कलम के एक मामूली से वार से एक समूचे राष्ट्र को दो टुकड़ों में बांट देगा. इस तरह मुल्क के दो हिस्से हो जाएंगे और वर्माजी को अपना वतन छोड़ पाकिस्तान जाना पड़ेगा. पाकिस्तान, एक नया मुल्क जो खून से सनी जमीन पर पैदा हुआ. इस मुल्क पर अपनी कारीगरी के निशान छोड़ने के बाद रेडक्ल्फि ने तो तुरंत अपना बोरिया-बिस्तर बांधा और रवाना हो गया, लेकिन पीछे छूट गए अपनी सरजमीन से बेदखल कर दिए गए, अकेले, दुख और यातना में डूबे हजारों लोग. इस तरह एक शातिर अंग्रेज वकील ने शर्मा जी को उसके वर्माजी से जुदा कर दिया. अगर मंटो को बंटवारे की इस दुखती सूरत का तनिक भी आभास होता तो उन्होंने जरूर उस महान यादगार दोस्ती का एक अफसाना लिखा होता, जिसे दो टुकड़ों में बांट दिया गया.
दिल परेशान है, रात वीरान है
देख जा किस तरह आज तनहा हैं हम
- सरदार जाफरी, फुटपाथ
अकेले छूट गए शर्माजी बाद में खय्याम हो गए और उनके एक नए सफर की शुरुआत हुई. वो सफर, जिसे भारतीय सिनेमा और संगीत के इतिहास में हमेशा के लिए अपना निशान छोड़ देना था. भारत का विचार धीरे-धीरे आकार ले रहा था. गीत लिखने वाले और उसे संगीत से सजाने वाले शब्द-दर-शब्द, धुन-दर-धुन अपने बल से उसे गढ़ रहे थे. रूसी यथार्थवाद और जर्मन अभिव्यक्तिवाद बॉम्बे की फिल्मों को आकार दे रहा था और उसके साथ था भावपूर्ण संगीत, जिसने समूचे राष्ट्र को एक सूत्र में जोड़ने में मदद की. ये वो वक्त था, जब हिंदुस्तान में नैतिकता के सारे प्रतिमान झूठे साबित हो रहे थे और बॉम्बे की फिल्म इंडस्ट्री ऐसी फिल्में बना रही थी, जिसमें आत्मा थी और ऐसा संगीत, जो हिंदुस्तान के कामगार मध्यवर्ग को उत्साह और गर्व से भर रहा था. ये क्लासिक और लोक का ऐसा मेल था, जिसका नशा ही कुछ और था. इसने नया-नया आकार ले रहे राष्ट्र के नरेटिव के बिखरे हुए टुकड़ों को आपस में जोड़कर एक वृहद संपूर्ण तस्वीर बनाने का काम किया.
अब एक अनोखी दुनिया की बुनियाद उठाई जाएगी
वो सुबह कभी तो आएगी
- साहिर, फिर सुबह होगी
ये निश्चित ही हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के लिए एक नई सुबह थी. साहिर अपनी जोशीली कविताओं से रूपहले पर्दे पर आग लगा रहे थे और मुहम्मद जहूर, जो दरअसल खय्याम का असल नाम था, वो ऐसा संगीत रच रहे थे, जिसने पूरे देश को अपने मोहपाश में बांध लिया था. कमोबेश फिल्म की मुख्य थीम एक ही होती थी- एक कृशकाय टूटा हुआ शख्स, जिसकी किस्मत ने उसका साथ छोड़ दिया है, उसका अवारा भटकना, उसका किसी चुलबुली बेपरवाह अमीर लड़की के प्रेम में पड़ जाना और फिर बर्बादियों का कभी न खत्म होने वाला सिलसिला. इस कहानी में वो सबकुछ था, जिससे एक नया-नया आकार ले रहा मुल्क दो-चार हो रहा था- गरीबी, जातिवाद, बेरोजगारी, अय्याश धन-दौलत, कमजोर होती नैतिकता और भ्रष्टाचार में डूबी सियासत. इस सारी भसड़ के बीच एक लड़का होता और एक लड़की, अपनी नियति और अपनी चिंताओं से जूझता हुआ. अंत हमेशा खुशहाल होता. वो मिल जाते और हर कोई खुश और संतुष्टि से भरा सिनेमा हॉल से बाहर निकलता. कई बार कोई प्रतिभाशाली लेखक कमाल कर जाता और अपनी कलम से एक मामूली सी चीज को विराट आख्यान में बदल देता. लेकिन हर बार ये फिल्म का संगीत और उसके गीत ही थे, जो अंत में अपनी छाप छोड़ जाते थे. गुरुदत्त भी साहिर के बिना जादू न कर पाते, न राज कपूर शंकर-जयकिशन के बगैर, न देव आनंद एस.डी. बर्मन के बगैर.
जिंदगी हंस के ना गुजरती तो बहुत अच्छा था
खैर हंस के ना सही रो के गुजर जाएगी
- कैफी, शोला और शबनम
कमजोर, मामूली और बदकिस्मती का मारा हीरो बॉम्बे फिल्म इंडस्ट्री का मुख्य केंद्र था. लहीम-शहीम, खूबसूरत नौजवान धर्मेंद्र अपनी बदकिस्मती की गलियों में भटकता अपनी मुहब्बत के लिए संघर्ष कर रहा है. अगर पचास का दशक उत्साह, जोश और उम्मीदों का दशक था तो साठ का दशक आते-आते आजादी का नशा काफूर होने लगा था. संघर्ष में डूबा इंसान उम्मीद खो रहा था, उसकी कॉलेज की डिग्री एक मामूली बेकार कागज के टुकड़े में तब्दील हो रही थी, प्रेमिका की तरह नौकरी भी उससे कोसों दूर थी, भ्रष्टाचार अजगर की तरह सिर उठा रहा था. जाहिर था कि एक राष्ट्र कांपता, लड़खड़ाता, संघर्ष करता किसी तरह खुद को बचाए रखने और अपने पैरों पर खड़े हो सकने के लिए संघर्ष कर रहा था. पचास के दशक में खय्याम ने दो खूबसूरत नजराने दिए थे. साठ के दशक की शुरुआत हुई शोला और शबनम के साथ और अंत हुआ राजेश खन्ना के साथ. राजेश खन्ना, जिसके लिए उस वक्त पूरे देश में दीवानगी का ऐसा आलम था कि जिसका इलाज दुनिया के किसी हकीम के पास न था. इसी दौरान ये हुआ कि चीन के साथ जंग में भारत की हार हुई और इस राष्ट्र को गढ़ने वाले निर्माता नेहरू का निधन हो गया. विभाजन की त्रासदी और हिंसा के साथ अपनी शुरुआत करने वाला राष्ट्र महज दो दशकों में रूमानियत की किताबी दुनिया में पनाह मांगने लगा.
तू अब से पहले सितारों में बस रही थी कहीं
तुझे जमीं पे बुलाया गया है मेरे लिए
- साहिर, कभी-कभी
सलीम-जावेद ने मिलकर देश के टूटे हुए टुकड़ों को एक जगह इकट्ठा किया और हमारे एंग्री यंग मैन हीरो के टूटे हुए टुकड़ों को जोड़ दिया. हर चीज टूट-फूट गई थी. यहां तक कि राजेश खन्ना भी अपनी योडलई-योडलई करके तंग आ चुके थे. हर ओर नाराजगी का आलम था और हर कोई अपने ही भीतर सुलग रहा था. खय्याम का गहरा, सुरुचिपूर्ण संगीत, जिसकी जड़े पुराने क्लासिक म्यूजिक में थी, वो सत्तर के दशक के शोर-शराबे के साथ जज्ब नहीं हो पा रहा था. 70 का दशक गुस्से से भरा दशक था. चारों ओर सिर्फ शोर-शराबा और खोखली नारेबाजी. हर कोई हर जगह अपनी ताकत का दिखावा करने में मुब्तिला था. जंजीर और शोले में देश का वो गुस्सा जल रहा था. लेकिन शायद यश चोपड़ा गुस्से के इस मिजाज को पकड़ न पाए, जिन्होंने 1976 में कभी-कभी फिल्म बनाई. साहिर और खय्याम एक बार फिर साथ आए और दोनों ने मिलकर ऐसे यादगार गाने दिए, जो आज इस फेसबुक के दौर में याद किए जाते हैं. 70 के दशक के अंत में खय्याम ने नूरी फिल्म का संगीत दिया. जावेद अख्तर के पिता जांनिसार अख्तर ने गाने लिखे और यश चोपड़ा के बैनर तले बनी इस फिल्म का निर्देशन किया अभिनेता रहे मनमोहन कृष्ण ने. फिल्म कभी-कभी और नूरी का संगीत 70 के दशक के शोर में एक गौरव कथा की तरह टंका हुआ है.
इस अंजुमन में आपको आना है बार-बार
दीवार-ओ-दर को गौर से पहचान लीजिए
- शहरयार, उमराव जान
बहुत से लोग खय्याम को उमराव जान से जोड़कर देखते हैं. अगर सत्यजीत रे अवध सल्तनत के क्षय का सिनेमाई पर्दे पर उतार अमर कर दिया था तो मुजफ्फर अली ने लखनऊ की उदास सरजमीं और जादुई संगीत को देश के हर घर में पहुंचा दिया. एंग्री यंग मैन का गुस्सा कम हो रहा था और देश के पास कोई राजेश खन्ना नहीं था, जिसका वजन बढ़ गया था, बाल गिर गए थे और जो पीछे की ओर जा रहा था. अचानक चीजें एक सदी पीछे चली गईं और हमारे संगीत की समृद्ध परंपरा और विरासत के नगीने बाहर आने लगे. शहरयार ने सीने में जलन गीत लिखा और ऐसा लिखा कि अपने वक्त की बेचैनी और बेकरारी को पकड़ लिया और खय्याम के संगीत में बंधकर वो ऐसा जादू हो गया, जिसकी गिरफ्त में लोग एंग्री यंग मैन को भूल गए. ऐसा ही था खय्याम के संगीत का जादू.
फिर छिड़ी रात बात फूलों को
रात है या बारात फूलों की
- मखदूम मोइउद्दीन, बाजार
खय्याम उमराव जान पर ही नहीं रुके. उन्होंने फिल्म बाजार के अपने अनूठे संगीत से एक बार फिर देश को मंत्रमुग्ध कर दिया. पैरलल सिनेमा के प्रतिभाशाली कलाकारों से भरी हुई सागर सरहदी की इस फिल्म बाजार ने खय्याम के संगीत के साथ मिलकर आहिस्ता-आहिस्ता देश के अवचेतन में अपना घर बना लिया. जिन लोगों को श्याम बेनेगल की फिल्मों में नसीर के ताकतवर अभिनय का कोई अंदाजा नहीं था और जो पैरलल सिनेमा में स्मिता पाटिल के काम से वाकिफ नहीं थे, खय्याम के संगीत से सजी इस फिल्म बाजार ने उन सबसे लोगों का तआरुफ करवा दिया.
और फिर संगीत का अंत हो गया. मशीनी बीट्स, डिस्को और मूर्खतापूर्ण गीतों का दौर आ गया. गोविंदा और डेविड धवन ने शोर को मूर्खता के दूसरे मुकाम पर पहुंचा दिया. अब ये अश्लील गीतों और द्विअर्थी संवादों का दौर था. इस नए भारत में खय्याम की कोई जगह नहीं थी. एक और दशक बीता और खय्याम परिदृश्य से गायब होते चले गए. ट्विटर और शोशेबाजी के इस दौर में भी उनका नाम और स्मृति उनकी गीतों में जिंदा है. कृत्रिम मशीनी संगीत के इस दौर में खय्याम हमें पीड़ा और यातना से भरी दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियां याद दिलाते रहते हैं:
पूरा घर अंधियारा गुमसुम साए हैं
कमरे के कोने पास खिसक आए हैं
सूने घर में किस तरह सहेजूं मन कोब्रेकिंग न्यूज़ हिंदी में सबसे पहले पढ़ें News18 हिंदी | आज की ताजा खबर, लाइव न्यूज अपडेट, पढ़ें सबसे विश्वसनीय हिंदी न्यूज़ वेबसाइट News18 हिंदी |
Tags: Guru Dutt, Music, Trending, Trending news, Trivia Cinema
FIRST PUBLISHED : August 22, 2019, 13:43 IST